एक दिन सुंजवान सैन्य शिविर पर हुए आतंकी हमले में घायल जवानों और उनके परिजनों से मिलकर जब महबूबा मुफ्ती लौटीं तो उनके ऑफिस में एक और बुरी खबर उनका इंतजार कर रही थी। रजौरी के एक गांव में एक महिला की पाकिस्तान की गोली लगने से मौत हो गई थी, जो नियंत्रण रेखा के उस पार से चलाई गई थी।
शायद इतना काफी नहीं था। दूसरे दिन सुबह यानी 12 फरवरी को महबूबा मुफ्ती को करन नगर में सीआरपीएफ और आतंकियों के बीच चल रही एक और मुठभेड़ के बारे में बताया गया। यहां दो आतंकियों को सीआरपीएफ कैंप में घुसपैठ करने से रोक दिया गया था। कैंप की सुरक्षा में तैनात संतरी ने आतंकियों को चुनौती देते हुए सुंजवान जैसी स्थिति बनने से रोक दिया। लेकिन इस दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गया और आतंकी वहां से भाग गए। आखिरी सांसें गिन रहे जवान को जब अस्पताल ले जाया जा रहा था, उसी वक्त उसके साथी जवानों ने उस घर को घेर लिया जहां वे आतंकी जाकर छिप गए थे।
महबूबा इस घटना में एक और बड़ी घटना देख रही थीं, क्योंकि सुरक्षाबलों को आतंकियों को मारने के लिए भीड़भाड़ वाले इलाकों में संपत्तियों को कम से कम नुकसान पहुंचाने के निर्देश होते हैं। इस आलेख के लिखे जाने तक करन नगर में जारी मुठभेड़ खत्म नहीं हुआ था।
महबूबा की मुफ्ती की आशंका सच साबित हुई, एक घंटे के अंदर ही सोशल मीडिया पर टाइम्स नाऊ चैनल अपने प्राइम टाइम डिबेट का प्रोमो चलाने लगा; क्या महबूबा पाकिस्तान परस्त प्रवक्ता हैं? न्यूज टीवी चैनल बहस के लिए उत्तेजक मुद्दे के तौर पर अक्सर कश्मीर का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अच्छी टीआरपी मिलती है। उन्होंने चैनलों को झिड़कते हुए कहा, “आप लोग तंदूर में रोटियां सेकना बंद करें।”
कश्मीर मुद्दे की जटिलता पर कट्टरतापूर्ण मीडिया कवरेज को लेकर जम्मू कश्मीर विधानसभा में 12 फरवरी को महबूबा मुफ्ती का गुस्सा उबल पड़ा। उन्होंने कश्मीर में रोज हो रही हिंसा को रोकने के एक मात्र उपाय के तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की अपनी मांग को एक बार फिर दोहराया। इससे पहले उन्होंने भविष्वाणी की, “मुझे पता है कि शाम में कुछ न्यूज चैनल बातचीत की मांग करने की वजह से मुझे राष्ट्रविरोधी ठहरा देंगे।”
महबूबा मुफ्ती की आशंका सच साबित हुई, एक घंटे के अंदर ही सोशल मीडिया पर टाइम्स नाऊ चैनल के प्राइम टाइम डिबेट का प्रोमो चलने लगा, जो इस तरह था- क्या महबूबा पाकिस्तान परस्त प्रवक्ता हैं?
न्यूज टीवी चैनल अक्सर बहस में उत्तेजक मुद्दे के तौर पर कश्मीर का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अच्छी टीआरपी मिलती है। उन्होंने चैनलों को झिड़कते हुए कहा, “आप लोग तंदूर में रोटियां सेकना बंद करें।”
न्यूज चैनलों द्वारा कश्मीर के कट्टरपंथी कवरेज ने कई लोगों को इस प्रवृत्ति पर अपनी निराशा जाहिर करने के लिए मजबूर किया है। हाल ही में, बीबीसी उर्दू की पूर्व पत्रकार और राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष नईमा मेहजूर ने कहा, देश में ऐसे टीवी चैनलों के रहते हुए हमें दुश्मनों की जरूरत नहीं है।
कश्मीर पर केंद्र सरकार के मध्यस्थ दिनेश्वर शर्मा ने कश्मीर के नाम पर टीवी चैनलों द्वारा किए जा रहे प्रोपगैंडा के खत्म करने के लिए गृहमंत्री राजनाथ सिंह से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। शर्मा ने स्पष्ट तौर पर राजनाथ सिंह से कहा कि मीडिया चर्चाएं शांति प्रेमी कश्मीरियों को चोट पहुंचा रही हैं, क्योंकि उन्होंने एक ही रंग में सभी को रंग दिया है।
इसी तरह, शोपियां हत्याकांड में सैन्य अधिकारी मेजर आदित्य कुमार के खिलाफ दर्ज एफआईआर में कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाने के मामले में भी है। हालांकि, एफआईआर और न्यायालय के आदेश लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं, लेकिन मीडिया में इसे महबूबा सरकार का एफआईआर बनाम सुप्रीम कोर्ट का आदेश बनाकर दिखाया गया, जो कि भारत और कश्मीर और संभवतः आम नागरिकों और सेना के बीच खाई को और गहरा करेगा।
नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर श्रीनगर के एक पत्रकार ने बताया कि एक बार कश्मीर मुद्दे पर चर्चा के लिए उन्हें एक टीवी चैनल द्वारा बुलाया गया था। उन्होंने कहा, “उन्होंने मुझसे खिलाफ में कुछ बोलने के लिए कहा, मैं चैनल के लिखे स्क्रीप्ट के हिसाब से नहीं बोल सकता था।” उन्होंने और कई दूसरे लोगों ने टीवी चर्चाओं में मेहमान बनने से इनकार कर दिया।
चूंकि ऊंची टीआरपी के भूखे चैनलों के इन कानफोड़ू बहसों में कोई भी निष्पक्ष विश्लेषक हिस्सा नहीं बनना चाहता है, इसलिए वे कश्मीर के लोगों के प्रतिनिधी के तौर पर अनजान और महात्वाकांक्षी लोगों को चुनते हैं। ये लोग उग्रवादियों और अलगाववादियों के पक्ष में बोलते हैं, जिससे दर्शकों को यह संदेश जाता है कि घाटी में सभी लोग आतंकवाद का समर्थन करते हैं। यह कश्मीर और बाकी भारत के बीच फासले को और बढ़ाता है।
सेना पर कट्टर राष्ट्रवाद से भरे टीवी कवरेज और चर्चाएं सेना और स्थानीय लोगों के बीच दीवार खड़ी करती हैं। कश्मीर में 2008 में आई बाढ़ इस बात का उदाहरण है कि किस तरह सेना के अच्छे काम को कट्टरता के साथ पेश किए जाने का उल्टा असर पड़ सकता है।
बाढ़ के दौरान श्रीनगर की भयानक बाढ़ में फंसे लोगों को सेना द्वारा नौकाओं के जरिये बचाते और लोगों में पानी और राशन बांटते हुए देखा गया। इस दौरान मीडिया के इस प्रचार की बुरी प्रतिक्रिया हुई कि अतीत में उन पर पत्थर फेंके जाने के बावजूद सेना का कश्मीर के लोगों के प्रति कितना अच्छा रवैया है।
इसी तरह, शोपियां हत्याकांड में सैन्य अधिकारी मेजर आदित्य कुमार के खिलाफ दर्ज एफआईआर में कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाने के मामले में भी है। हालांकि, एफआईआर और न्यायालय के आदेश लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं, लेकिन मीडिया में इसे महबूबा सरकार का एफआईआर बनाम सुप्रीम कोर्ट का आदेश बनाकर दिखाया गया, जो कि भारत और कश्मीर और संभवतः आम नागरिकों और सेना के बीच खाई को और गहरा करेगा।
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