हमारे और नेहरू जी के परिवारों के बीच बहुत पुराना रिश्ता रहा है। मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रमुख अधिवक्ता थे और मेरे दादा शेख मोहम्मद हबीबुल्लाह कलेक्टर थे। उन्हें लोग सब दिन ‘डिप्टी (डिपुटी कलेक्टर) साहिब’ कहते रहे। बाद में वह लखनऊ विश्वविद्यालय में कुलपति रहे (1938- 41)। मेरे पिता मेजर जनरल एनिएथ हबीबुल्लाह ने मुझे बताया था कि जब वह और उनके दो भाई 1920 में ब्रिस्टल के क्लिफ्टन कॉलेज में स्कूलिंग के लिए जा रहे थे, तब उन्हें किस तरह जवाहरलाल नेहरू से मिलने के लिए ले जाया गया था। जवाहरलाल जी उस वक्त इलाहाबाद कोर्ट बार के उदीयमान सदस्य थे।
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वह 1907 में ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज और ब्रिटेन में इन्स ऑफ कोर्ट स्कूल ऑफ लॉ (इनर टेम्पल) तथा उसके बाद स्कूल एट हैरो में 1912 में पढ़कर इंग्लैंड से लौटे थे। उनसे मिलने ये लोग इसलिए गए थे ताकि उनसे सलाह ली जा सके कि किस तरह की तैयारी की जाए और इस तरह के सुदूरवर्ती क्षेत्र में पढ़ाई-लिखाई में क्या उम्मीद की जानी चाहिए। पिताजी को हमलोग- उनके बच्चे और उनके दोस्त, बब्बल्स कहते थे। उन्हें याद था कि जवाहरलाल जी ने उन्हें और उनके भाइयों को कहा था कि दुखदायी अकेलेपन के अतिरिक्त कुछ भी अभूतपूर्व की उन्हें अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
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बब्बल्स लंदन में अपनी पोस्टिंग से लौटने के बाद वायसराय के स्टाफ में थोड़े समय तक रहे। जब द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हुआ, तब श्रीलंका के सेना अस्पताल में उनका इलाज हुआ क्योंकि तब के बर्मा में वह गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। वहां से ठीक होने के बाद वह लौटे थे। लेकिन जैसा कि सबको पता है, भारत-विभाजन का संभवतः सबसे खराब असर भारतीय सेना पर पड़ा। ब्रिटिश भारतीय सेना का कम-से-कम 45 फीसदी हिस्सा पाकिस्तानी सेना बन गया। भारतीय सेना में कर्नल रैंक के दो ही मुस्लिम अधिकारी बच गए।
1948 में तब के जम्मू-कश्मीर राज्य के नौशेरा में पाकिस्तानी घुसपैठियों के साथ लड़ते हुए शहीद हुए ब्रिगेडियर उस्मान के साथ अपनी दोस्ती को सालों बाद याद करते हुए बब्बल्स ने मुझे बताया था कि विभाजन के वक्त तब की ब्रिटिश भारतीय सेना के मुस्लिम अफसरों को दो प्रकार के विकल्प दिए गए थे- या तो वे भारत में रहें या पाकिस्तान में लेकिन अगर वे भारत में रुकते हैं, तो उन्हें सेना छोड़नी होगी। मेरे पिता-जैसे व्यक्ति जिनके लिए भारत मातृभूमि थी लेकिन भारतीय सेना घर, के लिए इस तरह का विकल्प चुनना अस्वीकार्य था। नेहरू के साथ अपनी जान-पहचान का फायदा उठाते हुए बब्बल्स ने उस्मान के साथ जाकर प्रधानमंत्री से मुलाकात की। उस्मान उस वक्त उनकी तरह सेना में कर्नल थे। वहां दोनों ने रक्षा मंत्रालय की इस एडवाइजरी पर आपत्ति की। बाद में यह एडवाइजरी रद्द कर दी गई।
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उस्मान साहब तो पाकिस्तान के साथ लड़ते हुए जल्दी ही शहीद हो गए लेकिन बब्बल्स ने कई मुस्लिम अफसरों के साथ भारतीय सेना में अपना उज्ज्वल कॅरियर बनाया जबकि कई अफसर उस्मान की तरह देश के लिए शहीद भी हुए। जवाहरलाल जी के नेतृत्व में राष्ट्र निर्माण के इस तरह के कई काम हुए और इनमें से एक था खड़कवसला में नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) की स्थापना। यह अब पुणे शहर का उपनगर है और इसे कभी पेशवाओं की राजधानी रहने का गौरव प्राप्त था। मेरे पिता तब मेजर जनरल थे और वह इसके संस्थापक कमांडेन्ट थे। 1954 में एनडीए देहरादून में प्रेमनगर से मेरे पिता की कमांड में वहां गया। प्रेमनगर में मेरे पिता 1953 में अंतिम कमांडेन्ट थे। खड़कवसला में एनडीए की स्थापना नेहरू सरकार का प्रमुख कार्यक्रम था। यह दुनिया की पहली तीन सेवाओं वाली एकेडमी थी जो खड़कवसला लेक के किनारे बनाई गई। इसे बनाने में जवाहरलाल जी ने व्यक्तिगत तौर पर काफी रुचि ली। 1955 में इसके पहले पासिंग आउट परेड में वह मौजूद थे। वह यहां बराबर आते थे। कई दफा ब्रिटिश वायसरॉय लॉर्ड लुईस माउंटबेटन की पत्नी और जवाहरलाल जी की दोस्त एडविना माउंटबेटन ने भी उनके साथ यहां की यात्रा की।मेरी मां ने बाद में इन दोनों के बीच अनौपचारिकता को भी कई बार याद किया। जैसे, दर्शकों के बीच बैठी एडविना खड़े होकर उन्हें याद दिलातीं, ‘जवाहर, तुम अपने अगले कार्यक्रम के लिए देर हो रहे हो।’ एक दफा माउंटबेटन खुद भी एडविना के साथ सरकारी दौरे पर यहां आए।
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एकेडमी के म्यूजियम में एक हॉल मेरे पिता के नाम पर है। यहां पंडित जी की 1956 की एक तस्वीर लगी है। इसमें वह एक घोड़े पर सवार हैं और कुछ दूरी की ओर इशारा कर रहे हैं। उनके पास खड़े मेरे पिता गर्व भरी मुस्कान के साथ उन्हें देख रहे हैं। घुड़सवारी कर रही पंडित जी की यह तस्वीर चुनींदा है क्योंकि, जैसा कि मेरे पिता ने बताया था, वह मुकम्मल घुड़सवार थे, लेकिन यह तस्वीर अलग किस्म की इसलिए है क्योंकि इसमें वह घुड़सवारी के समय पहने जाने वाला हैट नहीं बल्कि गांधी टोपी पहने हुए हैं।
इस एकेडमी में तब कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री और शासक तो आए ही, मलाया के प्रधानमंत्री तुंकू अब्दुल रहमान के बेटे ने कैडेट के तौर पर ट्रेनिंग भी ली। इसका मुख्य भवन सूडान ब्लाॅक है जो सूडान सरकार की वित्तीय मदद से बना है। मेरे पिता ने एकेडमी में कई आकर्षक पेड़ और भव्य मूर्तियां लगवाईं। सूडान ब्लाॅक के सामने अर्जुन के गुरु पौराणिक द्रोणाचार्य की धनुष में कमान खींचती मनोहर ढग से गढ़ी प्रतिमा लगाई गई। सूडान ब्लाॅक का निरीक्षण करने पहुंचे प्रधानमंत्री ने पूछा, ‘यह कौन हैं?’ बब्बल्स ने कहा, ‘निश्चित तौर पर, द्रोणाचार्य जो अपने शिष्यों को युद्ध की उत्तम शिक्षा देने के लिए रोल माॅडल हैं।’ पीएम ने पूछा, ‘क्या? क्या आपको एकलव्य की याद नहीं है? मैं यह मूर्तियां यहां नहीं चाहता।’ इसलिए द्रोणाचार्य की वह प्रतिमा एनडीए की मुख्य इमारत के सामने नहीं है।
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उस वक्त मैं बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा था। मैं छुट्टियों में घर आया हुआ था और उस वक्त पंडित जी एक ही बार आए लेकिन मुझे एक-एक चीज याद है। एकेडमी में कमांडेन्ट का आवास सबसे आखिर में बना था। यह 1956 की गर्मी की छुट्टी की बात है। तब तक यह आवास बना नहीं था। बब्बल्स ने अपने परिवार को पहले के बैरेक के बरामदे में रखा हुआ था। मेरी मां हमीदा की कुशल देखभाल ने इसे नाटकीय परिदृश्य दे दिया था। यह एक पहाड़ी पर था, नीचे खड़कवसला लेक था। इसमें तेज चमकीले पानी के पार शिवाजी का सिंहगढ़ का किला था। कहा जाता है कि 1670 में इसे शिवाजी के जनरल तानाजी ने मुगल कमांडर उदय भान से छीन लिया था। दरअसल, संख्या बल में मराठा कम भले ही थे, वे गोहों की मदद से खड़ी दीवारों पर चढ़ आए थे और उदय भान आश्चर्यचकित रह गया था। भूषण की मराठी गाथा में इसका अविस्मरणीय वर्णन है। इन्हीं बैरकों में जवाहरलाल ठहरे थे, जबकि हमलोग पास के गेस्ट बैरकों में चले गए थे।
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घुड़सवारी वाली जिस तस्वीर की ऊपर चर्चा हुई है, उसी ड्रेस में प्रधानमंत्री अपने बरामदे से निकले और वहां सिर्फ मैं ही दिखा, तो उन्होंने पूछा, ‘जनरल साहब कहां हैं?’ मैं उस वक्त नन्हा-सा दस साल का बालक था। मेरे हाथ में लकड़ी की तलवार थी और मैं अपनी बैरेक के सामने लाॅन में पैजामा पहनकर तलवारबाजी करने का नाटक कर रहा था जिस तरह बच्चे किया करते हैं। जब मुझे लगा कि सामने कौन हैं, तो मैं तो अवाक हो गया और बिना एक शब्द बोले अपने कमरे की ओर भाग खड़ा हुआ। बाद में, मेरी मां ने बताया कि तब पंडित जी मेरे मां-बाप के बेडरूम में सीधे घुस आए। उस वक्त मेरी मां बेड पर ही थीं जबकि बब्बल्स प्रधानमंत्री के साथ जाने के लिए तैयार हो चुके थे। वहां पहुंचे प्रधानमंत्री ने अपना सवाल दोहराया। यह मेरी मां के लिए बड़ी असहज करने वाली स्थिति थी। नेहरू जी को मेरी मां पंडितजी ही कहती थी। मेरी मां ने चिल्लाकर कहा- ‘लेकिन पंडित जी, अभी तो छह ही बजे हैं। आपको तो 6ः30 बजे जाना था।’ इस पर जवाहरलाल जी बोले- ‘हां! हां! लेकिन मैं तैयार हूं और अगर जनरल सहमत हों, तो हम तत्काल ही चल चलें।’ मेरी मां ने मुझे बाद में बताया कि उन्होंने पंडितजी से दिन में कहा कि बेड रूम में अचानक पहुंचकर उन्होंने उन्हें शर्मिंदा कर दिया क्योंकि उस वक्त वह उचित ढंग के कपड़े नहीं पहने हुई थीं, तो उन्होंने कहा, चिंता न करो हमीदा (जवाहरलाल जी मेरी मां को उनके नाम से ही संबोधित करते थे), मैं नहीं देख रहा था!’
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यह महान पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ मेरी पहली और एकमात्र व्यक्तिगत मुलाकात थी। फिर भी, मैंने पंडित जी को बाद में कई अवसरों पर देखा। मैं जब दून स्कूल में छात्र था, तब फाउंडर्स डे पर आयोजित समारोह में वह मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे। अपने रिटायरमेंट के बाद भी मेरे पिताजी 1960 के दशक में वार्षिक आर्मी हाॅर्स शो में प्रमुख भागीदार और आयोजक रहते थे। ये शो लाल किले के सामने होते थे। इसमें कई दफा पंडित जी भी आते थे। मेरे पिताजी अपने समय में इस महाद्वीप के प्रमुख घुड़सवार थे और कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री के हाथों पुरस्कार ग्रहण किए। मेरे पिता एनडीए के सबसे लंबे समय तक कमांडेन्ट रहे। बाद में प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत हस्तक्षेप पर वह 1961 में रांची में हेवी इंजीनियरिंग काॅरपोरेशन के निदेशक नियुक्त किए गए। यह सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख कंपनी थी जो सोवियत संघ और चेकोस्लोवाकिया की साझेदारी से 1958 में स्थापित की गई थी। मेरे पिताजी भोपाल के बाहरी इलाके सेवनिया गोंड में रेस के घोड़ों की ब्रीडिंग के लिए घुड़साल स्थापित करने के लिए 1964 में रिटायर हो गए। यहीं हमने पंडित जवाहरलाल नेहरू के गुजरने की घोषणा सुनी। यह एक युग का अंत था लेकिन भारत के लिए नए काल का सवेरा था।
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