विचार

आखिर क्यों नहीं नज़र आती किसी को मिड डे मील बनाने वाली महिलाओं की व्यथा !

देश में लगभग सभी स्थानों पर मिड-डे मील पकाने वाली महिलाओं से बहुत अन्याय हो रहा है। औसतन एक महिला पर 50 बच्चों का खाना पकाने की जिम्मेदारी होती है। यह कार्य बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। इसके लिए इतना कम वेतन देना हर दृष्टि से बहुत अन्यायपूर्ण है।

फोटो : Getty Images
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मिड-डे मील कार्यक्रम को देश के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पोषण कार्यक्रमों में माना जाता है। इसके बावजूद इसके लिए बजट में कमी की जा रही है। जहां वर्ष 2014-15 में मिड-डे मील पर 10,523 करोड़ रुपए खर्च हुए, वहां अगले तीन वर्षों में इस स्कीम पर क्रमशः 9,145, 9,475 व 9,092 करोड़ रुपए खर्च हुए।

वास्तविक खर्च के आंकड़े अभी 2017-18 तक ही उपलब्ध हैं। यदि बजट-अनुमान के आंकड़ों को देखें तो नवीनतम 2019-20 के अंतरिम बजट में मिड-डे मील के लिए आवंटन वर्ष 2014-15 की अपेक्षा 16.8 प्रतिशत कम है। यदि महंगाई को ध्यान में रखें तो आवंटन की यह कमी और भी अखरती है।

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आवंटन में यह कमी ऐसे समय में हुई है जब मिड-डे मील पकाने वाली लगभग 20 लाख महिलाओं को बहुत कम वेतन देकर उनसे भारी अन्याय किया जा रहा है। इतना ही नहीं, बहुत कम मजदूरी देने में भी बहुत देरी की जा रही है।

एक मिड-डे मील कर्मी स्कूल में आ कर पहले रसोई साफ करती है, कभी-कभी उसे दूसरी कक्षाएं, स्टॉफ रूम आदि भी साफ करने को कहा जाता है। फिर वह खाना पकाती है और परोसती है। प्रायः बच्चे अपने बर्तन स्वयं धो लें तो भी उन्हें ठीक से पोंछ कर रखने का कार्य तो महिलाकर्मी ही संभालती है। फिर वह भोजन पकाने वाले बर्तनों को मांजती है, फिर सफाई करती है और तभी घर जाती है। बीच-बीच में कभी उसे कुछ और काम (जैसे चाय बनाने) के लिए भी कह दिया जाता है।

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बलरामपुर जिले (उत्तर प्रदेश) के बेल्हा प्राईमरी स्कूल में मैना देवी अपनी दो अन्य साथिनों के साथ मिड-डे मील पकाती हैं। वह स्कूल 9 बजे आ जाती हैं। पहले रसोई साफ करती हैं, फिर खाना पकाती हैं। फिर खाना पकाने वाले बर्तन धोती हैं। यह सब काम निबटाते-निबटाते प्रायः 2 या 3 बज जाते हैं यानि स्कूल बंद होने का समय हो जाता है। इस तरह मैना देवी का कार्य लगभग पूरे दिन का कार्य है। पर उसका मासिक वेतन मात्र एक हजार रुपए है।

बहराइच जिले के चितोरा ब्लाक में दोबहा गांव के प्राईमरी स्कूल में सीता देवी मिड-डे मील पकाती हैं। उन्हें भी मात्र एक हजार रुपए मिलते हैं, पर यह बहुत कम वेतन भी समय पर नहीं मिलता है। प्रायः बहुत देर से मिलता है। उनसे बातचीत करने पर पता चला कि पिछले आठ महीनों में सीता देवी को अभी तक (फरवरी अंत तक) मात्र 3500 रुपए ही प्राप्त हुए थे।

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इससे पहले जब इस लेखक ने बिहार के कुछ सरकारी स्कूलों का दौरा किया तो वहां भी मात्र 1200 रुपए का मासिक वेतन मिल रहा था। वहां के स्कूलों में सफाई कर्मचारी के अभाव में मिड-डे मील पकाने वाले महिला से सुबह कुछ कमरों में झाड़ू भी लगवाया जा रहा था। बाद में वहां से मिड-डे मील कर्मियों की हड़ताल के समाचार भी मिले।

देश में लगभग सभी स्थानों पर मिड-डे मील पकाने वाली महिलाओं से बहुत अन्याय हो रहा है। औसतन एक महिला पर 50 बच्चों का खाना पकाने की जिम्मेदारी होती है। यह कार्य बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। इसके लिए इतना कम वेतन देना हर दृष्टि से बहुत अन्यायपूर्ण है।

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असम में वेतन बढ़ाने की मांग के लिए धरना देतीं मिड डे मील बनाने वाली महिलाएं

जो भी कानूनी न्यूनतम मजदूरी किसी भी राज्य में पहले से तय हो, उसके बराबर वेतन मिड-डे मील कर्मियों को अवश्य मिलना चाहिए। जब तक यह संभव नहीं होता है तब तक शीघ्र राहत के तौर पर उनका वेतन कम से कम दोगुना तो तुरंत कर देना चाहिए। साथ में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनका वेतन समय पर मिले। उनके वेतन की बकाया राशि भी उन्हें शीघ्र मिलनी चाहिए।

एक अन्य मुद्दा यह है कि मिड-डे मील भोजन बनाने की रसोई को सुधारना चाहिए। यह ऐसी जगह है जहां कहीं सौ तो कहीं चार सौ व कहीं इससे भी अधिक बच्चों का भोजन बनता है। इतने बड़े पैमाने पर भोजन पकाने की व खाद्य सामग्री तथा बर्तनों को सुरक्षित ढंग से रखने की जो व्यवस्था होनी चाहिए वह अधिकांश स्थानों पर नजर नहीं आती है। ऐसी सुविधाओं के अभाव में भोजन पकाने में सफाई का पूरा ध्यान रखना संभव नहीं है और यही वजह है कि मिड-डे मील दूषित होने व इन्हें खाने वाले बच्चों के बीमार पड़ने के समाचार समय-समय पर मिलते रहते हैं।

इसके अतिरिक्त प्रतिदिन बड़े पैमाने पर भोजन पकाने की प्रक्रिया को सुरक्षित रखना बहुत जरूरी है। अधिकांश स्कूलों में रसोई कक्षाओं के बहुत पास होती है। अतः सुरक्षा की सही व्यवस्था और भी जरूरी हो जाती है। साधारण चूल्हे का जहां उपयोग होता है वहां धुंआ अधिक होता है व गैस चूल्हे में कभी-कभी गैस लीक होने की शिकायत मिलती है।

जो गैस का चूल्हा 400 बच्चों का खाना बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है यदि वही चूल्हा 90 बच्चों वाले स्कूल को दे दिया जाता है तो उसमें भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। अतः विभिन्न स्कूल की आवश्यकताओं के अनुसार ही उपकरण होने चाहिए। उनके सुरक्षित उपयोग की पूरी जानकारी सफाईकर्मियों को होनी चाहिए व समय-समय पर सुरक्षा की दृष्टि से जरूरी जांच होती रहनी चाहिए।

रसोई स्कूल में ही होगी या उससे कुछ दूरी पर यह भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर निर्णय यह है कि मिड-डे मील पकाने की दृष्टि से एक अच्छी रसोई स्कूल से कुछ दूरी पर बने, जो सफाई व सुरक्षा के मानदंडों को ध्यान में रखकर बनाई जाए। इस बारे में जो निर्णय हो उसमें यह छूट देनी होगी कि स्थानीय स्थितियों को ध्यान में रखकर क्रियान्वयन किया जाए। नए नियमों के कारण मिड-डे मील में कोई रुकावट न आ जाए।

मिड डे मील के लिए कच्ची सामग्री यथासंभव स्थानीय किसानों व स्वयं सहायता समूहों से ही प्राप्त करनी चाहिए। किसानों को इसके लिए आर्गेनिक खाद्य उपलब्ध करवाने के लिए उत्साहित करना चाहिए। बच्चे बागवानी में सलाद की सब्जियां व फल लगाएं तो इसका समावेश भी मिड डे मील में कर लेना चाहिए।

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