शपथ ग्रहण से पहले प्रधानमंत्री ने संसद के केंद्रीय कक्ष (सेंट्रल हॉल) में एनडीए सहयोगियों को संबोधन किया। उनका संदेश था कि वे अगले दस साल तक प्रधानमंत्री रहेंगे (हालांकि उन्होंने यह नहीं कहा कि यह उन्हें कैसे पता है), लेकिन हां उन्होंने यह बात सरसरे तौर पर कही ती। असली संदेश तो सहयोगी दलों के लिए यह था कि वे खबरों और सूचनाओं पर ध्यान न दें।
संदेश था कि शपथ ग्रहण के साथ ही उनकी सरकार के बारे में खबरें तो आना शुरु ही ही जाएंगी, लेकिन सहयोगी दल इनकी अनदेखी करें और बिना पुष्टि किसी बात पर भरोसा न करें। आखिर उन्हें यह सब कहने की जरूरत क्यों थी? निश्चित रूप से इसलिए क्योंकि अब सरकार के बारे में उस तरह लिखा जाएगा जैसा कि पिछले एक दशक में नहीं लिखा गया। हम अभी एक पूर्ण गोपनीयता वाले काल से बाहर आए हैं।
पूर्व की बात करें तो मोदी की कैबिनेट के मंत्रियों को नोटबंदी की हवा तक नहीं थी। यह हमें इसलिए पता है क्योंकि बाद में यह सामने आया था कि नोटबंदी के ऐलान से चंद घंटे पहले ही कैबिनेट की बैठक बुलाई गई थी जिसमें नोटबंदी को मंजूरी दिलाई गई थी। लेकिन इस बैठक से पहले सभी मंत्रियों को उनके मोबाइल फोन बाहर ही छोड़ने की हिदायत दी गई थी। और ऐसा इसलिए किया गया था कि नोटबंदी की खबर बाहर न चली जाए। चूंकि मंत्रियों को भी नहीं पता था, इसलिए उनके मंत्रालयों को भी कोई खबर नहीं थी। ऐसी ही स्थिति 2020 में लागू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन को लेकर भी थी जिसके बाद सरकार में शामिल लोग तक सकते में आ गए थे।
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लेकिन, अब ऐसा कुछ नहीं होगा। सहयोगी दलों की मौजूदगी के चलते अब कैबिनेट की जिम्मेदारी और अधिकार सिर्फ एक ही व्यक्ति के पास अब नहीं रहेंगे। यह एक अच्छी बात है।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में मीडिया जो कयास लगाता है उसका एक कारण होता है। इससे पता चलता है कि प्रेस स्वतंत्र है जो सत्ता में बैठे लोगों के बारे में बिना किसी भय के कयास लगा सकता है। लेकिन यह सिर्फ एक पहलू है। दूसरा यह कि वह बातें जो बंद दरवाजों के पीछे होती है और जिन्हें नहीं का जा सकता, उन्हें भी अंदर बैठे लोग फैलाते हैं ताकि उन्हें इसका कुछ फायदा मिल सके। लोकतंत्र में यह सब सामान्य माना जाता है। सिर्फ तानाशाही शासन में ही ऐसा होता है जहां न किसी को कोई जानकारी होती है और न ही जो कुछ चल रहा है उसके बारे में कोई कयास लगाया जा सकता है। तानाशाही में ही लोगों पर निगरानी रखने का खौफ और बोलने पर दंडित किए जाने का खतरा सिर पर मंडराता रहता है।
ऐसे में हमें अब अपेक्षा करनी चाहिए कि आखिर मीडिया के एक धड़े में तो ऐसा बदलाव आएगा और प्रधानमंत्री ने भी इसे समझ लिया है। लेकिन जो निश्चित नहीं है वह यह कि आखिर उन्हें क्यों लगता है कि उनके सहयोगी उनकी बात नहीं सुनेंगे, क्योंकि निस्संदेह वे वही सुनेंगे जिसकी उन्हें फिक्र है।
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नरसिम्हा राव की सरकार गिरने के तुरंत बाद शुरू हुए गठबंधन की सरकारों के मुकाबले मोदी को कुछ लाभ है। और वह लाभ यह है कि उनके पास अपनी पार्टी के 240 सांसद हैं। एनडीए नेता के तौर पर उनसे पहले तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी के पास अपने अंतिम कार्यकाल में पार्टी के केवल 180 सांसद ही थे। इसका अर्थ है कि सहयोगियों के प्रति अधिक असुरक्षा की भावना, यहां तक कि गठबंधन स्वयं ही खबरों में आने लगा है।
फरवरी 199 में एक अद्भुत रिपोर्ट सामने आई थी जिसमें कहा गया था कि वाजपेयी ने तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज को एआईएडीएमके नेता और एनडीए की सहयोगी जयललिता को मनाने भेजा था। फर्नांडीज चेन्नई गए थे और जयललिता के पोज़ गार्डन स्थित घर पर बीजेपी नेता प्रमोद महाजन के साथ अपाइंटमेंट लेकर पहुंचे थे। लेकिन फिर भी जयललिता ने उनसे मुलाकात नहीं की। इसके बजाए जयललिता ने इंटरकॉम पर फर्नांडीज को एक तरह की डांट लगाई। इसके बाद दोनों नेता बैरंग वापस आ गए थे।
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ऐसी ही एक खबर नवंबर 2001 में सामने आई थी, जिसका शीर्षक था, ‘कैबिनेट में जगह न मिलने से ममता कुपित’, इसमें कहा गया था कि एनडीए में शामिल होने के बावदूद तृणमूल ने कैबिनेट बैठक का बहिष्कार किया। उस समय के बीजेपी अध्यक्ष जना कृष्णामूर्ति ने कहा था, “आखिर तुरंत कोई मंत्री बनने की उम्मीद कैसे लगा सकता है? हमारे अपने सांसद भी हैं जो मंत्री बनने की ख्वाहिश रखते हैं और वे काफी समय से इंतजार कर रहे हैं।” उनका इशारा दिल्ली के दो सांसदों मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की तरफ था जोकि मंत्री बनने का इंतजार कर रहे थे और इसी वजह से उनकी नाराजगी भी सामने आ रही थी।
गठबंधन ऐसे ही होते हैं और हमेशा से उनका आचार-व्यवहार ऐसा ही होती है। पिछले दशक के दौरान हमने भारत की राजनीति में लेन-देन की परंपरा से भटकाव देखा है। वाजपेयी एक व्यावहारिक और पुराने तरीके के राजनेता थे, जो असुविधा और चिड़चिड़ाहट और कभी-कभी अपमान तक को स्वीकार कर लेते थे। हालांकि उनके पास अपनी पार्टी के सांसदों की कम संख्या थी, लेकिन मोदी के मुकाबले उनके पास यही सबसे बड़ा लाभ भी था, जबकि मोदी स्वभाव से सत्तावादी हैं (मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और इस बात की पुष्टि कर सकता हूँ), लेकिन अब उन्हें समझौता करना सीखना होगा।
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उम्मीद करें कि मोदी को उन स्थितियों से निरंतर दो-चार नहीं होना पड़ेगा जैसी परिस्थितियों का वाजपेयी को सामना करना पड़ा था, क्योंकि उनके पास अधिक सीटों का आधार है, लेकिन फिर भी ऐसे मौके आ सकते हैं जिन्हें 2014 से 2024 के बीच देश ने देखा है। और वह मौके होंगे जब अपने मंत्रिमंडल पर अपनी मर्जी का कुछ थोपना चाहेंगे। हमें पूरी तरह उम्मीद है कि अगर ऐसा होगा तो उसकी खबरें सामने आएंगी क्योंकि गठबंधन के सहयोगी या बीजेपी के भीतर के ऐसे लोग जो खुद की बात सामने रखना चाहते रहे हैं या चाहेंगे, वह इन सबकी खबरों को सामने लाना चाहेंगे। ऐसे में लोगों से यह कह देना कि खबरों को अनदेखा कर देना, काम नहीं करने वाला है।
किसी गठबंधन में सहयोगी शब्द थोड़ा भ्रामक है क्योंकि यह किसी ऐसे व्यक्ति का भाव देता है जो हमेशा आपके लिए और आपके साथ है। यह गलत है। गठबंधन सहयोगी हमेशा अपने लिए और कभी-कभी आपके साथ होते हैं। एकदम पूर्ण साझेदारी में मतभेद के ऐसे क्षण नहीं आते हैं। लेकिन ऐसा केवल परियों की कहानियों और दिव्य प्राणियों के साथ ही होता है। हम नश्वर लोगों के लिए, दुनिया एक वास्तविक जगह है और हमें इसकी अप्रिय वास्तविकताओं का सामना करना होगा, उन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे निश्चित रूप से सामने आएंगी ही।
वे लोग जो खबरें लिखते हैं, खबरें बताते हैं या खबरों को देखते-सुनते-पढ़ते हैं, उनके लिए यह सब काफी रोचक और रोमांचक होगा और कभी-कभी अगले पांच साल तक मनोरंजक भी होगा।
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