विचार

आकार पटेल का लेख: जब भी अस्थिर होती है बीजेपी, संघ मजबूती के साथ अपना अधिकार जताता है, और आज ऐसा ही है

आरएसएस हिंदुत्व का इकलौता वैचारिक स्त्रोत है। बीजेपी में नेता आते-जाते रहते हैं, नीतियां आती-जाती रहती हैं, आरएसएस हमेशा पृष्ठभूमि में एक नियंत्रण वाला हिस्सेदार बना रहता है।

जब भी अस्थिर होती है बीजेपी, संघ मजबूती के साथ अपना अधिकार जताता है, और आज ऐसा ही है
जब भी अस्थिर होती है बीजेपी, संघ मजबूती के साथ अपना अधिकार जताता है, और आज ऐसा ही है फोटोः सोशल मीडिया

अगले साल 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 साल के हो जाएंगे। इसके 10 दिन बाद राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ 100 साल का हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी ड्डा ने कहा था कि बीजेपी को अब आरएसएस क जरूरत नहीं है क्योंकि पार्टी अब अपने दम पर खड़ी हो चुकी है। यह एक असाधारण बयान था, क्योंकि ऐसा कहा जाता रहा है कि दोनों संस्थाएं एकदम अलग हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है?

आरएसएस हिंदुत्व का इकलौता वैचारिक स्त्रोत है। बीजेपी में नेता आते-जाते रहते हैं, नीतियां आती-जाती रहती हैं, आरएसएस हमेशा पृष्ठभूमि में एक नियंत्रण वाला हिस्सेदार बना रहता है। निस्संदेह, आरएसएस ने खुद को बचाने के लिए बीजेपी का सृजन किया है। और यह बात बीजेपी के आधिकारिक इतिहास से स्पष्ट है, जिसे पार्टी ने 2006 में छह खंडों की श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया था।

बीजेपी के पूर्ववर्ती अवतार भारतीय जनसंघ की स्थापना दिसंबर 1947 में दिल्ली में आरएसएस की रैली के बाद हुई थी, जिसमें बड़ी संख्या में लोग जुटे थे और हिंदू रजवाड़ों के राजकुमार, व्यापारी और अन्य हिंदू संगठनों के नेता भी इसमें शामिल हुए थे। बीजेपी का इतिहास बताता है कि इस लोकप्रियता ने कांग्रेस और खासकर नेहरू को सतर्क और चिंतित कर दिया था। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या से कांग्रेस को संघ पर कार्रवाई करने का मौका मिला। और उसने महात्मा गांधी की हत्या के तीन दिन बाद 2 फरवरी को आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया।

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आरएसएस प्रमुख गोलवलकर को आभास हो गया था कि गांधी की हत्या की जांच में असलियत सामने आने के बाद उनकी संघ मुश्किल में पड़ जाएगा। उन्होंने तुरंत कुछ कदम उठाए। हत्या के दिन ही, यानी 30 जनवरी 1948 को, उन्होंने आरएसएस शाखाओं को तेरह दिनों के लिए शाखा संचालन स्थगित करने का टेलीग्राम भेजा। उसी दिन उन्होंने नेहरू, पटेल और गांधी के बेटे देवदास को भी शोक संदेश के साथ टेलीग्राम भेजा,जिसमें कहा गया: 'इस क्रूर घातक हमले और एक महानतम व्यक्तित्व की दुखद क्षति से स्तब्ध हूं।'

अगले दिन गोलवलकर ने फिर से नेहरू को पत्र लिखकर महात्मा गांधी की हत्या पर अपनी हैरानी व्यक्त करते हुए गोडसे को एक ‘विचारहीन विकृत आत्मा’ की संज्ञा दी और कहा कि उसने ‘पूज्य महात्माजी की गोली मारकर अचानक और वीभत्स तरीके से हत्या करने का जघन्य कृत्य किया।’ गोलवलकर ने इस हत्या को अक्षम्य और देशद्रोह का कृत्य बताया।

इसी दिन उन्होंने फिर से पटेल को लिखा, ‘मेरा दिल बेहद पीड़ा से आकुल है। इस अपराध को अंजाम देने वाले व्यक्ति की निंदा करने के लिए शब्द खोजना मुश्किल है…’’

लेकिन ये सारे हथकंडे किसी काम न आए।

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सरकार ने अधिसूचना जारी कर आरएसएस को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इसमें कहा गया, ‘आरएसएस का घोषित लक्ष्य और उद्देश्य हिंदुओं की शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक भलाई को बढ़ावा देना और उनके बीच भाईचारे, प्रेम और सेवा की भावनाओं को बढ़ावा देना है... लेकिन, सरकार खेद के साथ देखती है कि व्यवहार में आरएसएस के सदस्य अपने घोषित आदर्शों का पालन नहीं कर रहे हैं।’

लेकिन अब, सरकार ने कहा, 'उन्हें (संघ के लोगों को) हथियार इकट्ठा करने के लिए आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित करने वाले पर्चे बांटते हुए पाया गया है... जिससे सरकार के लिए संघ से उसकी क्षमता में निपटना आवश्यक हो गया है।'

गोलवलकर को 3 फरवरी को करीब 2000 स्वंयसेवकों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। संघ ने कहता है कि उसे यह देखकर काफी आघात पहुंचा कि कोई राजनीतिक दल या नेता उसके बचाव में सामने नहीं आया। संघ पर यह प्रतिबंध करीब डेढ़ साल तक रहा। जब संघ को अपना संविधान बनाने को कहा गया और उसने शर्त के मुताबिक अपना संविधान बनाकर सरकार को सौंपा को 11 जुलाई 1949 को संघ पर से प्रतिबंध हटाया गया।

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इसके तुरंत बाद ही संघ ने राजनीति में कदम रखने के लिए अपने मुखपत्र द ऑर्गेनाइजर के जरिए प्रचार करना शुरु कर दिया। इसमें के आर मलकानी जैसे आरएसएस स्वंयसेवकों के लेख प्रकाशित होते जिन्होंने लिखा था कि ‘संघ को न सिर्फ अपनी रक्षा के लिए बल्कि भारतीयता विरोधी राजनीति और देश के अभारतीयकरण को रोकने के लिए राजनीति में आना ही चाहिए, साथ ही इसके जरिए संघ सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर भारतीयता को स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। इस मकसद के लिए संघ को तो सभी नागरिकों के लिए एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक-शैक्षिक आश्रम की तरह ही चलते रहना चाहिए, लेकिन इसे एक राजनीतिक शाखा विकसित करनी चाहिए ताकि संध अपने आदर्शों को प्रभावी और त्वरित तरीके से प्राप्त कर सके।’

मलकानी ने यह भी कहा कि नई पार्टी ‘प्राचीन मूल्यों का पुनरुत्थान करने वाली होगी क्योंकि यह अपने लक्ष्यों में भविष्यदर्शी होगी’ और जो ‘विदेशी मूल्यों, दृष्टिकोण और तौर-तरीकों पर निर्भर न रहने’ के लिए प्रतिबद्ध होगी और ‘हिंदुस्तान में इस पुनर्गठन का सिद्धांत केवल हिंदुत्व हो सकता है।’

इसी तरह आर्य समाज के आरएसएस स्वंयसेवक बलराज मधोक ने भी लिखा कि संघ को ‘देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के संबंध में देश का नेतृत्व करना चाहिए’ क्योंकि यह ‘संघ के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है।’

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राजनीतिक दल बनाने के प्रस्ताव का संघ में भीतरी तौर बहुत कम या बिलकुल भी विरोध नहीं हुआ। तीन अन्य बातों से भी जनसंघ (बीजेपी) के गठन को रफ्तार मिली। सबसे पहले, अप्रैल 1950 में हिंदू महासभा के पूर्व नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया, जिसमें उन्होंने नेहरू पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया। दूसरा, पहले आम चुनाव से एक साल पहले दिसंबर 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु। और तीसरी बात, उसी साल हुए चुनाव में पी डी टंडन का कांग्रेस अध्यक्ष बनना और नेहरू द्वारा उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना। टंडन एक हिंदू रूढ़िवादी थे, जिनके बारे में नेहरू को लगा (बीजेपी के इतिहास के अनुसार) कि उन्हें आरएसएस का समर्थन मिला हुआ है। इन तीनों बातों ने आरएसएस को लोकप्रिय राजनीति में एक रूढ़िवादी हिंदू तत्व की आवश्यकता के बारे में और अधिक आश्वस्त किया।

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इस तरह 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की शुरुआत हुई। यानी देश मौजूदा प्रधानमंत्री के जन्म के एक साल बाद। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जनसंघ का प्रमुख बनाया गया और गोलवलकर ने पृष्ठभूमि में रहकर पार्टी के लिए हमेशा राष्ट्रव्यापी ढांचा तैयार किया और प्रचारकों को इसमें शामिल किया, जिसमें उत्तर प्रदेश से दीनदयाल उपाध्याय भी शामिल थे। आज भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल के छह सबसे वरिष्ठ मंत्री वरीयता क्रम के अनुसार स्वयंसेवक हैं।

वर्णित है कि जब अल्पमत सरकारों के दौरान बीजेपी अस्थिर होती है, जैसा कि वाजपेयी दौर में हुआ और जैसा कि आज भी लगता है, तो आरएसएस मजबूती के साथ अपना अधिकार जताता है और फिर जताएगा। संघ बीजेपी की वह मातृशक्ति है, जिसकी तरफ बीजेपी को हमेशा लौटकर आना ही होता है।

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