दमन और वर्चस्व की पैरोकार शक्तियों ने अयोध्या के निकटवर्ती इतिहास में भी कुछ कम गुल नहीं खिलाए हैं। इतिहास गवाह है कि ये शक्तियां जब भी अमर्यादित शक्ति व समृद्धि अर्जित कर लेतीं या सत्ता व प्रभुता पाकर मदांध हो जाती हैं, सद्भावना व दुर्भावना की परिभाषाओं की अदला-बदली करने लग जाती हैं। उनका इसके पीछे का मंसूबा यह होता है कि सद्भावना फैलाने की कोशिशों को दुर्भावना फैलाने की कोशिशें माना जाने लगे और दुर्भावना फैलाने की कोशिशें सद्भावना फैलाने की कोशिशों जैसा आदर पाने लग जाएं।
बीती शताब्दी के आखिरी दशक के पूर्वार्ध में अयोध्या नाम की नगरी को कई ऐसे मोड़ों से गुजरना पड़ा, जब उसने इन शक्तियों द्वारा सद्भावना को दुर्भावना और दुर्भावना को सद्भावना की तरह बरतते देखा। पहली बार तब, जब उनके द्वारा चारों ओर फैलाए गए उन्माद के बीच देश के कई अंचलों के गांधीवादी व सर्वोदयी कार्यकर्ता इस विश्वास के साथ अयोध्या की धरती पर आए कि घृणा कभी भी और किसी भी हालत में प्रेम से नहीं जीत सकती और उनकी प्रार्थनाओं में इतना बल है कि वे उसके बूते उन भटके हुओं का मानस भी बदल डालेंगे जो अभी इन शक्तियों के बहकावे में आकर किसी की भी कुछ नहीं सुन रहे और दुर्भावनाओं की बाड़ को लगातार बड़ी करते जा रहे हैं।
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लेकिन विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों ने इन कार्यकर्ताओं के विश्वास को घायल करने में चौबीस घंटे भी नहीं लगाए। हर किसी की बुद्धि-शुद्धि, सर्वधर्म समभाव और सद्भावना की स्थापना के लिए राम की पैड़ी पर उस स्थल के निकट जहां 1948 में बापू की अस्थियां सरयू में विसर्जित की गई थीं, इन कार्यकर्ताओं ने अपना तीन दिन का उपवास शुरू ही किया था और उनके द्वारा गाई जा रही ‘रघुपति राघव राजा राम’ वाली रामधुन ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ तक पहुंची ही थी कि उनके वहां पहुंचने के समय से ही उन्हें ताड़ रहे कारसेवकों ने उन पर हिंसक हमले शुरू कर दिए। किसी का अंग-भंग कर दिया तो किसी का सिर फोड़ दिया।
उड़ीसा के एक सर्वोदय कार्यकर्ता का सिर इतनी बुरी तरह फट गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। कारसेवक इतने पर ही शांत हो जाते तो भी कोई बात न थी। लेकिन वे झुंड बनाकर देर तक शाब्दिक हिंसा करते रहे और अपशब्दों व गालियों से भी चोट पहुंचाते रहे। फिर इस ‘महाभियोग’ पर उतर आए कि ये कार्यकर्ता जो रामधुन गा रहे हैं, उसमें राम व अल्लाह को एक बता रहे हैं जो उनके राम का अपमान है और उनके द्वारा इस अपमान को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। किसी भी विवेकवान व्यक्ति के निकट इसका एक ही अर्थ था कि उन्होंने सबको सन्मति देने की प्रार्थना के कारण बापू के प्रिय इस रामधुन की भी दुर्गति कर डाली है। अयोध्या में यह पहली बार था जब ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ जैसी धार्मिक एकता का संदेश देने वाली पंक्ति को ऐसे अमानवीय ढंग से लांछित किया गया।
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लेकिन वे गांधीवादी व सर्वोदय कार्यकर्ता जाने किस मिट्टी के बने हुए थे कि इतना सब सहकर भी सद्भावना के पथ से विचलित नहीं हुए और उन्होंने शांतिपूर्वक अपना उपवास जारी रखने का फैसला किया। लेकिन कारसेवकों के बाद सरकार के सेवक पुलिसकर्मी व प्रशासनिक अधिकारी भी उनके इस फैसले के दुश्मन बन गए।
इन कार्यकर्ताओं का तो कुछ पता नहीं लेकिन जहां तक अयोध्या की बात है, तब तक वह इस सच से बखूबी वाकिफ हो चुकी थी कि देश व प्रदेश में सरकारें जिस भी पार्टी या विचारधारा की रहें पुलिस व प्रशासन का ढांचा ऐसा है कि वे ऐक्य के लिए काम करने वालों के बजाय विघ्नसंतोषियों के ही शुभचिंतक बने रहते हैं।
इस मामले में भी पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों ने उपवास स्थल पर आते ही इन कार्यकर्ताओं के हमलावरों पर नकेल कसकर शांतिपूर्ण उपवास के उनके अधिकार की रक्षा करने में लगने के बजाय फरमान सुना दिया कि वे अपना तम्बू-कनात उखाड़ें और वहां से दफा हो जाएं। उनके इस सवाल का जवाब देना भी गवारा नहीं किया कि वे सद्भावना के प्रसार के उनके शांतिपूर्ण अभियान को सुरक्षा देने का अपना कर्त्तव्य निभाने के बजाय हमलावर कारसेवकों का पक्ष क्यों ले रहे हैं?
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इन कार्यकर्ताओं में वरिष्ठ गांधीवादी व सर्वोदयी नेता सिद्धराज ढड्ढा और अमरनाथ भाई भी शामिल थे। उन्होंने अधिकारियों के समक्ष साफ कर दिया कि न तो वे किसी दबाव में आएंगे और न शांतिपूर्वक रामधुन गाने व उपवास करने का अपना अधिकार छोड़ेंगे तो उन्हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि फिलहाल निषेधाज्ञा लागू है और उसके लागू रहते पुलिस व प्रशासन को उन्हें बिना कोई कारण बताए कुछ भी करने से रोकने का अधिकार है।
अमरनाथ भाई जो अब नब्बे पार की उम्र में बनारस के एक गांव में रहते हैं, बताते हैं कि जब हमने निषेधाज्ञा को अनुचित करार देकर उसकी सविनय अवज्ञा की बात कही तो हमें गिरफ्तार करके बसों में ठूस दिया गया और बिना किसी मजिस्ट्रेट के सिपाहियों की निगरानी में रात के अंधेरे में एक जंगल में ले जाकर कहा गया कि अब हम जहां चाहें, जा सकते हैं। हमने वहां बस से उतरने से इनकार कर दिया, किसी नजदीकी थाने में पहुंचाने और हमारे अधिकारों के हनन का मुकदमा दर्ज कराने की मांग की तो पहले किसी थाने में ले जाकर इस मांग को मानने की कार्रवाई का नाटक किया गया, फिर रेलवे स्टेशन पर पहुंचा दिया गया।
अमरनाथ भाई को आज भी यह याद करके हैरत होती है कि उन दिनों अयोध्या में दुर्भावनाओं का प्रसार करने वाले किस तरह खुले खेल रहे थे लेकिन सद्भावना के प्रयासों के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी।
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छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कुछ ही महीनों बाद अगस्त, 1993 में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) द्वारा आयोजित ‘मुक्तनाद’ और ‘हम सब अयोध्या’ प्रदर्शनी के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ। सहमत ने इस समझदारी के तहत कि भोले-भाले जनसामान्य को धार्मिक व सांप्रदायिक नफरतों व बदगुमानियों के पंजों में जाने से बचाने का एक ही तरीका है कि उनके प्रसार के लिए गढ़ लिए गए नाना अर्धसत्यों की पोल खोली जाए, फैजाबाद के ऐतिहासिक तिलक हाल में नौ से पंद्रह अगस्त तक ‘हम सब अयोध्या’ प्रदर्शनी लगाई तो रामकथाओं की विविधता दर्शाने वाले कुछ प्रसंग व संदर्भ भी प्रदर्शित किए।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिन्दू परिषद वगैरह ने विविधता के इस प्रदर्शन को भी सीता व राम का अपमान करार देने और उसे लेकर आसमान सिर पर उठाने में संकोच नहीं किया। 12 अगस्त की दोपहर उसके कार्यकर्ताओं ने अचानक तिलक हाल पहुंचकर सारे मतों व मतांतरों के आदर की अयोध्या की बहुप्रचारित परंपरा को कलंकित करते हुए प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ मचा दी। उनके निकट इस तोड़-फोड़ का सबसे बड़ा बहाना उसमें प्रदर्शित एक बौद्ध जातक कथा का तीन पंक्तियों का छोटा-सा उद्धरण था जो उनके अनुसार अयोध्या की परंपरागत रामकथा से मेल नहीं खाता था, इसलिए उसके विरुद्ध और हिन्दुओं की भावनाओं को उद्वेलित करने वाला था।
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जब वे तोड़फोड़ पर उतरे तो वहां सुरक्षा के लिए तैनात पुलिसकर्मियों ने वैसा ही रवैया अपनाया जैसा गांधीवादी व सर्वोदय कार्यकताओं के उपवास के वक़्त अपनाया था। कई लोगों का कहना था कि उन्हें ऊपर से ऐसे निर्देश मिले हुए थे जबकि कई और की निगाह में यह उनके द्वारा की गई अपने कर्त्तव्य की खुली अवहेलना थी। जो भी हो, उन्होंने तोड़फोड़ रोकने को कौन कहे, तोड़फोड़ करने वालों को टोका तक नहीं और जब उनका बड़ा हिस्सा ‘जयश्रीराम, हो गया काम’ की तर्ज पर अपना उद्देश्य पूरा कर नारे लगाते हुए बाहर जाने लगा तो उसके पीछे-पीछे बाहर चले गए।
यह देखकर तिलक हॉल के अंदर रह गए भाजपा कार्यकर्ता दोगुने जोश से तोडफोड़ करने लगे तो भी वहां रह गए दो सिपाहियों ने उन्हें नहीं ही रोका-टोका। पास की रिकाबगंज पुलिस चौकी पर इसकी सूचना देने के बहाने वे भी बाहर निकल गए।
हद तो तब हो गई जब इस तोड़फोड़ के चौदह दिन बाद पुलिस ने उलटे प्रदर्शनी के स्थानीय आयोजकों के ही विरुद्ध सांप्रदायिक वैमनस्य व अफवाहें फैलाने, उन्माद पैदा करने और धार्मिक स्थलों व मान्यताओं के खिलाफ भड़काने वाले दुष्प्रचार से राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के प्रयास करने जैसे गंभीर आरोपों में एफआईआर दर्ज कर ली। इतना ही नहीं, राज्य सरकार ने मामले की जांच पुलिस से लेकर सीआईडी को सौंप दी। कहते हैं कि उसने ऐसा केन्द्र सरकार के निर्देश पर किया।
(कृष्ण प्रताप सिंह की किताब ‘ज़ीरो माइल- अयोध्या’ के ‘इंसाफ नहीं फैसला’ अध्याय से साभार। किताब वाम प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है। मूल्य- 250 रुपये)
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