अभी हाल ही में आई मेरी किताब के सिलसिले में मेरा इंटरव्यू लेते हुए सवाल पूछा गया कि हिंदुत्व आखिर नेहरू से इतनी नफरत क्यों करता है? यह एक रोचक सवाल था और इसका जवाब दो हिस्सों में है। इसे समझने के लिए पहले हमें यह समझना होगा कि आखिर नेहरू क्या थे और वह चाहते क्या थे?
आजादी से पहले, नेहरू ने अपने लेखन में खुद को एक ऐसे भारत के साथ जोड़ा जो एक सभ्य समाज और राष्ट्र है, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ भी ऐसा ही मानता है। नेहरू ने आधुनिक भारत की जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता में खोजीं (इसे उन्होंने ग्लिम्पसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री लिखने के कुछ साल पहले और डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखने से कोई 15 साल पहले) जो कि दो सहस्त्राब्दियों के बीच तक फैला है।
नेहरू ने जहां भारत की प्राचीनता को रेखांकित किया, वहीं भारत को आधुनकि विश्व के साथ कदमताल करने और आने वाले समय में समूची मानवता के लिए आधुनिकता को जरूरी समझा। भारत को आधुनिक बनाने के लिए उन्होंने सरकार को माध्यम बनाने की वकालत की। नेहरू ने इसके लिए दो सिद्धांतों को अपनाया, एक तो भारी उद्योगों की स्थापना और दूसरा शिक्षा पर जो। भारत के पास सीमित संसाधन थे, फिर भी इन दो क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई।
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आप इस पर तो बहस कर सकते हैं कि यह रणनीति अच्छी थी, बुरी थी या फिर अलग थी, लेकिन इससे इनकार नहीं कर सकते कि उन्होंने उसे पूरा नहीं किया जिसकी परिकल्पना की थी। उन्होंने एक सभ्यता से निकले देश को आधुनिक बनाने का जो बीड़ा उठाया उसे पूरे करने की राह पर चल पड़े क्योंकि नेहरू न सिर्फ दूरदृष्टि रखते थे (आप इस बात की बहस कर सकते हैं कि आपकी दूरदृष्टि नेहरू से बेहतर है) बल्कि काम करने में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे।
उन्होंने संस्थाएं बनाना शुरु कीं, इनमें से कुछ को आज नवरत्न कहा जाता है, लेकिन तब ये कुछ नहीं थीं और इन्हें स्थापित करने की जरूरत थी। 1964 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, 1956 में ओएनजीसी, 1954 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया, 1964 में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, 1959 में इंडियन ऑयल कार्पोरेशन, 1962 में इसरो (शुरु में इसे इनकोसपार) कहा जाता था, 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग, 1954 में ही भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र आदि। इससे अलावा 1951 में आईआईटी, 1961 में आईआईएम और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजायन और साहित्य अकादमी की स्थापना की।
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सूची बहुत लंबी है। सवाल है कि आखिर इन सबकी जरूरत क्या थी? दरअसल यह वह माध्यम थे जिनके द्वापा नेहरू भारत को आधुनिक बनाना चाहते थे। उन्हें विरासत में एक परा आधानुकि अर्थव्यवस्था मिली थी, जिसमें कृषि ही सबसे बड़ा उत्पादन होती थी और कृषि ऐसे लोगों के हाथों में थी जिनके खेती करने के तौरतरीके हजारों साल से नहीं बदले थे।
नेहरू को विरासत में खरबों की अर्थव्यवस्था नहीं मिली थी। इसे कैसे हासिल किया जाए, उन्होंने इसका रास्ता खोजा था।
समस्या यह है कि जब नेहरू से तुलना की जाती है तो हमारे प्रधानमंत्री सहित पूरे हिंदुत्व में किसी के पास कोई दृष्टि नहीं है, न अच्छी, न बुरी और न अलग। आज के प्रधानमंत्री बयान तो दे सकते हैं कि भारत को 6 खरब की अर्थव्यवस्था बनाना है, लेकिन यह नहीं कहते कि कैसे और अगर कहें कि उन्हें पता ही नहीं कि यह लक्ष्य कैसे हासिल होगा उन्हें नहीं पता। इसके अलावा उन्हें यह भी नहीं पता है कि इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सरकार को क्या कुछ अलग करना होगा। दरअसल आप संस्थाएं तभी बना सकते हैं जब आपको पता हो कि आप उनसे क्या हासिल करना चाहते हैं। मोदी ने किसी भी संस्था का निर्माण या स्थापना नहीं की है, उसका कारण है कि उन्हें इतना भी भान नहीं है जितना कि नेहरू को शुरुआत में था।
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नेहरू ने कहा था – हैवी इंडस्ट्री और उच्च शिक्षा। मोदी इस पर क्या कहते हैं। अगर आप इस प्रश्न का उत्तर देने में कठिनाई महसूस करते हैं तो कारण यह है कि कोई उत्तर है ही नहीं। यह पहला कारण है कि बीजेपी और हिंदुत्व नेहरू से नफरत करते हैं, इसे ईर्ष्या कह सकते हैं।
दूसरा कारण यह है कि नेहरू फर्जी राष्ट्रवादी नहीं थे। वह असली राष्ट्रवादी थे। उन्होंने चीन का सिर्फ नाम नहीं लिया, बल्कि उससे युद्ध किया। नेहरू हार गए क्योंकि वे लड़े। वे लड़े, क्योंकि वे भारत की पवित्र भूमि पर किसी के कब्जे के विचार को ही सहन नहीं कर सके।
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पिछले साल 14 नवंबर को रामनाथ गोयनका लेक्चर में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि नेहरू ने 1960 में हुई झाऊ की यात्रा के दौरान उनके सीमा विवाद के प्रस्ताव को मान लिया था। तो यह प्रस्ताव किया था? प्रस्ताव था कि भारत काराकोरम रेंज को सीमा के तौर पर स्वीकार करेगा। दरअसल यही आज की वास्तविक नियंत्रण रेखा है। लेकिन नेहरू ने इसे स्वीकार नहीं किया था। वे सीमा को तिब्बत में काफी अंदर तक चाहते थे। और इसके लिए लड़ने से भी पीछे नहीं हटने वाले थे। वह लड़ाई भले ही हार गए हों, लेकिन भारत के दावे से पीछे नहीं हटे थे।
इसके विपरीत मोदी ने न सिर्फ दावा छोड़ दिया बल्कि चीन क्या कुछ कर सकता है इसके लिए वह विरोधी का नाम तक लेने से बचते रहे हैं। यह दूसरा कारण है कि बीजेपी और हिंदुत्व नेहरू से नफरत करते हैं। दरअसल मोदी एक ऐसे राष्ट्रवादी हैं जिन्होंने खुद ही अपने फर्जी राष्ट्रवादी दावों की पोल खोल दी है।
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असल में नेहरू शब्द को आज बहुत की हल्के तौर पर पेश किया जाने लगा है क्योंकि हमें समझ ही नहीं है कि नेहरू किन सिद्धांतो के लिए खड़े हुए थे और इन्हें आसान शब्दों या भाषा में समझाया नहीं गया है। उनके बाद आए तमाम नेताओं से न सिर्फ वे श्रेष्ठ हैं, खासतौर से आज के इस दौर में जब अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा ढह चुकी है, बल्कि वे आधुनिकता के आदर्श हैं। 55 साल पहले उनकी मृत्यु हो चुकी है, लेकिन आज भी उनके बारे में, उनकी विरासत के बारे में हमारे चारों तरफ चर्चा हो रही है। आज के प्रधानमंत्री समेत कितने प्रधानमंत्री इस बात को कहने लायक हो पाएंगे?
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