हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने अपनी बेबाक और आत्महंता आत्मकथा 'अपनी खबर' में लिखा है- "दारिद्रय में कष्ट होता है यह जानने लायक तो मैं हो गया था पर दारिद्रय में अपमान भी कुछ है, मुझे मुतलक पता नहीं था।" जी हाँ, आज बिहार की लगभग दस फीसदी प्रवासी आबादी दारिद्रय के साथ-साथ अपमान झेलने को अभिशप्त है। अर्थात लगभग एक करोड़ बिहारी येन-केन-प्रकारेण बिहार-दुर्दशा का दंश झेल रहे हैं।
क्या यह सच्चाई नहीं है कि घोषित/अघोषित रूप से निर्धन व्यक्ति के लिए देश-परदेस में 'बिहारी' शब्द उसकी पहचान के बजाए उपहास का उपकरण बना दिया गया है! जिस बिहार का गौरवपूर्ण जीवंत अतीत रहा हो; विश्व का प्रथम गणतंत्र वैशाली, प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय, महात्मा बुद्ध एवं महावीर की तपोभूमि, सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त, कूटनीति मर्मज्ञ चाणक्य, महान खगोलशास्त्री आर्यभट्ट, गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे महापुरुषों के पावन प्रदेश के वासियों की निर्धनता, उपेक्षा, दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखा है:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
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आज सम्पूर्ण विश्व का मानव समुदाय कोरोना वायरस नामक वैश्विक संक्रामक महामारी की चपेट में आ चुका है। अपितु यह कहा जाए कि मानव अपने अस्तित्व के रक्षार्थ सर के बल उल्टा खड़ा प्रतीत हो रहा है। ऐसे में बिहार के जुझारू मेहनतकश प्रवासियों पर मानो बिजली गिर गई है। अपनी जीवटता एवं कार्यकुशलता की बुनियाद पर सम्पूर्ण विश्व में अपनी कर्तव्यनिष्ठा का शंखनाद कर चुके लाखों प्रवासी बिहारी आज भूखे पेट अपने दारिद्रय एवं भाग्य का रोना रोने को मजबूर है।
निश्चित रूप से विगत वर्षों में बिहार सरकार अपने लोगों के लिए रोजगार का प्रचुर अवसर सृजित करने में असफल रही है। ज्ञातव्य हो, इस बीच लाखों करोड़ रुपये का सृजन घोटाला अवश्य हुआ है! ऐसे में अपने गृह प्रदेश में सम्मानजनक रोजगार से वंचित जुझारू, मेहनती, स्वाभिमानी बिहारी अपने श्रम को ही अपनी पूंजी समझकर रोजगार की तलाश में आर्थिक रूप से सम्पन्न प्रदेशों की ओर प्रवास हेतु बाध्य हुए, कुछ प्रेरित भी हुए। विदित हो कि प्रवास एवं पलायन का अर्थ होता है- 'नई संभावनाओं की खोज।' अपनी बेहतरी के उदेश्य से अपनी क्षमता का भरपूर दोहन करना एवं अपने स्वाभिमान की रक्षा करना भी प्रवास का प्रतिमान है।
विदित हो कि प्रवासी सम्बन्धी पहला एग्रीमेंट तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत द्वारा आज से 180 वर्ष पूर्व 1840 ईसवी में पहली बार सम्पन्न हुआ था। वही एग्रीमेंट आज अपभ्रंश रूप में 'गिरमिटिया कानून' के नाम से जाना जाता है। दिवंगत लेखक गिरिराज किशोर ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को केन्द्र बिन्दु में रखकर 'पहला गिरमिटिया' नामक कालजयी उपन्यास लिखा है। जिसमें उन्होंने मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा बनने की प्रक्रिया एवं प्रवास से हुई प्राप्तियों का वर्णन किया है। यहां तक कि भारत सरकार द्वारा प्रत्येक वर्ष 9 जनवरी को 'प्रवासी भारतीय दिवस' मनाया जाता है, इस महती आयोजन की बुनियाद है कि गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में अपनी विजय की पताका लहराकर 9 जनवरी 1915 को अंतिम रूप से अपनी मातृभूमि भारतवर्ष के सेवार्थ लौटकर आए थे।
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प्रायः प्रवास द्विस्तरीय होता है: अंतरराज्यीय एवं अंतरराष्ट्रीय। बिहार जैसा प्रदेश बुनियादी रूप से अंतरराज्यीय प्रवास/पलायन का सामना करता रहा है। संभव है कि इसका आधार बिहार की भौगोलिक स्थिति भी हो जो कि मुख्यतया एक कृषि कार्य आधारित प्रदेश है। लेकिन बिहार से निरन्तर बढ़ रहे प्रवास का निर्णायक कारण रहा है विगत डेढ़ दशक से सत्ता के सूत्रधार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अदूरदर्शिता एवं उनका कुर्सी प्रेम!
बहरहाल यह कोरोना-काल है, संकट का समय है। बिहार सरकार का अपने नागरिकों के प्रति यह परम कर्तव्य है कि संकट की इस घड़ी में, अपने नवाचार एवं रचनात्मक प्रयासों के जरिए देश के विभिन्न प्रदेश की सरकारों के साथ मिलकर बेहतर समन्वय एवं समायोजन के माध्यम से आपात स्थिति में फंसकर नारकीय जीवन-यापन जी रहे लाखों बिहारियों को उनकी दुर्दशा से छुटकारा दिलाए। क्या विडम्बना है कि जब हम 22 मार्च को अपने गौरवशाली प्रदेश की स्थापना दिवस आयोजित कर रहे थे उस समय हमारे बिहारी बन्धु-बांधव देश भर के रेलवे स्टेशन पर सकुशल अपने गृह प्रदेश लौट आने को प्रतिबद्ध थे। उन्हें आभास हो गया था कि जब आपदा आ ही चुकी है तो क्यों न इसका सामना अपने परिजनों - स्वजनों के साथ मिल-बांटकर किया जाए!
कहते हैं कि प्रतिकूल परिस्थिति में अपनों का साथ बड़ा सुकून प्रदान करता है। यक्ष प्रश्न है- क्या हमारी सरकार ने बिहार के लाखों महिला-पुरुषों को उन्हें उनके प्रवास के अधिकार से वंचित नहीं किया है! दोषी कौन, किसका दोष ? महाभारत में राजा भरत ( मान्यता है, आपके नाम पर भारत का नाम पड़ा!) के पुत्र राजा शान्तनु कहते हैं- 'मैं राजा हूँ। एक पिता भी हूँ। एक पिता होने के नाते संभव है दूसरे व्यक्ति की संतान के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा। लेकिन ठीक इसी समय, एक राजा होने के नाते अपनी एक भी प्रजा के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा।' क्या बिहार शासन के मुखिया ऐसा नहीं कर सकते! उनका राज धर्म क्या कहता है?
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राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित आनंद विहार रेलवे स्टेशन, आर्थिक राजधानी मुंबई का संभ्रांत बांद्रा स्टेशन एवं डायमंड नगरी सूरत में हज़ारों प्रवासियों का अपने गंतव्य गृह प्रदेश की ओर लौटने का भगीरथ प्रयास आगामी दशकों तक क्या हमें हमारी असफलता की अनुभूति नहीं कराएंगे ! क्या आनेवाली पीढ़ियां संयुक्त राज्य अमेरिका के मुख्य समाचार-पत्र वाशिंगटन पोस्ट के आवरण पृष्ठ के लगभग एक-तिहाई हिस्से पर छपी उस तस्वीर को भूल पाएंगी जिसमें दिखलाया गया है कि कैसे विपन्न स्थिति में हज़ारों लोगों की भीड़ निर्बल, असहाय खड़ी है। क्या विपदा की इस घड़ी में शासन का डंडा ही गाँधी के अंतिम आदमी की नियति है! क्या अब 'विधि का शासन' का स्थान अब 'हुकूमत का शासन' ने ले लिया है!
वर्तमान कोरोना-काल संकट के साथ-साथ आत्म-मंथन का भी समय है। ऐसे में बिहार जैसे ग्रामीण, कृषि प्रधान प्रदेश को 'इन-सीटू' (अंतः स्थल) नामक पारिस्थितिकी तंत्र की अवधारणा के माध्यम से लोगों को उनके पर्यावास के इर्द-गिर्द रोजगार मुहैया कराने की कार्यनीति पर अविलम्ब संवाद प्रारम्भ कर देना चाहिए। एकै साधे सब सधै।
तत्कालीन विद्वान वैज्ञानिक राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम द्वारा प्रतिपादित (PURA- Providing Urban Amenities in Rural Areas) योजना पर भी विमर्श किया जा सकता है। निश्चित रुप से काम कठिन है। लेकिन बिहारी जनमानस असाधारण एवं कठिन कार्य निष्पादन में अत्यंय ही प्रवीण एवं सिद्धहस्त है। पर्वत पुरुष दशरथ मांझी जी कर्तव्यपरायणता के इतिहास में मील के पत्थर हैं: -'जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं।' जो बिहार अपने मानव संसाधन की बुनियाद पर सामुदायिक रेडियो ( वैशाली निवासी राघव महतो नामक युवक ने जुगाड़ तकनीक से न्यूनतम साधन पर एफएम रेडियो का प्रसारण शुरू किया था) से लेकर सिलिकॉन वैली तक अपना साम्राज्य स्थापित कर सकता है; निश्चित रूप से वही बिहार अपने लोगों के साथ-साथ समस्त भारतवर्ष के लिए बेहतर रोजगार सृजक होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम' के दर्शन को साकार कर सकता है। इस प्रक्रिया में गांधीवादी दर्शन को केंद्र बिंदु में रखकर नीति बनाई जा सके और उसका मूल मंत्र हो - 'प्रत्येक हाथ को काम।' अंततः याद रहे कि भारत लगभग छः लाख गाँव का देश है। हमारे राष्ट्र की आत्मा गांवों में बसती है।
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समय आ चुका है जब न सिर्फ प्रवासी अपितु बिहार के लगभग 12 करोड़ आबादी को विश्वास में लेकर नवनिर्माण की प्रक्रिया को अविलम्ब प्रारम्भ किया जाना चाहिए। और इस भगीरथ कार्य में बिहार के युवा शक्ति की भूमिका प्रबलतम होगी। हमारे संविधान सभा के विद्वान सदस्यों ( ज्ञात हो कि 36 सदस्य अविभाजित बिहार से रहे हैं) ने एक ऐसे अद्भुत, समावेशी, समदर्शी संविधान का निर्माण किया है जिसकी बुनियाद पर समस्त मानव का कल्याण संभव है। भाग 4 में दर्ज राज्य नीति के निदेशक तत्व ( अनु. 36 -51 ) अंतिम आदमी के हितों का घोषणापत्र है। दूसरे शब्दों में संविधान का भाग 4, मूल अधिकारों ( भाग 3; अनुच्छेद 12-35) से सशक्त एक सकारात्मक अधिकार है। भारत सरकार को चाहिए कि प्राथमिकता के आधार पर बिहार जैसे कम आर्थिक संसाधन वाले प्रदेश को बेहतर आधारभूत संरचना सुनिश्चित करे।
वस्तुतः राष्ट्र के संसाधन पर सम्पूर्ण राष्ट्र का अधिकार होता है लेकिन दीवार पर लिखी इबारत कह रही है कि पहला हक अभावग्रस्त प्रदेशों को देय होना चाहिए। इस दिशा में एन के सिंह की अध्यक्षता में कार्यरत पन्द्रहवें वित्त आयोग को विशेष रूप से संज्ञान लेना चाहिए।
ऐसे समय जब कोरोना वायरस महामारी सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ बिहारवासियों के धैर्य एवं विश्वास की परीक्षा ले रही हो तो कठिन समय में चौरानवे हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 40 जिले, 101 अनुमंडल, 534 प्रखंड, लगभग 9 हज़ार ग्राम-पंचायतों में विस्तृत 12 करोड़ बिहारी जनमानस को नियति के साथ साक्षात्कार करने हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध एवं कृतसंकल्प रखना है। हमें अपने वैभवशाली, गौरवपूर्ण अतीत को साक्षी मानकर भविष्य निर्माण की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में हमारे अनुभव ही हमारी मजबूती का आधार होता है।
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रूस के प्रसिद्ध चित्रकार सेरियन ने लिखा है कि - 'कैसा अद्भुत देश है भारत; जिसने अपने सभ्यता के प्रभात में बुद्ध को जन्म दिया और अपने संघर्ष के दिनों में गाँधी को।' इस विश्वास के साथ कि प्रत्येक पीढ़ी एक नया राष्ट्र होता है। प्रत्येक पीढ़ी के अपने राष्ट्रनायक होते हैं। समस्त बिहारवासी को इस आपदा को अवसर में बदलने की शपथ लेकर आगे बढ़ना चाहिए। चरैवेति-चरैवेति।
विदित हो, ' समय बिना किनारों की नदी है।' इसलिए हवा-पानी की भांति समय के दबाव को झेलकर हम स्वयं को अधिकाधिक सशक्त, सक्षम, दक्ष बनाकर अपनी लकीर को आगे बढ़ाते रहने को तैयार रहें, तत्पर रहें। महाकवि गोपाल दास 'नीरज' की पंक्ति:
एक दिन भी जी
तू ताज बनकर जी
अटल विश्वास बनकर जी
मत पुजारी बन
स्वयं भगवान बनकर जी
(ये लेखक के विचार हैं। लेखक अमरीश रंजन पाणडेय, इंडियन यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और मीडिया प्रभारी हैं तथा रोशन शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में शोधार्थी हैं। नवजीवन का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है))
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