एक समय था जब नेहरूयुगीन भारत में लोकतंत्र घुटनों के बल चलना सीख रहा था। और आम तौर से यह माना जाता था कि जैसे जैसे लोकतांत्रिक भारत में शिक्षा की रोशनी फैलेगी, वैज्ञानिक सोच बढे़गा, बडे़ उद्योग धंधे पनपेंगे, बांधों का निर्माण और नहरों का जाल फैल कर अन्नपूर्णा को सीधे दरवाज़े पर ले आयेगा। और जब पेट में अन्न, हाथ में चार पैसा होगा, तब शिक्षा का प्रसार और नई पीढ़ी की मार्फत वैज्ञानिक सोच का उजाला फैल जायेगा। इसके बाद सदियों पुराने जात-पांत के बंधन और तमाम किस्म के दकियानूसी धार्मिक अंधविश्वास खुद-ब-खुद मिट जायेंगे, जिन्होंने सदियों से हमारे समाज को एक ठहरा हुआ और बदबूदार तालाब बनाये रखा। लेकिन कानून भले बदल दिये जायें और समृद्धि भी बढ़ जाये, पर प्रतिगामी पुरानी रूढ़ियों के बीज नष्ट नहीं होते, बल्कि ज़मीन के भीतर पडे़-पडे़ सही समय का इंतज़ार करते रहते हैं। और जब राजनीति और बाज़ार अपने हित स्वार्थों की तहत उनको खाद पानी देने लगें, तो उनसे फिर नई फुनगियां और शाखायें उपज की सतह पर आने लगती हैं।
1955 में जब नेहरू जी ने कहा था कि एटम बम के युग में तलवार लेकर चलने की ज़िद बेमतलब रस्म है तो मास्टर तारा सिंह ने अमृतसर में कृपाण लहराने वालों का एक मीलों लंबा जुलूस निकाल दिया। उसके आधी सदी बाद तलवारें लहरा कर फिल्म ‘पद्मावत’ रिलीज़ होने का विरोध करने वाले या गोवध बंदी के नाम पर सड़कों पर लाठियां भांजते लोग क्या आपको उनसे भिन्न नज़र आते हैं? कभी गोवध तो कभी लव जिहाद का झूठा भय दिखा कर हिंदू बहुसंख्यकों को यह आज राज्य दर राज्य कहा जा रहा है कि गैर हिंदू लोगों की तादाद बढ़ रही है और इस हालत में नेहरूयुगीन सहिष्णुता बेवकूफी है। सड़क से सीमा तक हर गैर हिंदू समूह के प्रति असीमित क्रोध का रुख ही उनके धर्म का विलोप रोक सकेगा। इस विचारधारा को लगातार खाद-पानी देने को समय-समय पर सर्जिकल स्ट्राइक सरीखे सीमा पर आक्रामकता और क्रोध को सान देने वाले मुद्दे उछाले जाते हैं, जो मीडिया की सघन पड़ताल के बाद नियमित रूप से निर्मूल साबित हो रहे हैं। सो अब मीडिया भी निशाने पर है। साक्ष्य सहित सचाई उजागर करने और सरकार को अक्रोध अपनाकर ठंडे दिमाग से विभिन्न कोणों से इन जटिल ऐतिहासिक मुद्दों पर विचार की सलाह देने वाले मीडियाकर्मियों को राष्ट्रद्रोही और धर्मविमुख ही करार नहीं दिया जाता, मालिकान पर दबाव भी बनाया जाने लगा है कि ऐसे लोग तुरत मुअत्तल किये जायें।
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पिछले चार वर्षों में हमने बार-बार देखा कि किस तरह बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक, दलित बनाम सवर्ण, दलित बनाम पिछडे़, पिछडे़ बनाम अति-पिछडे के खांचे बने। फिर राजनीति ने उनको अलग-अलग सींचना शुरू किया। इससे बरसों पुरानी वे कबीलाई, जातिगत, धार्मिक हिंसा की विभाजनकारी जडे़ें दोबारा ज़िंदा होने लगी हैं जिनको गांधी जी के खून ने ज़मीन के भीतर गाड़ दिया था। पिछले सत्तर बरसों की हर नई लोकतांत्रिक शुरुआत, हर लोकतांत्रिक संस्थान पर नेहरूवादी नीतियों के विरेचन के नाम पर रंदा चलाने और मीडिया की जनहित में खुली अभिव्यक्ति के संवैधानिक हक को जिस-तिस तरह से रोक रहे नेताओं से इतना तो अब पूछना ही होगा कि वे इतने भारी बहुमत से जीत कर भी नेहरू और आज़ाद मीडिया के आगे इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं? फिरकापरस्ती, आर्थिक बदहाली, धार्मिक कट्टरपंथ और सीमा सुरक्षा से ले कर शिक्षा के बदले जा रहे स्वरूप तक कई ज्वलंत मुद्दों पर जनता के सवालों को लिये मीडिया चार साल से जवाब का इंतज़ार कर रहा है। पर इतने वाकचतुर होते हुए भी खुले मीडिया सम्मेलनों से लगातार परहेज़ क्यों? चलिये मीडिया को परे कर दें, तो जो सवाल खुद उनके अपने लोग भी पूछ रहे हैं, उनके जवाब कहां हैं ? खुद उनके ही वरिष्ठतम नेता मुरली मनोहर जोशी ने अपनी ताज़ा रपट में चौतरफा असुरक्षा भरे समय में भारतीय सेना की बढ़ती फटेहाली पर गहरी चिंता जताई है।
जम्मू कश्मीर सुलग रहा है, तो क्या शांति के नाम पर पीडीपी से हाथ मिला कर वहां अवसरवाद को ही नई शक्ल दी गई जिससे पुरानी समस्याओं ने इतना संगीन रूप ले लिया? बार-बार यह कहने के बाद भी कि संघीय ढांचे के तहत राज्यों की स्वायत्तता का पूरा सम्मान होगा, पुराने साथी-दल टीडीपी तथा शिवसेना भी क्यों आज रुसवा हो गठजोड़ छोड़ चुके हैं या छोड़ने की घोषणा कर चुके हैं? बिहार में भी नीतीश कुमार को अपनी तरफ फोड़ लाने से क्या कोई बहुत कारगर गठजोड़ बन सका है?
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