वोडा-आइडिया लिमिटेड मौजूदा झटके से उबर पाती है या फिर वह भारतीय दूरसंचार बाजार से निकल जाने वाली अगली कंपनी बनती है, यह देखने की बात है। कंपनी के पास पैसे नहीं कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यूज (एजीआर) के 50 हजार करोड़ से अधिक के बकाये का भुगतान कर सके। कंपनी इस पैसे को तभी दे सकती है, जब इसके प्रमोटर वोडाफोन समूह और आदित्य बिड़ला समूह कंपनी में और पैसे डालें, लेकिन इन दोनों में से कोई भी ऐसा करने के मूड में नहीं दिखता।
संभव है वोडा-आइडिया इस झटके से उबरने में कामयाब हो जाएं, लेकिन अगर इसने शटर गिराने का फैसला किया तो उसका नाम भी उन निवेशकों की लंबी फेहरिस्त में शामिल हो जाएगा, जिन्होंने भारतीय दूरसंचार बाजार में अरबों डालने के बाद भारी घाटा झेलने के कारण बोरिया-बिस्तर समेटना बेहतर समझा। भारतीय बाजार में धूल फांकने वाले वैश्विक निवेशकों में टेलेनॉर, सिस्टेमा, डोकोमो और मैक्सिस जैसे नाम शामिल हैं।
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भारतीय प्रमोटरों का भी यही हाल है। टाटा समूह, एवी बिड़ला समूह, अनिल अंबानी जैसे बड़े नामों के अलावा तमाम छोटे खिलाड़ियों की किस्मत भी ऐसी ही रही है। बड़ी सामान्य स्थिति से दूरसंचार क्षेत्र में एक भीमकाय साम्राज्य स्थापित करने वाले सुनील भारती मित्तल भी घरेलू दूरसंचार ऑपरेशन में चोट खाने लगे हैं। शायद मुकेश अंबानी की रिलायंस जियो को ही विजेता कहा जा सकता है लेकिन इसने भी आज के मुकाम तक पहुंचने के लिए खुले हाथों से पैसे डाले और इस चक्कर में उस पर ऋण का बोझ बढ़ता गया।
सवाल यह उठता है कि इतनी संभावनाओं वाले क्षेत्र की यह दुर्दशा आखिर कैसे हो गई? इसके लिए दिशाहीन नीति-निर्धारकों, न्यायपरायण सुप्रीम कोर्ट, बार-बार नियमों में बदलाव करने वाले नियामकों और जरूरत से ज्यादा लालची बन गए उद्योगपतियों को दोषी ठहराया जा सकता है।
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सबसे पहले सरकार की भूमिका की बात। कहानी 1994 में शुरू होती है, जब सरकार ने भारी-भरकम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम फीस वसूलकर निजी कंपनियों को सेलुलर लाइसेंस देने का फैसला किया। यह सही है कि इस फीस से कारोबारी हिचकें नहीं, जबकि उनमें से कई की तो शुरुआती पैसे जमा करने की भी स्थिति नहीं थी, लेकिन यह एक अलग ही कहानी है।
इस तरह अगले पांच साल तक मोबाइल फोन ऐसा उपकरण था जिसका उपभोग केवल धनी ही कर सकते थे- कॉल करने पर प्रति मिनट 16 रुपये और कॉल रिसीव करने पर भी इतनी ही राशि खर्च करनी पड़ती थी। 1999 में रेवेन्यू शेयरिंग मॉडल निकाला गया ताकि कंपनियों और सरकार, दोनों को सुविधा हो। इस तरह एजीआर मॉडल का जन्म हुआ।
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इसके बाद दूरसंचार क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का नीतिगत फैसला आया, जिसका उद्देश्य दरों को नीचे लाकर इन सेवाओं को और सुलभ बनाना था जिससे देश में दूरसंचार सेवाओं का विस्तार हो सके। कुछ समय तक तो सब कुछ वैसे ही चलता रहा जैसा सोचा गया था। इतना जरूर है कि कुछ पुराने खिलाड़ी हटते गए तो नए आते रहे।
उसी दौरान सरकार का कंपनियों के साथ इस बात पर विवाद शुरू हो गया था कि एजीआर में क्या-क्या शामिल हो। कंपनियां चाहती थीं कि इसमें केवल दूरसंचार सेवाओं का राजस्व शामिल हो, जबकि सरकार चाहती थी कि इसमें परिसंपत्तियों की बिक्री से लेकर ट्रेजरी ऑपरेशन जैसे तमाम मद शामिल किए जाएं। विवाद सालों चलता रहा। कभी पलड़ा इधर झुकता, तो कभी उधर। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और फैसला सरकार के पक्ष में आया।
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चूंकि दूरसंचार क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा था, इससे जुड़े सभी पक्ष थोड़े लालची हो गए थे। शुरुआती समय में ही हचिसन ने भारत में अपने ऑपरेशन को वोडाफोन को बेच दिया था। दोनों कंपनियों में इस संबंध में करार तो हो गया लेकिन इसका कोई प्रावधान नहीं किया गया कि कैपिटल गेन टैक्स कौन देगा। कर विभाग ने सबसे पहले हचिसन से कैपिटल गेन टैक्स की राशि वसूलनी चाही, लेकिन विफल रहने के बाद उसने वोडाफोन से पैसे मांगे। सुप्रीम कोर्ट में सालों तक मामला चला और अंततः फैसला वोडाफोन के पक्ष में गया। तब प्रणव मुखर्जी यूपीए सरकार के वित्त मंत्री थे और उन्होंने कर कानून में बदलाव करते हुए इसे पहले की तारीख से प्रभावी किया।
फिर यूपीए-2 के समय डीएमके के ए.राजा दूरसंचार मंत्री थे और उन्होंने और कंपनियों को लाइसेंस देने का फैसला किया और इसका एक असर यह होता कि सरकार के पास और पैसे आते। इस कारण उन्होंने प्रक्रिया की चिंता किए बिना धड़ाधड़ लाइसेंस बांटे। हर सर्किल में 16 खिलाड़ी हो गए। चूंकि भारतीय दूरसंचार क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा था, लोगों ने ताबड़तोड़ नए लाइसेंस ले लिए और कई ने इसके एक हिस्से को विदेशी कंपनियों को बेच दिए। इसी रूट से टेलेनॉर, सिस्तेमा और डोकोमो जैसी कंपनियां आईं।
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इसी बीच अतिमहत्वाकांक्षी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) विनोद राय ने यह बताकर नाम कमाने का फैसला किया कि भेदभावपूर्ण तरीके से लाइसेंस बांटने के कारण सरकार को कितने रुपये का नुकसान हुआ। उन्होंने गणना करके एक आसमानी आंकड़ा बता दिया और फिर सुप्रीम कोर्ट ने सभी लाइसेंस रद्द कर दिए। अचानक देसी-विदेशी कंपनियां हैरान रह गईं कि भारत सरकार के दूरसंचार मंत्रालय द्वारा जारी लाइसेंस की भी कोई वैधता नहीं है।
इसके बाद अगर वे बाजार में रहने का फैसला करतीं तो उन्हें लाइसेंस खरीदने के लिए और पैसे देने पड़ते। इसके साथ ही वे बैंक भी फंस गए जिन्होंने सरकारी लाइसेंस के आधार पर पैसे दे दिए थे। इस बीच तकनीक भी बेहतर हो रही थी। 2जी की जगह 3जी आने वाला था और 4जी आने में भी ज्यादा देर नहीं थी। इसका मतलब था कि खेल में बने रहने के लिए उन्हें और पैसे डालने होंगे।
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ऐसे समय मुकेश अंबानी फिर सक्रिय होते हें। धीरूभाई अंबानी की मृत्यु के बाद उनके छोटे बेटे अनिल अंबानी रिलायंस टेलीकॉम ऑपरेशन लेकर अलग हो गए थे। अब मुकेश अंबानी ने जोर-शोर के साथ इस क्षेत्र में वापसी का फैसला किया और जियो ने पूरे देश के लिए 4जी नेटवर्क ले लिया और फिर वह लगभग मुफ्त में सेवाएं देने लगे, जिससे बाकी सारे खिलाड़ी घुटने पर आ गए। इसके बाद एक-एक करके सभी खिलाड़ी मैदान से बाहर होते गए। अंततः केवल चार बचे- जियो, एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया।
ऐसे समय में बाजार की चुनौतियों का बेहतर तरीके से सामना करने के लिए वोडाफोन और आइडिया ने हाथ मिला लिया और उनका आकार काफी बड़ा हो गया। लेकिन बड़ा हमेशा बेहतर हो, जरूरी नहीं। यही बात वोडा आइडिया के साथ हुई, क्योंकि अब उनका उधार और नुकसान, दोनों मिलकर काफी अधिक हो गया था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है कि एजीआर में सभी राजस्व शामिल होंगे, न कि सिर्फ दूरसंचार सेवा से आने वाला राजस्व।
ऐसे माहौल में अगर वोडा-आइडिया दुकान बंद करती है तो दूरसंचार बाजार दोबारा से दो-ध्रुवीय हो जाने वाला है। सरकारी कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल को इस दौड़ में शामिल नहीं कर सकते, क्योंकि वे अपनी ही समस्याओं से डूब रही हैं। यह समझना होगा कि दो-तीन खिलाड़ियों वाला बाजार न तो सरकार के लिए अच्छा है और न उपभोक्ताओं के लिए।
(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक हैं)
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