इस समय विश्व स्तर पर विकास के विमर्श में सबसे अधिक चर्चा सतत् विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवेलेपमेंट गोल्स या एसडीजी) की है। विकास के प्रमुख क्षेत्रों के लिए यह लक्ष्य साल 2015 से 2030 की अवधि तक के लगभग 15 वर्षों के लिए तय किए गए हैं। इनमें अनेक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखे गए हैं, जैसे- भूख की समस्या को लगभग समाप्त कराना, गरीबी को बहुत तेजी से कम करना, अधिकांश बुनियादी सुविधाएं सभी लोगों तक पहुंचाना आदि।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह की प्राथमिकताओं को केंद्र में रखना बहुत जरूरी है। अगर ये लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं या हम इनके कुछ करीब भी पहुंच जाते हैं तो साल 2015 से 2030 तक का समय विश्व में विकास की सबसे महान उपलब्धियों के रूप में प्रतिष्ठित होगा।
लेकिन क्या ये उपलब्धियां वास्तव में हासिल हो पाएंगी? जिस दौर को विकास की सबसे बड़ी उपलब्धियों का कार्यक्रम बताया गया है, उस दौर के आरंभिक वर्षों में (2015-2018) में ऐसी कई प्रवृत्तियां रही हैं कि यह अत्यधिक विषमताओं का दौर है और संभवतः इतिहास में सबसे अधिक विषमताएं इस समय मौजूद हैं। क्या इतनी विषमताओं के रहते सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकेंगी?
यह दौर जलवायु बदलाव और अनेक अन्य गंभीर पर्यावरण संकटों की दृष्टि से भी बहुत कठिन और संवेदनशील दौर माना जा रहा है। इस कारण समुद्रों का जल-स्तर बढ़ने, अनेक प्राकृतिक आपदाओं के अधिक विकट होने, कृषि और अन्य आजीविकाओं पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना व्यापक स्तर पर व्यक्त की गई है। क्या इतने गंभीर पर्यावरण संकटों के दौर में इतिहास की सबसे बड़ी सतत् विकास की उपलब्धियां प्राप्त हो सकेंगी?
यही दौर खतरनाक हथियारों में इतिहास की सबसे अधिक वृद्धि का दौर है। महाविनाशक हथियारों के वास्तविक उपयोग की संभावना भी विविध कारणों से बढ़ रही है। क्या बहुत खतरनाक हथियारों की तेज वृद्धि के दौर में ही विकास के सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं?
यह सच है कि विषमता, जलवायु परिवर्तन और हिंसा को कम करने के लक्ष्य भी सतत् विकास लक्ष्यों में शामिल हैं, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि ऐसी जो सबसे पेचीदा और खतरनाक समस्याएं अनेक वर्षों से बढ़ती रही हैं, वे अचानक किस उपाय से नियंत्रित होंगी या कम होंगी। ऐसा कोई भी नया उपाय सामने नहीं आया है जो चिंताजनक प्रवृत्तियों में अचानक बड़ी कमी ला सके।
अतः केवल महत्त्वपूर्ण लक्ष्य घोषित करने के स्थान पर यह जरूरी है कि इस बारे में वास्तविक हकीकतों से अधिक जुड़ा हुआ विमर्श हो कि सभी जीवन-रूपों की रक्षा और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लक्ष्यों की राह में क्या बाधाएं हैं? जो समस्याएं सबसे चिंताजनक हैं उनका नियंत्रण अभी तक क्यों नहीं हो सका है और अब इस बारे में क्या किया जाना जरूरी है?
अगर इस तरह का निष्पक्ष और स्वतंत्र विमर्श होगा तो यह अधिक स्पष्ट हो सकेगा कि किन बड़े स्वार्थों और किन बाधाओं के कारण बड़ी समस्याएं हल नहीं हो पा रही हैं? किस तरह की संरचनात्मक बाधाएं हैं, विश्व स्तर की समस्याओं को हल करने के लिए किस तरह की गवर्नेंस और निर्णय लेने की प्रक्रियाएं जरूरी हैं, वे भी सामने आ सकेंगी। विश्व में यह समझ बनेगी कि अब तक की विफलताओं के लिए कौन से कारण जिम्मेदार हैं और इन्हें दूर करने के लिए आगे क्या करना जरूरी है।
साल 2015 में जो सतत् विकास लक्ष्य का कार्यक्रम निर्धारित किया गया है, उसमें अभी तक की विफलताओं का ऐसा निष्पक्ष या स्वतंत्र और समग्र विश्लेषण नहीं किया गया, जिससे कि इन लक्ष्यों की उपलब्धि में उपस्थित बाधाओं और रुकाबटों की सही पहचान नहीं हो सकी है। विभिन्न लक्ष्यों की सूची जरूर निर्धारित हो गई है और अब अलगाव में इसका विश्लेषण होता रहता है कि किस देश में कौन सा लक्ष्य कितना आगे बढ़ पाया है या पीछे रह गया है।
इस बारे में अलगाव में ही समाधान सुझाए जाते हैं जो बहुत असरदार सिद्ध नहीं होते हैं। इन अलगाव प्रक्रियाओं में यह संभावना भी बढ़ जाती है कि विभिन्न देश, विशेष तरह की उपलब्धि के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करें। दूसरी ओर इन प्रक्रियाओं में एक समग्र दृष्टिकोण सामने नहीं आ पाता है कि बड़ी संरचनात्मक और विश्व गवर्नेंस की कौन सी समस्याएं हैं जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में वांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है।
जरूरत इस बात की है कि समग्र सोच बना कर उन वास्तविक बाधाओं की पहचान की जाए जिनके कारण विश्व में बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हो रहा है और फिर इन्हें दूर करने के लिए एक व्यापक भागीदारी बनाई जाए। समस्याओं के वास्तविक कारणों और समाधान की राह में वास्तविक बड़ी रुकावटों की ओर से आंख मूंद लेने से काम नहीं चलेगा।
Published: 21 Jan 2019, 2:31 PM IST
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Published: 21 Jan 2019, 2:31 PM IST