इस साल मुहर्रम की छुट्टी के दिन छात्रों, शिक्षकों और अन्य लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक और भाषण से दो-चार होना पड़ा, जो नई शिक्षा नीति की घोषणा की तीसरी वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित किया गया था। गुजरात और उत्तर प्रदेश सरकार ने मुहर्रम की छुट्टी रद्द कर दी, शायद इसलिए क्योंकि इनके नजरिए में प्रधानमंत्री का भाषण मुहर्रम से कहीं अधिक पवित्र है।
कुछ शिक्षा संस्थानों ने अपने छात्रों और शिक्षकों के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित प्रगति मैदान में नवनिर्मित कन्वेंशन सेंटर में होने वाले प्रधानमंत्री के उस भाषण का लाइव प्रसारण देखना अनिवार्य कर दिया, जो उन्होंने शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुखों, शिक्षकों और छात्रों के सामने दिया था।
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई), केंद्रीय विद्यालय संगठन (केवीएस) और नवोदय विद्यालय समिति (एनवीएस) से ‘अनुरोध’ किया कि वे उनसे संबद्ध स्कूलों को मुहर्रम के दिन 29 जुलाई को खुले रहने के लिए कहें और यह सुनिश्चित करें कि प्रधानमंत्री का भाषण देखने के लिए शिक्षक और छात्र मौजूद रहें।
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उत्तर प्रदेश और गुजरात सरकार ने तो स्वतंत्र तौर पर आदेश ही जारी कर दिया कि इस दिन स्कूल खुले रहे और शिक्षक और छात्र प्रधानमंत्री के प्रवचन अवश्य सुनें। इस आदेश का पालन सुनिश्चित कराने के लिए स्कूलों से कहा गया कि वे इस कार्यक्रम को सुने-देखे जाने का सबूत अनिवार्य रूप से मंत्रालय को उपलब्ध कराएं।
ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी कुछ ऐसी ही हरकत की थी। प्रधानमंत्री विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के समापन पर भाषण देने के लिए विश्वविद्यालय आना था। यह कार्यकर्म ईद-उल-जुहा (बकरीद) के एक दिन बाद हो रहा था।
विश्वविद्यालय को लगा कि कार्यक्रम से एक दिन पहले विश्वलिद्यालय समुदाय के सभी सदस्यों को कैंपस में आना जरूरी है। इसलिए विश्वविद्यालय ने बकरीद वाले दिन को कार्यदिवस घोषित कर दिया। वैसे इससे उन लोगों को छूट दे दी गई थी जो बकरीद मनाना चाहते थे, और उन्हें इस दिन छुट्टी दे दी गई। विश्वविद्यालय के इस आदेश की चौतरफा आलोचना हुई थी, लेकिन इससे विश्वविद्यालय प्रशासन पर कोई असर नहीं पड़ा।
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2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी सरकार ने इसी तरह क्रिसमस की छुट्टी भी रद्द करे की कोशिश की थी और 25 दिसंबर को गुड गवर्नेंस डे (सुशासन दिवस) के रूप में मनाने का ऐलान किया था। इसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन होता है।
यह निहायत ही ओछापन था और इसकी भी आलोचना हुई थी, लेकिन बीजेपी सरकार ने इसकी परवाह किए बिना इस प्रथा को जारी रखा है।
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क्या किसी हिंदू त्योहार को इस तरह हाईजैक करने की कोशिश हो सकती है? इसकी कल्पना ही असंभव है। अगर होली या दिवाली किसी खास वर्षगांठ पर पड़ती हैं तो क्या सरकार इसी तरह के आदेश जारी करेगी? अगर नहीं, तो फिर बीजेपी सरकारें क्यों सोचती हैं कि उन्हें मुसलमानों या ईसाइयों को उनके पवित्र अवसरों या पर्वों से वंचित करने की अधिकार है?
यह निश्चित रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को हाशिए पर रखने, उनके धार्मिक या पवित्र अवसरों को अनदेखा किए जाने के तौर पर पेश करने, और इस तरह समुदायों को 'दोयम दर्जे के नागरिकों' के रूप में पेश करने का एक तरीका है। तो फिर, इसी तरह उन्हें 'धर्मनिरपेक्ष' या 'राष्ट्रीयकृत' किया जाना है।
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2014 से पहले के भारत में ऐसे आदेश-निर्देश कभी देखे-सुने नहीं गए थे। केंद्र हो या राज्य, सरकारों ने कभी भी समाज के किसी भी वर्ग के लिए 'राष्ट्रीय अवसर' में भागीदारी को अनिवार्य नहीं बनाया। लेकिन, 2014 के बाद से, हमने देखा है कि केंद्र सरकार प्रधानमंत्री के अहंकार को संतुष्ट करने के लिए अपने संस्थानों को, उनसे संबद्ध निकायों को छुट्टियों और रविवार को काम करने के लिए कहने के लिए मजबूर कर रही है।
निःसंदेह, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उनके मुंह से निकला प्रत्येक शब्द पूरे भारत में सभी घरों तक पहुंचाया जाए और हर कान में डाला जाए। वह अपने मासिक प्रसारण से संतुष्ट नहीं हैं।
इसीलिए, समय-समय पर, वह अतिरिक्त उपदेश देते हैं और ‘प्रजा’ को अपने ज्ञान का ‘अमृत’ पिलाते हैं। इस प्रकार यह इस सरकार की आदत बन गई है कि छुट्टियाँ रद्द कर दी जाती है और नागरिकों-विशेष रूप से स्कूली छात्रों और शिक्षकों (क्योंकि वे आसानी से उपलब्ध होते हैं और कम समय में ही जुटाए जा सकते हैं) को उनके लंबे-लंबे उपदेशों में हिस्सा लेने के लिए मजबूर किया जाता है।
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स्वतंत्र भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने इससे पहले कभी भी ऐसा करने की कोशिश नहीं की कि लोगों को उनकी बात सुनने के लिए सब कुछ दरकिनार कर दिया जाए। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक किसी ने कभी ऐसा नहीं किया। अपने तौर पर एक अद्भुत वक्ता माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी तक ने ऐसा कभी नहीं किया। कोई भी समझदार देश ऐसा नहीं करता है। कोई भी ऐसा देश जो खुद को लोकतंत्र कहता हो, वह अपने नागरिकों पर नेताओं को ऐसे नहीं थोपता है।
हां, मोदी से पहले अन्य देशों में ऐसा हुआ है, और उनके बारे में सोचते ही स्टालिन और हिटलर जैसे नेताओं के नाम तुरंत दिमाग में आते हैं। वे जरूर सुनिश्चित करते थे कि उनकी बात रेडियो और लाउडस्पीकर के माध्यम से सभी घरों, हर गली-हर नुक्कड़ तक पहुंचे। सड़क तक पहुंचे। उस समय लोग जानते थे कि ‘महान’ नेता को तवज्जो न देना कोई विकल्प नहीं है।
भारत में, हमें लगता था कि नागरिक ही संप्रभु हैं। लेकिन अब ऐसा लगता है कि कोई और संप्रभु है। वाह! इस महान देश ने क्या प्रगति की है!
और, यदि यह 'विकास' नहीं है...
(अपूर्वानंद एक शिक्षक और राजनीतिक-सांस्कृतिक टिप्पणीकार हैं)
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