इक्कीस मई के आते आते, उस युवा प्रधानमंत्री की बहुत याद आई, जो शांति के लिए होम हुए। हाल ही में जब हम कुछ साथी एक नेतृत्व शिविर में थे। हमारे साथ मणिपुर की भी एक महिला प्रतिभागी थी। वे अपना नाम जाहिर नहीं करना चाहतीं। अचानक मणिपुर में दो समुदायों के बीच हिंसा भड़क उठी। हमारी साथी को यह सूचना तो मिल गई थी कि आक्रमणकारी भीड़ उनके घर पर भी घुस आई है। गाड़ी जला दी है। उनके पालतू कुत्तों को गोली मार दी है।
मगर उन्हें अपने पति और बच्चों की कोई सूचना तकरीबन छह घंटे तक नहीं मिली। हम सब उनके साथ बैठे रहे। वे बार बार फोन करने का प्रयास करतीं। पड़ोसी को फोन लगातीं। अपनी बहन से बात करते समय ही उन्हें पता चला कि हमलावर भीड़ बहन के घर तक पहुंच गई है। फोन कट गया। वो बदहवास सी अपने परिचित अधिकारी, पुलिस अफसर को फोन लगातीं रहीं।
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कुछ समय बाद जब उनके पति के नम्बर से फोन आया, तो कांपते हाथों से उन्होंने उठाया। पता नहीं क्या खबर होगी! कौन क्या सूचना देगा? उस दिन पति की आवाज सुनकर वो आश्वस्त हुई। वो भी घायल थे, अपने बच्चों को ढूंढ रहे थे। सिर पर चोट थी। कुछ घण्टे बाद यह स्पष्ट हो गया कि वे अब उस घर पर नहीं रह सकते। घर तोड़ दिया गया था। कब भीड़ पुनः लौटकर हमला करेगी, कह नहीं सकते थे। बच्चे पास में ही छुपे हुए थे। बेटी अपने पिता को लेकर अस्पताल गई। रास्ता भी सुरक्षित नहीं था और न ही अस्पताल। कम से कम उनके परिजन जीवित थे।
जैसे जैसे घर के पूरी तरह उजड़ जाने का एहसास होता गया, इधर उनकी बेचैनी बेबसी में बदलती गई। अगले दिन से क्लेश बढ़ता गया। एक परिवार, एक समूह की बात नहीं रही। पूरा प्रदेश और मणिपुर के छात्र जो बड़ी संख्या में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, बंटते गये। कुछ नही बंटा, तो मानवीय पीड़ा, अपनों को खोने का दर्द। वो हर तरफ एक सा ही था। आखिर आंसुओ को कोई क्या रंग दे?
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विवाद के कारणों पर कई बार लिखा जा चुका है। किस तरह मैथी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की पेशकश हुई। कैसे वादी में बसे मैथी बहुसंख्य और पहाड़ों में बसते कूकी एवं अन्य समुदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ाने की पहल हुई। इससे राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किसी से छुपा नहीं है। गौरतलब है कि कूकी समुदाय ईसाई मत को मानने वाले है।
अल्पसंख्या के प्रति अन्यपन के भाव को समाज में संस्थापित करने की मुहिम 2014 से ही तेज हुई है। हिंसा अब भी थमी नहीं है। अपने ही देश मे कई हजार मणिपुरी भाई-बहन शराणार्थी हो चले हैं। इन परिस्थितियों के चलते इंटरनेट बंद कर दिया गया। जब मणिपुर मे ऐसी हिंसा का वातावरण है, तब राज्य सरकार पूरे घटनाक्रम के दौरान कुछ नहीं कर पाई। खुद अपने ही बुने जाल मे फंस गई सी लगती है। मुख्यमंत्री नाकाम सिद्ध हुए। मौजूदा केंद्रीय व्यवस्था अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं कर पाई। केंद्रीय व्यवस्था स्वयं भी विलगाव का राजनीतिक लाभ लेने मे माहिर है।
उनके कठपुतली प्रसार माध्यमों ने केरल स्टोरी पर खूब बहस कराई। मगर कराहते मणिपुर पर कुछ नही कहा। दरअसल यह व्यवस्था विरोध को विद्रोह मानती है। अब तो आलम यह है कि न केवल उन से सवाल नही पूछा जा सकता। बल्कि इनके पूंजीवादी मित्रो के ऊपर तोहमत लगाना भी देशद्रोह की श्रेणी मे आता है।
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ऐसे मे वो दौर याद आता है जब सही में ही गणराज्य को चुनौती देते समूहों से भी संवाद की नीति अपनाई गई। हिंसात्मक प्रतिरोध को बिना शर्त समाप्त करने का आह्वान एक तरफ था। ताकि राष्ट्र-राज्य दुर्बल न पडे़। मगर प्रतिरोध के स्वरों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जोड़ने का सक्रिय प्रयास भी किया गया।
अब भी मन मिलाप की ऐसी पहल बहुत जरुरी मालूम पड़ती है। ताकि तथ्यों, साक्ष्यों की अतिरंजित या भ्रामक प्रस्तुति के जरिये विलगाव न पैदा किया जाये। कम से कम ऐसी प्रस्तुति को शासन तो प्रोत्साहित न करे। उसे देखने के लिए पाबंद तो न करे। पर सवाल यह भी है कि जी-20 का नेतृत्व करने को आतुर व्यवस्था अपने ही देश के एक वर्ग को ’’अन्य’’ साबित करने पर क्यों तुली है? फिर कैसा वसुधैव कुटुम्बकम? जहां उत्तर प्रदेश में इकबाल की कविता ’’लब पे आती है दुआ’’ गीत गवाये जाने पर खास समुदाय के शिक्षक बरखास्तगी झेलते हैं। क्या सांस्कृतिक साझेपन में दूरियां पैदा करते जाने से सचमुच ही विलगाव वैमनस्य पनपने नहीं लगेगा?
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करीबन सैंतीस साल पहले का मिजो समझौता याद हो आया। आजादी के बाद अंतरसामुदायिक वैमनस्य और दुष्काल से जूझते मिजोरम में हिंसात्मक अलगाववादी समूह पनपने लगे। लालडेंगा के नेतृत्व में वे पृथक मिजो राष्ट्र की मांग कर रहे थे। प्रदेश मे हिंसात्मक प्रतिरोध जारी था। जाहिर है कि प्रतिरोध का प्रतिकार भी सैन्य बल से ही हो रहा था। ऐसे में देश के तत्कालीन युवा प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष के समाप्त होने से पहले ही शांति वार्ता की पहल शुरु कर दी। 1986 में भारत सरकार और मिजो नेशनल फ्रंट के बीच संधि हुई। उसी साल की शुरुआत में संत लोंगोवालजी के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर हुए। असम के पृथकतावादी छात्र आंदोलन के साथ 15 अगस्त 1985 को समझौता हुआ।
उत्तर पूर्व के दोनों प्रांत असम और मिजोरम में अपनी ही पार्टी की सरकार को खोने की कीमत चुकाकर उस युवा प्रधानमंत्री ने शांति स्थापना के प्रयास को साकार किया। पार्टी की सत्ता राज्यों से जाती रही। मगर राज्य के लोगों का भारत से मन मिलाप होता गया। वो प्रधानमंत्री मन की बात नहीं करते थे। मन की बात न सुनने वालों को निलंबित भी नहीं किया जाता था। बल्कि द्वेष या द्रोह की असल वजह को संवाद से जानकर मन को जीतने की कोशिश होती थी।
मिजो संधि के बाद उन्होंने सपत्नीक बहत्तर घण्टे का राज्यव्यापी दौरा किया। मन मिलाप के यत्न किये। पार्टी की चुनी सरकार को बरखास्त करके पुनः चुनाव करवाये। उन चुनावों में लालडेंगा की पार्टी विजयी हुई। मगर असल जीत मिजोई जन मानस की हुई। भारत के संविधान की हुई।
ऐसा तभी संभव होता है जब व्यक्ति बेहद निडर हो और क्षुद्र स्वार्थो से ऊपर उठकर सोचे। कदाचित तभी उन्हें इक्कीसवीं सदी का स्वप्नद्रष्टा कहते है।
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