इस सप्ताह एक बड़ी खबर यह रही कि एक अभिनेत्री ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर टिप्पणी की। इस अभिनेत्री को लगता है कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भीख मांगने जैसा था और असली स्वतंत्रता तो 2014 में मिली है। करीब 4 दिन तक सोशल मीडिया और मीडिया के अन्य माध्यमों में यही मुद्दा छाया रहा।
इस महीने इससे पहले मुख्य खबर यह थी कि एक बड़े फिल्म स्टार के बेटे को केंद्र सरकार की नारकोटिक्स एजेंसी ने जेल भेज दिया था, हालांकि उसके पास से किसी भी किस्म का कोई ड्रग बरामद नहीं हुआ था। यह खबर करीब तीन सप्ताह तक मीडिया में और अन्य मामध्यमों छाई रही। यानी टीवी डिबेट में चर्चा इसी खबर पर थी। मैंने अपनी नई किताब के लिए कुछ रिसर्च किया है जिसमें देश के दो बड़े न्यूज नेटवर्क में खबरों की कवरेज के पैटर्न या तौरतरीके को जानने की कोशिश की है। अगस्त 2020 की बात करें तो रिपब्लिक टीवी ने अपने कुल 45 में से 38 डिबेट सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले पर किए थे। वहीं टाइम्स नाउ ने सुशांत की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती पर 35 डिबेट किए थे।
इसी तरह का एक अध्ययन विहंग जुमले और क्रिस्टोफ जेफरलेट ने रिपब्लिक टीवी की मई 2017 से अप्रैल 2020 के दौरान की गई कवरेज का विश्लेषण किया है। इस दौरान हुई 1779 डिबेट में से आधे से अधिक में विपक्ष की आलोचना की गई ङै और इस दौरान सरकार से सवाल पूछने वाला एक भी डिबेट नहीं किया गया। दरअसल मैं इस बिंदु में राजनीतिक बात नहीं कह रहा हूं, मैं दरअसल समूचे मीडिया और खासतौर से बड़े मीडिया घरानों में जो कंटेंट या सामग्री परोसी जा रही है उसकी प्रकृति की बात कर रहा हूं।
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खबरों या फिर सिर्फ कंटेंट ही कहें तो बेहतर है, को जबरदस्ती बढ़ाया-चढ़ाया जाता है यानी कंटेंट पूरी तरह सतही और बनावटी है। यह बात उन मीडिया घरानों पर भी लागू होती है, जो एक खबर से दूसरी खबर पर चले जाते हैं और पिछली खबर का क्या हुआ उस पर वापस नहीं जाते हैं और भूल जाते हैं कि कितनी शिद्दत के साथ वह इस खबर पर जुटे हुए थे। हमने हाल के दिनों में सुशांत सिंह राजपूत की 'हत्या' या शशि थरूर की पत्नी की 'हत्या' के बारे में कितनी खबरें देखी हैं? कोई नहीं। मीडिया आर्यन खान और फिर कंगना रनौत तक जा पहुंचा है, और कल को इनकी जगह कुछ और होगा। वे इसे रणनीतिक रूप से जानबूझकर कर रहे हैं, और इसी में उनके दर्शकों (यानी हमारी) रुचि है, जिसे वे सामने रख रहे हैं।
उन देशों में जहां बुनियादी बातों को स्पष्ट कर दिया गया है वहां ऐसी कोई समस्या नहीं है और हम मीडिया की बेतुकी सामग्री पर खुलकर हंस सकते हैं। ऐसे देश जहां जीवनकाल अधिक है, शिशु मृत्यु दर नीचे है, रोजगार अधिक है, मजदूरी अच्छी मिलती है, शिक्षा का स्तर अच्छा है, अपराध कम होते हैं और उच्च लैंगिक समानता के साथ मजबूत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एक कार्यशील न्याय प्रणाली हैस वहां मीडिया द्वारा ऐसी बकवास चलाना ठीक माना जा सकता है। वैसे भी लोगों का जीवन, और विशेष रूप से गरीब और कमजोर तबकों का जीवन, समाचार मीडिया द्वारा दिखाने के लिए चुनी गई बातों से प्रभावित नहीं होता है।
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भारत में लाइफ एक्सपेंटेंसी यानी जीवनकाल के मामले में हम 136वें पर हैं (यानी नेपाल और इराक से भी पीछे), हमारे यहां शिशु मृत्यु दर मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यमन और सूडान से बदतर है, बेरोजगारी के मोर्चे पर हमारी स्थिति 2018 से आजादी के बाद के सबसे खराब दौर में है। 2021 में काम करने वाले की संख्या उन लोगों से कम से कम 5 करोड़ कम है जो 2013 में काम कर रहे थे। हमारे कार्यबल में और अतिरिक्त 13 करोड़ की कमी आई है। यह वह लोग हैं जो इन वर्षों में काम करने योग्य उम्र में पहुंचे हैं।
हर अर्थूपूर्ण पैमाने पर भारतीयों का जीवन दूसरे लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले बदतर है। लेकिन ये सब हमारे मीडिया में कहीं नजर नहीं आता। यह ऐसा विषय ही नहीं हैं जो मीडिया को रूचिकर लगता हो। सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों है? मेरी राय में हम सिर्फ मीडिया को इसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते। उनके मकसद की बात करना बेमानी है। अपनी मर्जी से खबरों चुनने की उन्हें आजादी है। हमें भी यह आजादी है कि हम उन्हें बता सकें कि आखिर हम क्या खबरें देखना चाहते हैं। अगर हम सब को ऐसा लगता है कि मीडिया जो कुछ दिखा रहा है वह सब बकवास है और हमारा समय खराब किया जा रहा है, तो हम उसे नहीं देखेंगे।
लेकिन भारत में ऐसा हो नहीं रहा है। यह थोड़ा अटपटा और महत्वहीन और हास्यास्पद भी है, (जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम पर एक अभिनेत्री के विचारों के बारे में इस सप्ताह की खबर है) और वही महत्वपूर्ण है। और इस जैसी तुच्छ और अर्थहीन और हास्यास्पद खबरें इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि अन्य समाचारों की कमी है।
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कई मंत्रियों ने कहा है कि पिछले साल से 60 फीसदी आबादी (कुल 80 करोड़ लोगों) को जो छह किलो मुफ्त अनाज और दाल दी जा रही थी, उसे नवंबर के अंत तक बंद कर दिया जाएगा। लेकिन सरकार के सर्वेक्षण से पता चलता है कि कई राज्यों में बच्चों में कुपोषण और स्टंटिंग और वेस्टिंग में वृद्धि हुई है। कुछ राज्य इस मामले में 15 साल पीछे हो गए हैं। लेकिन यह हमारे लिए उतनी चिंता की बात नहीं है और उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कल टीवी पर दिखाई गई थी या फिर आज दिखाई जाएगी।
यह मेरे लिए आश्चर्य की बात है, हालांकि हमें बताया गया कि हम राष्ट्रवाद के दौर से गुजर रहे हैं, इस बात को लेकर ज्यादा गुस्सा नहीं था कि हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से पीछे पहुंच गई है। उतनी ही आश्चर्य की बात यह थी कि चीन अरुणाचल प्रदेश में, उस जगह जिसे वे दक्षिणी तिब्बत कहते हैं, गांवों का निर्माण कर वहां आबादी बसा रहा है, लेकिन यह खबरें कंगना रनौत की 30 सेकेंड की क्लिप से अधिक महत्वपूरण नहीं थीं।
इन हालात में किसी देश की नियति क्या होगी? ऐसी जगह के बारे में आशावादी होना मुश्किल है। और फिर पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं से बढ़ी निराशा से पता चलता है कि हम कहां पहुंच चुके हैं और कहां जा रहे हैं, और इसे किस हद तक सही ठहराया जा सकता है।
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