कहते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है, पहले त्रासदी के रूप में और फिर प्रहसन की तरह। भारत के मामले में, सांप्रदायिक हिंसा न सिर्फ स्वयं को दोहराती आई है, वरन् वह अलग-अलग तरह की त्रासदियों के रूप में हमारे सामने आती रही है। सांप्रदायिक हिंसा की सभी घटनाओं में कुछ समानताएं भी होती हैं, लेकिन ये समानताएं अकसर पर्दे के पीछे रहती हैं।
यही बात दिल्ली की हालिया हिंसा के बारे में भी सही है। यह हिंसा क्यों और कैसे भड़की, इसके कई कारण गिनाए जा रहे हैं। यह सचमुच विडंबनापूर्ण है कि जो लोग इस हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं, वे इसके पीड़ितों को ही कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि इस हिंसा की शुरूआत बीजेपी के कपिल मिश्रा के एक बयान से हुई, जिसमें उन्होंने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में सड़कों को खाली करवाने की धमकी दी थी।
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परंतु यह मानना भूल होगी कि केवल कपिल मिश्रा के बयान के कारण हिंसा भड़की। इस हिंसा के बीज पहले ही बो दिए गए थे। हिंदू राष्ट्रवादी शिविर का कहना है कि दंगे इसलिए हुए क्योंकि उत्तर-पूर्वी दिल्ली की जनसांख्यिकीय संरचना बदल गई है और अब वहां मुसलमानों की खासी आबादी है। इसके अलावा शाहीन बाग भी हिंसा भड़कने के पीछे एक कारक था, क्योंकि वह मिनी पाकिस्तान बन गया था। इस शिविर के अनुसार तीन तलाक, अनुच्छेद 370, सीएए, एनपीआर और एनआरसी जैसे मुद्दों पर बीजेपी सरकार की नीतियों से कट्टरपंथी तत्व हड़बड़ा गए हैं और वे हिंसा भड़का रहे हैं।
इस हिंसा के बारे में देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं और सांप्रदायिक हिंसा के अध्येताओं का क्या कहना है, इस संबंध में बात करने के पूर्व हमें यह ध्यान में रखना होगा कि दिल्ली में हुई हिंसा कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी। न केवल इसलिए क्योंकि यह देश की राजधानी में हुआ, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इसमें लगभग 50 लोग मारे गए, जिनमें से एक पुलिसकर्मी और एक गुप्तचर सेवा का कर्मचारी भी शामिल है। हालांकि हिंसा में मरने वालों में से अधिकांश मुसलमान हैं।
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दिल्ली हिंसा केंद्र सरकार की नाक के नीचे हुई। घटनाओं के जो वीडियो और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान सामने आए हैं, उनसे ऐसा लगता है कि पुलिस ने जानबूझकर हिंसा को नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया, बल्कि कई मामलों में पुलिस ने मुसलमानों की दुकानों और मकानों आदि में आगजनी करने में उपद्रवियों की मदद की। गृहमंत्री अमित शाह इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सामने नहीं आए और तीन दिन तक दंगाईयों को मनमानी करने दी गई। फिर अर्द्धसैनिक बलों को तैनात किया गया और फिर धीरे-धीरे हिंसा में कमी आई। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार, जो एक तरह से आरएसएस समर्थित अन्ना हजारे आंदोलन की उपज है, इस दौरान हनुमान चालीसा का पाठ करने और राजघाट में प्रार्थना करने में व्यस्त रही।
सांप्रदायिक हिंसा भारतीय समाज का कोढ़ है। इसकी शुरूआत औपनिवेशिक शासन के दौरान ‘बांटो और राज करो‘ की ब्रिटिश सरकार की नीति के चलते हुई। इसके पीछे एक महत्वपूर्ण कारक था, इतिहास का सांप्रदायिक चश्मे से लेखन। जहां ब्रिटिश प्रशासन और पुलिस काफी हद तक निष्पक्ष थे, वहीं सरकार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन के बीज बो रही थी। एक ओर राष्ट्रीय आंदोलन देश के लोगों को एक कर रहा था और उनके बीच बंधुत्व भाव विकसित कर रहा था तो दूसरी ओर मुस्लिम सांप्रदायवादी (मुस्लिम लीग) और हिंदू सांप्रदायवादी (हिन्दू महासभा और आरएसएस) हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने में ब्रिटिश सरकार की हर संभव मदद कर रहे थे।
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दोनों ही ब्रांडों के सांप्रदायवादी घृणा फैला रहे थे। देश के विभाजन के बाद पुलिस और प्रशासन के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण फर्क आया और वह यह कि वे मुसलमानों के खिलाफ अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो गए। डा असगर अली इंजीनियर, पाल ब्रास और उमर खालिदी द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि दंगों के दौरान और उनके बाद पुलिस का पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण स्पष्ट देखा जा सकता है।
श्रीकृष्ण आयोग की रपट और उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक डा वीएन राय द्वारा किए गए अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। डा वीएन राय इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि प्रशासन और सरकार की मिलीभगत के बगैर कोई भी दंगा 24 घंटे से अधिक समय तक नहीं चल सकता। यह लेखक धुले में 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा की जांच करने वाले नागरिकों के एक दल का सदस्य था और उसने पाया कि पुलिस ने स्वयं आगे बढ़कर मुसलमानों और उनकी संपत्ति के खिलाफ हिंसा में भागीदारी की।
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सामान्यतः यह माना जाता है कि सांप्रदायिक दंगे स्वस्फूर्त होते हैं। हमारे गृहमंत्री ने भी यही कहा है। परंतु अधिकांश मामलों में दंगे पूर्व नियोजित होते हैं और उन्हें इस प्रकार अंजाम दिया जाता है कि ऐसा लगे कि हिंसा की शुरूआत मुसलमानों ने की है। अधिकांश मामलों में यह तो बताया जाता है कि पहला पत्थर किसने फेंका, परंतु कोई यह नहीं बताता कि पहला पत्थर फेंकने वाले को किस तरह ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया। अल्पसंख्यकों के खिलाफ अनेक बहानों से हिंसा की जाती है। गुजरात में गोधरा में ट्रेन आगजनी को बहाना बनाया गया तो कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या को और दिल्ली के मामले में शाहीन बाग को।
दरअसल हमारे देश में दंगे, मुसलमानों और हिंदुओं के बीच की हिंसा नहीं होती, बल्कि केवल मुसलमानों के खिलाफ हिंसा होती है, जिसमें कुछ हिंदू भी मारे जाते हैं। यह हिंसा इसलिए संभव हो पाती है क्योंकि अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा हमारे समाज का स्थायी भाव बन गया है। मुसलमानों और कुछ हद तक ईसाईयों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए शाखाओं से लेकर सोशल मीडिया तक का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है।
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हाल के कुछ दिनों में बीजेपी और उसके नेताओं की भड़काऊ टिप्पणियों ने आग में घी का काम किया। इनमें शामिल थे मोदी (विरोध प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ो से पहचाना जा सकता है), अमित शाह (करंट शाहीन बाग तक पहुंचे), अनुराग ठाकुर (गोली मारो), योगी आदित्यनाथ (अगर बोली काम नहीं करेगी तो...) और प्रवेश वर्मा (वे घरों में घुसकर बलात्कार करेंगे)।
हालांकि इस त्रासदी से आम आदमी पार्टी का असली चेहरा भी एक बार फिर सामने आ गया है। ‘आप’ न सिर्फ दंगों के दौरान चुप्पी साधे रही, बल्कि उसने दिल्ली पुलिस की भूमिका की प्रशंसा भी की। दिल्ली हिंसा के बाद से गोली मारो... हिन्दू राष्ट्रवादियों के नारों की सूची में शामिल हो गया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि दिल्ली में हुआ यह दंगा शायद देश का पहला ऐसा दंगा है, जिसमें गोली से मारे जाने वालों की संख्या चाकुओं, तलवारों और लाठी-डंडों से मारे जाने वालों से कहीं अधिक है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का आव्हान खाली नहीं गया!
हमारे देश में न्यायपालिका कमजोरों के अधिकारों की संरक्षक मानी जाती है, परंतु दिल्ली में ज्योंहि न्यायमूर्ति मुरलीधर ने नफरत फैलाने वालों के खिलाफ केस दर्ज करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई में कठोर रुख अपनाया, उनका तबादला कर दिया गया। यहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि येल विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर दंगे से बीजेपी को चुनावों में फायदा होता है। भारत को नफरत और नफरत फैलाने वालों- दोनों से निपटने की जरूरत है।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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