इसी हफ्ते मैं अपने गृह राज्य ‘उल्टा प्रदेश’ लौटा। चुनाव का माहौल है तो बरबस ध्यान विकास-सुविधाओं की ओर जाता है। इस ओर भी जाता है कि खुद नीति आयोग ने इसे देश में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में माना है।
योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी कोई ठोस काम नहीं कर पाए हैं क्योंकि वे बड़े पैमाने पर नफरत फैलाने और दमनकारी कार्रवाइयों के मामले में ही जुनूनी हैं। वैसे, इन सबके लिए केवल योगी पर उंगली उठाना वाजिब नहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विफलताएं भी उनके लिए भारी पड़ रही हैं। मोदी सरकार ने जिस तरह अर्थव्यवस्था का सत्यानाश किया है, जिस तरह कुछ खास लोगों को बढ़ाया है, जिस तरह महामारी के समय में एक के बाद एक भूलें की हैं, जिस तरह धार्मिक कट्टरता को फैलाया है, उसका भी अपना विपरीत असर तो है ही।
यूपी में मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री शाह के सामने बड़ी दुविधा है- वे राज्य को पूरी तरह जीतना चाहते हैं लेकिन ऐसा करते हुए वे योगी को अपने आस-पास नहीं चाहते हैं क्योंकि ऐसा न हो कि योगी 2024 में ‘सर्वोच्च नेता’ के दावेदार बन जाएं।
पूरी संभावना है कि उनकी पहली इच्छा तो पूरी नहीं होगी लेकिन दूसरी हो जाएगी। यहां तक कि गोदी मीडिया के हवाई “ओपिनियन पोल” का भी अनुमान है कि भाजपा को 2017 की तुलना में 150 से 170 सीटों का नुकसान होने जा रहा है और इसकी वजह मुख्यतः अखिलेश यादव होंगे। अगर मान लें कि इस अनुमान में 25% भी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, तो यह भाजपा के लिए यूपी में हार की भविष्यवाणी है।
केवल प्रताड़ित किसान या खुद को ठगा महसूस करने वाले ओबीसी या उत्पीड़ित दलित ही भाजपा की उम्मीदों पर भारी नहीं पड़ने वाले बल्कि युवा वर्ग भी उसे पटकने वाला है। पूरी संभावना है कि युवा जाति और धर्म से ऊपर उठकर अपने मतों का उपयोग करेंगे।
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सभी प्रमुख राज्यों में बेरोजगारी दर शिखर पर है और पिछले पांच सालों के दौरान व्यावहारिक रूप से कोई भर्ती नहीं हुई है। इन युवाओं के विरोध को पुलिस क्रूरता से दबा दिया जा रहा है और यही युवा वर्ग योगी के लिए बड़ा खतरा बनने को तैयार बैठा है। ‘महाराज’ लंबे समय से समाज के तमाम वर्गों के प्रति अपमानजनक रुख दिखा चुके हैं, इसलिए लगता तो यही है कि 10 मार्च को बड़ा बवंडर उठने वाला है।
मायावती अपनी विशिष्ट अवसरवादी निष्क्रियता के बूते त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किंगमेकर की भूमिका निभाने की उम्मीद कर रही हैं। उनके भी निराश ही होने की संभावना है। उनके 20% पारंपरिक वोट शेयर में मुस्लिमों का बड़ा हिस्सा है जिसके इस बार उनका साथ छोड़कर सपा का दामन थामने की संभावना है। ऐसा ही कुछ मायावती के परंपरागत वोट बैंक जाटव के मामले में हो सकता है क्योंकि इस समुदाय का एक बड़ा वर्ग दलितों पर हो रहे अत्याचारों (जैसा हाथरस मामले में हुआ) पर मायावती के कड़े स्टैंड नहीं लेने की वजह से छिटक सकता है।
बसपा का वोट शेयर 14-15% तक गिर सकता है और यह भाजपा के लिए बुरी खबर है। कांग्रेस को 2017 में 6% वोट मिले थे और इस बार इसमें वृद्धि तय है। पिछली बार वह लगभग एक चौथाई सीटों पर ही लड़ी थी लेकिन इस बार सभी 403 पर लड़ रही है। अगर वह 15 से 20 सीटें भी जीतने में सफल हो जाती है तो यह खंडित जनादेश की स्थिति में संतुलन को दुरुस्त कर सकती है।
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बेशक, यह अनुमान यह मानते हुए लगाया गया है कि चुनाव निष्पक्ष होंगे और चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करने का साहस दिखाएगा कि वह पिछले साल बंगाल के चुनावों के अपने अशोभनीय आचरण को नहीं दोहराने जा रहा है। फिलहाल तो ईवीएम कोई मुद्दा नहीं दिखता लेकिन अगर ईवीएम-वीवीपीएटी के मिलान में कोई गड़बड़ी दिखती है, जैसा 2019 में हुआ था और जिसके बारे में चुनाव आयोग ने अब तक संतोषजनक जवाब नहीं दिया है, तो जरूर मुद्दा बन सकता है। साथ ही, यह भी देखना होगा कि बालाकोट/पुलवामा या मुजफ्फरनगर जैसी कोई आकस्मिक घटना न हो।
खैर, फिर चुनाव आयोग की बात। पहला संकेत तो उत्साहजनक नहीं हैं: कैराना और मथुरा में धर्म आधारित भाषण देने पर केन्द्रीय गृह मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती और उन्हें अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ “डोर-टु-डोर” प्रचार करने दिया जाता है जबकि ऐसे ही मामलों में सपा और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाती है।
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समाजवादी पार्टी समेत कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने चुनाव आयोग से मांग की है कि सभी ओपिनियन पोल्स पर तुरंत पाबंदी लगाई जाए क्योंकि इससे वोटर प्रभावित हो सकते हैं। हाल ही में ‘लोक नीति’ के एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि 65 फीसदी वोटर वास्तव में इन पोलों से प्रभावित हो जातेहैं क्योंकि वे चुनाव के दिन ही यह फैसला करते हैं कि किसे वोट देना है। इसके अलावा 30 फीसदी वोटर ऐसे होते हैं जो ऐसे उम्मीदवार को वोट देते हैं जिसके जीतने की संभावना ज्यादा होती है क्योंकि वे उस व्यक्ति को नाराज नहीं करना चाहते। शहरी इलाकों से बाहर आम तौर पर ऐसा ही होता है। अगर कोई भी काम कराना है तो उसके लिए जरूरी है कि आपने अपने विधायक का साथ चुनाव के वक्त भी दिया हो।
ज्यादातर ओपिनियन पोल के बारे में यह भी सच है कि इसे उस पार्टी के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा भी जाता है जिसने उसे पैसे दिए। इसके अलावा पोल का काम देने वाले चैनल की पसंद का भी ‘खयाल’ रखा जाता है। अगर कभी कोई ओपिननयन पोल सही हो जाए, तो उसे इत्तेफाक ही समझना चाहिए- वैसे ही जैसे रुकी हुई घड़ी भी दो बार सही समय दिखाती है।
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2017 के चुनाव को याद कीजिए। भाजपा के 161-200 सीटें जीतने की बात कही गई थी और उसने जीती 323, सपा के 120-169 सीटें जीतने की बात थी जबकि उसके हिस्से 47 आईं और बसपा के लिए 57-90 सीटों की बात कही गई थी जबकि उसके खाते में केवल 9 आईं। बहरहाल, ओपिनियन पोल के बारे में एक काम तो तत्काल किया ही जा सकता है- यह खुलासा करना अनिवार्य कर दिया जाए कि किस एजेंसी ने पोल किया, किस संगठन ने पोल को प्रायोजित किया और किसने कितने पैसे दिए। आप लोगों के सामने सारी सच्चाई रख दें और उन्हें ही फैसला करने दें। पता तो चले कि किसने किस रंग के कपड़े पहन रखे हैं।
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