विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः गणतंत्र में सशक्त विपक्ष क्यों जरूरी है?

महाराष्ट्र के एक नामी अखबार के समारोह में गडकरी जी ने कहा कि प्रमख राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी कांग्रेस का आधार सिकुड़ना हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। एक कारगर गणतंत्र दो पहियों पर ही ठीक से चल सकता है- सत्तापक्ष और विपक्ष।

फोटोः नवजीवन
फोटोः नवजीवन 

आम तौर से हर विधानसभा चुनाव के बाद हमको लगना चाहिए कि भारत में संघीय लोकतंत्र मजबूत है। जो दल जीता सो तो जीता, पर उस पर लगाम साधने वाला राष्ट्रीय विपक्ष भी अपनी जगह बनाए हुए है। वह उसे लगातार संघीय गणतंत्र के स्वीकृत नियमानुशासन याद दिलाता रहेगा। पर मीडिया का भाव इधर कुछ ऐसा दिखता है, मानो अपने 75वें वर्ष की जयंती मना रहा देश अनिश्चय के कर्कश क्षणों से गुजर रहा है। ऐसी दशा में कांग्रेस मुक्त भारत बनाने पर तुली ताकतों के लिए मंजे हुए जननेता और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की हालिया टिप्पणी गौरतलब बनती है।

महाराष्ट्र के एक नामी अखबार के समारोह में गडकरी जी ने कहा कि प्रमख राष्ट्रीय विपक्षी कांग्रेस का आधार सिकुड़ना हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। एक कारगर गणतंत्र दो पहियों पर ही ठीक से चल सकता है- सत्तापक्ष और विपक्ष। बतौर विपक्ष, कांग्रेस एक बड़ी दीवार थी जिसके हटने के बाद देश भर में विपक्षी क्षेत्रीय दल तथा उनके क्षत्रप लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। उनकी राय में कांग्रेसियों को निराशा के दिनों में भी अपने दल की मूल विचारधारा नहीं छोड़नी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। जब भाजपा कमजोर थी, कई हितैषियों ने उनको भी दलबदल की सलाह दी, पर वे अपने ही दल में बने रहे। अंतत: भाजपा के सुदिन आ ही गए।

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गडकरी जी लंबे समय से राजनीति में हैं और अटल जी तथा नेहरू जी की लोकतांत्रिक शैली के प्रशंसक रहे हैं। इसलिए उनकी चेतावनी राजग ही नहीं, संप्रग के लिए भी सामयिक है और मायने रखती है। गणतंत्र में अपना दल कोई पुराना कपड़ा नहीं होता जिसे मन चाहे पहना या उतारा जाए। वह एक देश का लंबे समय तक चली प्रक्रिया से जनता के सपने का प्रतिरूप और उसके वोट से शक्तिमंत बना है। उसके साथ ही उसकी वे संस्थाएं भी बनी हैं जो उस रूप को ताकत और ऊर्जा देती रही हैं।

योजना आयोग भी इसी तरह राज्यों और केन्द्र के बीच सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन का एक मजबूत सांस्थानिक पुल था जिसका मूल रूप सरकार बदलते ही बदल दिया गया। उसकी जगह नीति आयोग आया जिसे सिर्फ योजना बनाने के काम तक सीमित रख कर बजट में विभिन्न मदों में विकास के लिए स्वीकृत राशि को राज्यों को बांटने का पुण्य कार्य केन्द्र सरकार ने खुद संभाल लिया। अब आज के दिन शिक्षा, आरक्षण और कृषि से जुड़े मुद्दों पर कितना हक राज्य का है, कितना केन्द्र का इस पर कड़वी तकरारें होने लगी हैं जिनसे बचा जा सकता था। दिल्ली सहित छत्तीसगढ़, राजस्थान, बंगाल, तमिलनाडु या केरल सरीखे विपक्षी दल शासित राज्य जब केन्द्रीय नीतियों और धन आवंटन को भेदभाव पूर्ण बता कर दिल्ली से बार-बार टकराने को बाध्य हों, तो फिर सब कुछ बदलने लगता है। चुनाव आयोग ही नहीं, खुफिया संस्थाओं, ईडी, बाबूशाही तथा गवर्नरों तक का रोल कई मौकों पर जनता और विपक्ष को बेवजह पेचीदा और पक्षपाती लग रहा है। यह केन्द्र और राज्यों के बीच कड़वाहट बढ़ाते हुए भारत के संघीय ढांचे को बार-बार आघात पहुंचा रहा है। लोकतंत्र की तमाम नियामक संस्थाओं का कमजोर और जनता की नजरों में संदिग्ध बनना कोई स्वस्थ बात नहीं।

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यह कतई जरूरी नहीं है कि गणतंत्र में सत्ता बदलाव के साथ राज्य का मूल स्वरूप बड़े आधार वाला बनने की बजाय एकचालकानुवर्ती और सामंतवादी बनता चला जाए। केन्द्र की शक्ति चुनाव दर चुनाव अपने और अपने दलगत सोच के वर्चस्व का दायरा बढ़ाने पर ही केन्द्रित हो, तो अनुभवी नेताओं की दृष्टि में ईमानदार चुनाव से निरंतर जनमत संग्रह करना कठिन हो जाता है। भारत जैसे आबादी बहुल देश में संसदीय प्रणाली का मौजूदा संघीय स्वरूप सर्वसम्मति से चलाना निश्चय ही आसान नहीं। इस बिंदु पर मीडिया पर पुरानी भारतीय परंपरा और कृष्ण जन्मभूमि के पुनर्निर्माण की शपथ खाने वालों से पूछना जरूरी है कि कृष्णकालीन गणराज्यों पर उनकी राजनैतिक सोच जीरो क्यों बनी हुई है? उनको पीपल के पत्ते पर अंगूठा चूसते या ग्वाल बालों, गोपियों से हंसी-मजाक करते कृष्ण ही क्यों याद हैं, द्वारिका के गणराज्य के संघीय मुखिया कृष्ण क्यों नहीं जो महाभारत में यहां से वहां तक छाए हुए हैं?

महाभारत प्रमाण है कि कृष्ण के समय में भी गणराज्य का रूप कई चक्रवर्तित्व के ग्लैमर से अभिभूत और विस्तारवादी राजाओं को पसंद नहीं था। अपने को राजाओं के बीच फन्ने खां समझने वाले शिशुपाल ने तो पांडव सभा में कृष्ण को ‘अराजा’ कह कर उनको राजा जैसा सम्मान दिए जाने का गाली-गलौज सहित विरोध किया था। कहा था कि राजाओं के बीच गणराज्य के किसी पदेन प्रमुख का राजकीय लेवल का आदर तो नपुंसक के ब्याह सरीखा है। इसके बाद भी द्वारिका में अंधकों, वृष्णियों सहित अठारह कुलों का संघीय गणतंत्र बनाना और बिना उसमें लिप्त हुए अक्रूर का राजतिलक करना, यह काम कृष्ण जैसे निष्काम लोकतांत्रिक चेतना वाले नेता से ही संभव था।

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महाभारत सिर्फ एक आदर्श गणराज्य गिनाता है- द्वारिका। सर्वमान्य, कार्यकुशल और नीतिमान कृष्ण उसके प्रमख रहे, राजा नहीं बने। उनके सपनों का संघीय गणतंत्र कई कुलों (राजन्य भोज) को एकसूत्रता में गूंथने पर भी उनका निजत्व बनाए रखने वाला महान राजनैतिक प्रयोग था और कृष्ण द्वारा नियुक्त और निर्देशित अक्रूर राजन्य कहलाते थे, राजा या सम्राट् नहीं। महाभारत युद्ध में संघ का कौन किस तरफ होगा, इस बात का संचालन भी सर्व परामर्श से ही हुआ था।असहमत बलराम तो छोड़ कर वन चले गए। कुछ दोनों तरफ से लड़े, खुद कृष्ण की सेना एक तरफ रही, वह निहत्थे सारथी बन कर पांडवों के साथ।

जाहिर है, संघ के नेताओं के बीच तब भी निजी लोभ, पारिवारिक राग-द्वेष धोखाधड़ी थे। ऐसे लोभ और क्रोध भीष्म भी कहते हैं गणतंत्र के विनाश की वजह बनते हैं। इसका भारी बोझ कृष्ण ढोते रहे बिना साम्राज्यवादी बने। कभी कृष्ण ने खुद भी दु:खी हो कर नारद से शिकायत करते हुए कहा भी था कि गणप्रमुख के नाते मैं एक तरह से सबकी चाकरी को बाध्य हूं। तिस पर लगातार कड़वी बातें सुननी पड़ती हैं जो आग की तरह मन के भीतर भभकती रहती हैं। मैं किसी की हार नहीं चाहता, न ही हर किसी की जीत! नारद का कुछ इस तरह का उत्तर था कि यह सब छोड़ो, तुम चक्रवर्तित्व के योग्य हो, कमान संभाल कर राजा बन जाओ। लेकिन अगर यही उनको काम्य होता, तो कृष्ण कृष्ण न होते।

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संघ परिवार से जुड़ा हमारा मौजूदा शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व आज कृष्ण का लोकतांत्रिक गणराज्य का कर्मव्रती रक्षक रूप नहीं, भक्तियुगीन बाल काल का वृंदावन बिहारी रूप जनता के बीच भुनाने का इच्छुक है ताकि बात दार्शनिक न बने, भावुकता में बह चले। पर जरूरत है कि हम इतिहास के पेट में घुस कर कृष्ण का वह रूप भी टटोलें जो महाभारत की लड़ाई के समय दिखता था। जब शांति की हर संभावना चुक गई, तो द्वारिका ने संघ के हर राजा को छूट दे दी थी कि जिसका विवेक जिस तरफ ले जाए, जाए। स्वायत्त निर्णय क्षमता यह कृष्ण के राजनैतिक सोच की धुरी थी।

यह सोचना दिलचस्प है कि लंबे समय से केन्द्र द्वारा बंगाल में हारने के बाद बंगाल की उपेक्षा का इल्जाम लगाने वाली तृणमूल कांग्रेस आज उसी स्वायत्तता के मुद्दे पर बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ लामबंद है। उसकी सांसद महुआ मोइत्रा ने संसद में प्रधानमंत्री के आगमन को मोदी-मोदी के नारों के द्वारा किसी रोमन ग्लैडियेटर के अखाड़े में उतरने सरीखा माहौल बनाए जाने पर तीखा रोष व्यक्त किया। दक्षिण भी रंग पकड़ रहा है। अगर इंदिरा गांधी के बल पर भारी बहुमत पाने वाले करुणानिधि (जो अपनी विधानसभा में कह सकते थे कि उनकी स्वायत्तता की कामना मुजीब से भिन्न नहीं।) आज होते तो क्या फरवरी, 2022 में वह भी द्रमुक सांसद कनिमोजी के बयानों पर ताली नहीं बजाते जिसमें उन्होंने संसद में कहा कि भाषा से विकास राशि के बंटवारे तक में दक्षिण भारत को परमुखापेक्षी बना कर उसके साथ नाइंसाफी हो रही है।

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तमिलनाडु के लोग अनंत काल तक जातिवार जनगणना के सरकारी आंकड़े जारी किए जाने का इंतजार नहीं कर सकते जबकि भारत में जाति, जेंडर और धर्म सबसे महत्वपूर्ण कारक बने हुए हैं। जाति को विभेदकारी कह कर खारिज करना और आरक्षित पद रिक्त रखना गलत है। उत्तर भारत के आबादी नियोजन सहित उत्पादकता के अन्य पैमानों पर फिसड्डी दिख रहे राजग शासित प्रदेशों को आबादी नियंत्रण से खुशहाल बने दक्षिणी राज्यों की उपेक्षा करते हुए मुफ्त राशन और आबादी के आधार पर सीटों के नए परिसीमन का प्रस्ताव भी अन्य दक्षिण भारतीय नेताओं को खल रहा है।

आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में गडकरी सही कहते हैं कि किसी भी ताकतवर शासक दल के लिए एक परिपक्व और समर्थ विपक्ष जरूरी है जो छोटे-छोटे क्षेत्रीय हित स्वार्थों के तालाबों-पोखरों में बंट कर उपराष्ट्रों में बिखरने से गणतंत्र के इस विशाल संचयन क्षेत्र को बचाए। कोई सरकार कितनी ही सीटों पर काबिज क्यों न हो, शीर्षनेता की छवि पर टिके भव्य राजकीय आयोजन उसे बाहरी हमलावरों या भूख, बेरोजगारी और अनुत्पादकता की चुनौतियों से बहुत देर तक नहीं बचा सकते। जब-जब भारत कमजोर पड़ा है, उसे विपक्ष ने नहीं बांटा। वह सत्ता के अंतर्विरोधों का ही शिकार हुआ है। आज दुनिया में भारी उथल-पुथल से सब बदल रहा है। यूरोप में कुरुक्षेत्र मचा है। अपनी संप्रभुता तथा पूंजी बचाने के चक्कर में एक-एक कर दुनियाभर के बाजार ग्लोबलाइजेशन तज चके हैं। रूस और चीन की आर्थिक ताकत छीज रही है और रूस का सनकी तानाशाह परमाणु बटन पर उंगली रखे हुए है।

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उधर, साम्राज्यवादी चीन हमारी सीमाओं पर खड़ा गला साफ कर रहा है। कब्जाई जमीन का सूई की नोंक जितना हिस्सा भी वह छोड़ेगा, यह कोई नहीं मानेगा। कर्ज से दबा श्रीलंका बदहाल है, पाकिस्तान फिर सैन्य शासन की कगार पर खड़ा है। जब आस-पड़ोस का हर कोई अपनी-अपनी घरेलू हालत और उत्पादकता संभाल रहा है, उस समय कांग्रेस नेतृत्व पर जानबूझकर लगातार आरोप-प्रत्यारोप लगाना, बंगाल और महाराष्ट्र में केन्द्रीय एजेंसियों की मदद से विपक्षी नेताओं, उनके परिवारों को निशाना बनाना, गवर्नरों के चंद विवादित बयानात सयानेपन और वयस्क राजनीति के लक्षण नहीं। गडकरी जी को धन्यवाद कि उन्होंने इस पर खुल कर कईयों के मन की बात देश के सामने रख दी है।

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