चुनावी जीत किसी भी राजनीतिक दल के कार्यों की स्वीकृति भर होती है, उस पर मुहर नहीं लगाती न ही उसे मान्य करती है। स्वीकृति देना भी एक तरह से आशीर्वाद देना है और उसका असलियत से कुछ लेनादेना नहीं होता। जबकि मान्यता पूरी तरह तथ्यों पर आधारित होती है।
और अब जबकि चुनावी नतीजे आ चुके हैं, तो कोई भी दावा कर सकता है कि वोटर ने किसी पार्टी की कल्याणकारी योजनाओं या शासन के तौर तरीकों या सुविधाएं देने की उसकी क्षमता के कारण आकर्षित हुआ था। उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों पर बीजेपी की शानदार सफलता को लेकर यही सब हो रहा है। और जब-जब बीजेपी को जीत मिलेगी, ऐसा ही होगा, इससे पहले भी कई बार हुआ है और आगे भी होता रहेगा।
इसका एक कारण यह है कि बीजेपी को धर्मनिरपेक्ष मान्यता की जरूरत है क्योंकि वह एक ऐसे देश में और एक ऐसे संविधान के तहत काम करती है जो खुले तौर पर सांप्रदायिकता को बर्दाश्त नहीं करता है। यही कारण है कि इसके समर्थक बीजेपी की कामयाबी को सही ठहराने के लिए ऐसे कारण सामने रखते हैं या टटोलते हैं जो गैर-सांप्रदायिक हों।
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जो लोग पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत देखना चाहते थे और ऐसा हुआ भी, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई बहाना या कारण नहीं तलाशा कि तृणमूल की जीत सरकार की कल्याणकारी योजनाओं, मसीहाई छवि वाले नेतृत्व या शासन चलाने के कौशल के चलते हुई है। उन्हें तो बस इसी बात से तसल्ली मिल गई कि तृणमूल ने एक मोर्चे पर उस विभाजनकारी विचारधारा को पटखनी दे दी जो देश की चीरफाड़ करने पर तुली है। सिर्फ बीजेपी और उसके समर्थक ही ही हैं जो चुनावी जीत के बारीकी से कारण तलाश रहे हैं।
तो फिर आखिर 10 मार्च को बीजेपी की जीत का आधार क्या था?
सच हमारे सामने ही है। बीजेपी ने जो कुछ स्वंय किया और या जो कुछ वोटरों से कहा, इसके नेताओं ने किस तरह का रवैया अपनाया और किस तरह के बयान दिए, वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने तो जिस चीज के लिए और जिस नाम पर वोट मांगे वहीं प्रासंगिक है, बाकी सब तो पंडिताई है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा था, “मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह चुनाव निश्चित रूप से 80 बनाम 20 का होगा, 80 फीसदी एक तरफ होंगे और 20 फीसदी एक तरफ होंगे...।” वोटों के लिए भारतीयों को धर्म के आधार पर बांटना बीजेपी के लिए एक असलियत है और इसी असलियत के आधार पर वह चुनावों में आगे बढ़ी। अगर उसे लगता कि वोट सिर्फ काम और सेवा के आधार पर मिल सकते हैं, तो फिर वह इस किस्म की चीजों में क्यों उलझती? फिर, यह एक शब्दाडम्बर वाला सवाल है और अगर कोई इसका जवाब नहीं जानता तो आश्चर्य ही किया जा सकता है।
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इसी महीने 2018 के बाद से हरियाणा देश का सातवां ऐसा राज्य बन गया जिसने लव जिहाद के खिलाफ कानून तैयार किया है। 4 फरवरी, 2020 को लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा कि भारत में लव जिहाद का कोई भी मामला सामने नहीं आया है, और इस तरह के किसी अपराधा का अस्तित्व ही नहीं है। तो फिर उत्तर प्रदेश समेत सभी बीजेपी शासित राज्य क्यों इस वेताल के पीछे पड़े हैं? सवाल सिर्फ वहीं पूछ रहे हैं जो इस बात से अनजान होने का दावा करते हैं कि बीजेपी क्या चाहती है और क्या करती है, और वह है देश के अल्पसंख्यकों और खासतौर से मुसलमानों का उत्पीड़न।
यह हास्यास्पद लगता है कि बीजेपी जो कुछ खुद अपने वोटर से कह रही है उस पर ध्यान देने के बजाए विश्लेषक और बीजेपी के समर्थक इस पर मंथन कर रहे हैं कि आखिर बीजेपी को मिले वोटों का आधार और कारण क्या है।
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बीते 4 चुनावों (2014, 2017, 2019 और 2022 में) 40 फीसदी से अधिक वोट मिले हैं। और हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि उत्तर प्रदेश सरकार को उसके काम के आधार पर वोट मिला है, न कि मंदिर, बीफ, लव जिहाद और इन सबसे पैदा हुई हिंसा के कारण।
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इस बात को समझना होगा कि अगर सांप्रदायिक शरारत महत्वपूर्ण नहीं होती, या उसकी कामयाबी में इसका असर सिर्फ आंशिक तौर पर ही होता, तो फिर इसके नेताओँ का फोकस इन सब पर क्यों रहता। अगर आपके चुनावी गीतों का आधार विकास और सेवा है तो फिर क्यों अल्पसंख्यक वोटरों को नाराज किया गया। जवाब है कि बीजेपी के चुनावी गीतों का आधार विकास और सेवा तो है ही नहीं। सिर्फ सांप्रदायिकता और विभाजन और नफरत और काफी हद तक हिंसा ही है।
यह भी समझ लिया जाए कि यह कामयाब रणनीति है और हमेशा से रही है। अपनी स्थापना (जनसंघ के रूप में) से लेकर 1990 तक बीजेपी को किसी राज्य में बहुमत नहीं मिला। लेकिन उसके बाद इसके हिस्से में राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेष और फिर आखिर में उत्तर प्रदेश में भी उसके मुख्यमंत्री बन गए। चार दशक तक राष्ट्रीय स्तर पर उसका वोट शेयर इकाई में ही रहा। लेकिन फिर अचानक यह दोगुना होकर 18 फीसदी और फिर उसका भी दोगुना हो गया।
आखिर क्या हुआ कि एक पार्टी इतने कम समय में राष्ट्रीय स्तर पर इतनी लोकप्रिय हो गई? निस्संदेह यह अयोध्या आंदोलन था जिससे हिंदू एकजुट हुआ और मस्जिद गिराए जाने के बाद देश भर में हिंसा हुई। उस समय तो कोई सरकार नहीं थी जिसके काम के आधार पर या सेवा के आधार पर या शासन की क्षमता के आधार पर वोट मांगे जाते। और आज भी ऐसा ही है।
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सवाल है कि क्या भविष्य में भी यही सब वोटर को आकर्षित करता रहेगा? यह समझना बहुत रोचक होगा, क्योंकि केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को तो पूरी तरह कबाड़ा कर दिया है। ऐसा ही चलता रहेगा या बदलाव होगा, आने वाला वक्त बताएगा। लेकिन कम से कम एक राहत की बात होगी अगर हमें बताया जाए कि बीजेपी की कामयाबी का कारण वह नहीं है जिसके आधार पर इसके नेताओं ने बार-बार वोट मांगे हैं बल्कि कुछ रहस्यमई कारण है जो चुनावी नतीजे आने के बाद अब सामने आ रहे हैं।
(लेखक एम्नेस्टी इंटरनेशन इंडिया के अध्यक्ष हैं)
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