केंद्रीय वित्त मंत्री के संसद के वर्तमान सत्र में दो पब्लिक सेक्टर बैंकों के निजीकरण का बिल पेश करने की उम्मीद थी लेकिन उन्होंने इसे टाल दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने अपना विचार त्याग दिया है। उन्होंने उन दो बैंकों के नामों का अब तक खुलासा नहीं किया है जिनका निजीकरण हाल में या बाद में होना है। लकिन क्यों? मोदी सरकार पब्लिक सेक्टर बैंकों के निजीकरण पर क्यों तुली हुई है?
इसके दो कारण हो सकते हैं: एक, वह सिद्धांत निजी निवेशकों के लिए ज्यादा-से-ज्यादा अवसर उपलब्ध कराने को कटिबद्ध हो; दूसरा, वह सरकारी राजस्व में घाटा कम करने के लिए अधिक धन हासिल करना चाह रही हो। हम देख सकते हैं कि ये दोनों ही बाहरी कारण हैं। बैंक निजीकरण के कोई आंतरिक कारण नहीं हैं। पब्लिक बैंक इतना बुरा काम नहीं कर रहे हैं कि उनकी चाबियां ततकाल ही निजी उद्धारकों को सौंप दें। सच है कि कई पब्लिक बैंकों ने पिछले वर्षों में कई लोन एकाउंट में घपला किया, उस बारे में गलत आकलन किया। लेकिन क्या यह ऐसा अपराध है कि उन्हें सूली पर चढ़ा दें? क्या निजी बैंकों ने घपला नहीं किया है? क्या निजी बैंकों में ऋण देने में गड़बड़ी नहीं हुई है?
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यस बैंक का उदाहरण सामने है। बैंक के संस्थापक और सीईओ राणा कपूर को एक रियलिटी कंपनी को ऋण मंजूर करने और उस कंपनी से अपनी पत्नी के नाम पर दिल्ली में एक प्रमुख स्थान पर 400 करोड़ रुपये की संपत्ति हासिल करने के आरोप में जेल हुई है। उनके कार्यकाल में बैंक ने 30,000 करोड़ रुपये आवंटित किए जिनमें से 20,000 करोड़ रुपये कथित तौर पर इसलिए गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) हो गए कि बैंक ने ऋण देने के लिए रिश्वत और आर्थिक लाभ हासिल किए। कपूर ने खुद ही कोर्ट से कहा है कि बैंक की वित्तीय स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उन्होंने केंद्र सरकार और आरबीआई से बार-बार अपील की कि इसे अपने हाथ में ले लें। फिर, आईसीआईसीआई बैंक का मामला है। जब चंदा कोचर बैंक की सीईओ थीं, उन पर वीडियोकॉन ग्रुप को 300 करोड़ ऋण देने और उनके पति दीपक कोचर के स्वामित्व वाली नूपावर रीन्यूएबल्स प्राइवटे लिमिटेड के लिए 64 करोड़ रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगा।
आरोप है कि जब वह सीईओ थीं, तब जून, 2009 और अक्टूबर , 2011 के बीच 1,875 करोड़ मूल्य के छह भारी-भरकम ऋण वीडियोकॉन ग्रुप को दिए गए। उनके कार्यकाल में स्टर्लिंग बायोटेक लिमिटेड, भूषण स्टील प्राइवटे लिमिटेड और जेपी समूह को ऋण आवंटन में भी रिश्वत की संभावना की जांच की जा रही है। राणा कपूर और चंदा कोचर के मामले क्या निजी बैंकों में मजबूत कॉरपोरेट प्रबधंन की ओर इशारा करते हैं? नहीं, वे साबित करते हैं कि अगर बैंक के उच्चस्तरीय प्रबंधन और ऊंची पहुंच वाले प्रमोटरों के बीच भ्रष्ट गठबधंन हो, तो पब्लिक बैंकों की तरह प्राइवेट बैंकों का भी विवेक, सही फैसला लेने की क्षमता और निपुणता खत्म हो जा सकती हैं। संयोगवश, यस बैंक और आईसीआईसीआई बैंक में धोखाधड़ी और गोलमाल ने उन्हें कंगाल नहीं बनाया। लेकिन ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक में हुई गड़बड़ी ने उनका भट्टा बैठा दिया।
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नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने पब्लिक बैंकों में ‘खराब कॉरपोरेट प्रबंधन’ के उदाहरण के तौर पर उच्च एनपीए की तरफ इशारा किया है। इसी आधार पर इनके निजीकरण की जरूरत बताई जा रही है। लेकिन उनके तर्क उचित नहीं लगते। यह सच है कि भ्रष्ट बैंक प्रबधंन-प्रमोटर गठबधंन द्वारा की गई बड़ी धोखाधड़ियों से पब्लिक बैंकों में एनपीए काफी अधिक हैं। 2017 के अंत तक ही पब्लिक बैंकों में कुल अग्रिमों के प्रतिशत के तौर पर कुल एनपीए 13.5 प्रतिशत था जबकि निजी बैंकों में यह सिर्फ 3.8 प्रतिशत था। लेकिन बैंकों, आरबीआई और सरकार ने (आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की बात को ध्यान में रखें, तो) ‘अतार्किक उल्लास और उदारता की’ विनाशकारी संस्कृति से सीखा है।
बेहतर प्रबंधन तरीकों और बेहतर जोखिम प्रबंधन व्यवस्थाओं ने उन्हें कुल एनपीए को मार्च, 2022 तक ऋण अग्रिमों के 5.9 प्रतिशत के स्तर तक लाने में मदद की है। स्टैंडर्ड एंड पूअर ग्लोबल रेटिंग्स के अनुसार, उनके एनपीए के मार्च, 2024 तक घटकर 5-5.5 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है। एनपीए में गिरावट इशारा करती है कि पब्लिक बैंकों में बेहतर प्रबंधन के परिणाम नजर आ रहे हैं। तब, केंद्र सरकार इन्हें निजी निवेशकों को सौंपने को क्यों आतुर है?
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आखिरकार, बैंकों में अच्छे प्रबंधन का मतलब है प्रबंधन और प्रमोटरों के बीच के भ्रष्ट गठबधंन को तोड़ना। इसका मतलब है गुणवत्ता के आधार पर चेयरमेन, मैनेजिंग डायरेक्टरों और चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसरों की नियुक्ति। इसका मतलब है नेतृत्व के लिए सबसे अच्छे लोगों को आमंत्रित करने के ख्याल से बाजार के अनुरूप वेतन, अच्छे विकल्प और बोनस। इसका मतलब ऐसे निदेशकों की बहाली जिनमें ईमानदारी हो, विशेषज्ञता हो और उनमें कोई राजनीतिक रुझान न हो। इसका मतलब है गुणवत्ता वाले आंतरिक और बाहरी ऑडिटरों की नियुक्ति। सरकार पब्लिक बैंकों के प्रमुखों की खोज और चयन के लिए वित्तीय सेवा संस्थान ब्यूरो (पहले इसे बैंक बोर्ड ब्यूरो के नाम से जाना जाता था) के तौर पर स्वायत्त संस्थान पहले ही बना चुकी है।
बैंकों के विनिवेश के लिए आतुर होने की जगह निर्मला सीतारमण का ध्यान इस ब्यूरो को बैंक प्रमुखों के तौर पर ईमानदार, उच्च पेशेवर विशेषज्ञता और उद्योग के बारे में नवीनतम जानकारी वाले लोगों को स्वतत्रं तरीके से चुनने देने का होना चाहिए। सीतारमण का दूसरा काम मध्य स्तर के बैंक प्रबधंन को मजबूत करना होना चाहिए। उनका तीसरा काम पब्लिक बैंकों के प्रबधंन को बेहतर बनाने में आरबीआई को हरसंभव मदद का होना चाहिए। कुल मिलाकर, मोदी सरकार को पब्लिक बैकों में अपनी हिस्सेदारी बेचने का विचार छोड़कर इनके प्रबंधन को मजबूत बनाने पर ध्यान लगाना चाहिए। यह मोदी शासन के लिए साख का सवाल है।
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