हरियाणा विधान सभा चुनाव के तीन संभावित परिणाम हो सकते हैं। पहला: सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ हवा चलेगी और कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाएगी। दूसरा: यह हवा चुनावी आँधी की शक्ल लेगी और कांग्रेस को भारी बहुमत मिलेगा। तीसरा: कांग्रेस के पक्ष में सुनामी आ जाए और बीजेपी सहित बाकी दल इनी-गिनी सीटों पर ही सिमट जाए।
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यह कोई चुनावी भविष्यवाणी नहीं है। इन तीनों संभावनाओं में से कौन सी सच होगी और किस पार्टी को कितनी सीटें आएगी इसका आंकलन करने की यहां कोई कोशिश नहीं की गई है। यह तो मात्र राजनीति का सामान्य ज्ञान है जो प्रदेश में हर व्यक्ति जानता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुक़ाबला है। पिछले विधान सभा चुनावों की तरह इस बार अभय चौटाला की इनेलो, दुष्यंत चौटाला की जेजेपी, बीएसपी या आम आदमी पार्टी और आजाद उम्मीदवारों की बड़ी भूमिका नहीं रहेगी यह भी हर कोई जानता है कि इस सीधे मुकाबले में कांग्रेस को स्पष्ट बढ़त है। उपरोक्त तीनों संभावनाओं में जो भी सच हो, यह स्पष्ट है कि तीनों स्थिति में सरकार कांग्रेस की ही बनती दिखाई देती है। हरियाणा का वर्तमान विधानसभा चुनाव उन चुनावों की श्रेणी में आता है जिनका फैसला चुनाव की घोषणा होने से पहले ही हो चुका होता है। किस पार्टी ने कौन सा उम्मीदवार खड़ा किया, किस पार्टी ने अपने मैनिफेस्टो में क्या कहा और चुनाव प्रचार में क्या रणनीति अपनायी, इससे सीटों की संख्या कुछ ऊपर नीचे हो सकती है। लेकिन इनसे चुनाव का बुनियादी परिणाम पलटने की संभावना बहुत कम दिखती है।
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दरअसल इस चुनाव का बुनियादी रुझान कोई एक साल या उससे भी पहले ही तय हो चुका था जब सत्ता और समाज के बीच खाई बन चुकी थी। सच कहें तो जनता के मोहभंग की शुरुआत बीजेपी की दूसरी सरकार बनाने के साथ ही हो गई थी। बीजेपी विरोधी वोट को गोलबंद करने वाली दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी ने जिस तरह पासा पलट कर बीजेपी की सरकार बनवाई, उसी से ही जनता के मन में खटास पैदा हो गई थी। सत्ता और समाज को जोड़ने वाला वैधता कहा धागा किसान आंदोलन के दौरान टूट गया। हरियाणा की बीजेपी सरकार ने किसान आन्दोलन को रोकने, उसका दमन करने और फिर उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उधर खेतीहर समाज पूरी तरह से किसान आंदोलन के साथ खड़ा हो गया। आखिर में जब केंद्र सरकार को किसानों की सामने झुकना पड़ा तो हरियाणा सरकार की इज्जत भी गई और इकबाल भी जाता रहा है। यौन शोषण के विरुद्ध महिला पहलवानों के संघर्ष ने सरकार की बची-खुची वैधता भी खत्म कर दी थी। प्रदेश में व्यापक बेरोजगारी तो थी ही, ऊपर से अग्निवीर योजना ने ग्रामीण युवाओं के सपनों पर पानी फेर दिया। यानी किसान, जवान और पहलवान ने मिलकर चुनाव शुरू होने से पहले ही बीजेपी को पछाड़ दिया था।
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इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में ही प्रदेश के बदले हुई राजनैतिक समीकरण की झलक मिल गई थी। पाँच साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कांग्रेस पर 30 प्रतिशत की बढ़त थी, जो इस चुनाव में साफ हो गई। दोनों पार्टियों को पाँच-पाँच सीट मिली और कांग्रेस-आप गठजोड़ को बीजेपी से अधिक वोट आया। फिर भी लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय एजेंडा और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की सहारे बीजेपी बुरी हार से बच गई। लेकिन विधान सभा चुनाव में राज्य सरकार की कारगुजारी से बचने कहा कोई उपाय नहीं है। मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में बीजेपी की पहली सरकार ने फिर भी भ्रष्टाचार कम करने और नौकरियों को योग्यता के अनुसार देने के मामले में कुछ साख कमाई थी। लेकिन दुष्यंत चौटाला की सहयोग से बनी दूसरी सरकार ने भ्रष्टाचार, अहंकार और असंवेदनशीलता की छवि हासिल की। अंततः बीजेपी को मनोहर लाल खट्टर को पदमुक्त करना पड़ा। नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने जरूर फुर्ती दिखाई और कई लोकप्रिय घोषणाएँ भी की हैं, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जनता अपना मन बना चुकी थी
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इस पृष्ठभूमि में अपनी कमजोरी को समझते हुए बीजेपी नेतृत्व ने टिकट बँटवारे में सख्ती और रणनीति से काम लिया है। लेकिन उस से पार्टी में बिखराव बढ़ा है। कांग्रेस के टिकट बँटवारे में भी खूब खींचतान हुई और पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी सामने आई। लेकिन इस बार जमीन पर इससे कोई बड़ा फरक हुआ हो ऐसा नहीं दिखता। दोनों बड़ी पार्टियों ने अपने मैनिफेस्टो जारी कर दिए हैं। बीजेपी को भी बेरोजगारी, अग्निवीर और किसानों को एमएसपी जैसे मुद्दों को स्वीकार करना पड़ा है। लेकिन जमीन पर किसी भी मैनिफेस्टो की ज्यादा चर्चा सुनाई नहीं देती। अंत में बीजेपी के पास हिंदू-मुसलमान या फिर पैंतीस-एक (यानी जाट और गैर जाट की जातीय ध्रुवीकरण) की चाल बची है। इसका कुछ असर चुनिंदा सीटों पर पड़ सकता है। लेकिन इस बार यह ध्रुवीकरण पूरे प्रदेश के फैसले को प्रभावित करता दिखाई नहीं पड़ रहा।
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चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में सब का ध्यान उम्मीदवारों की व्यक्तिगत लोकप्रियता, स्थानीय जाति समीकरणों और चुनाव प्रचार के दाँव पेच पर है। इससे कुल परिणाम ना बदले, इसका सीटों के आँकड़े पर असर पड़ेगा। आखिरी दौर में जो पार्टी आगे दिखाई देती है उसे भेड़चाल के वोटों का भी फायदा हो जाता है। अगर बीजेपी जाट और गैर जाट ध्रुवीकरण में आंशिक रूप से सफल होती है तो वह है कांग्रेस को सामान्य बहुमत पर रोक सकती है। लेकिन अगर यह रणनीति कामयाब न हो पाए तो और आखिरी दिनों में कांग्रेस ढील न दिखाए तो इस हवा को आँधी या सुनामी में बदल भारी बहुमत भी प्राप्त कर सकती है।
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