विचार

पुण्य तिथि विशेष: जब महात्मा गांधी ने कहा था मैं बच्चों की तरह नाचूंगा

महात्मा गांधी की धार्मिक सद्भावना और मज़हबी एकता पर सोच आज की परिस्थितियों में बहुत प्रासंगिक है। आज की विश्व स्तर की स्थितियों में इसकी उपयोगिता है और हमारे अपने देश कीस्थितियों में तो यह विशेष तौर पर महत्त्वपूर्ण है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

एक समय यह सोचा जाता था कि आर्थिक प्रगति के साथ-साथ धार्मिक कट्टरवादिता और सांप्रदायिकता की बांटने वाली सोच का महत्त्व कम होता जाएगा, लेकिन वास्तविक अनुभव में यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। ऊंची शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति और समाज भी इस विघटनकारी, हिंसा की ओर ले जाने वाली सोच से मुक्त नहीं हो सके हैं।

इस स्थिति में उन व्यक्तियों और उनके विचारों को याद रखना बहुत जरूरी है जिन्होंने जीवन भर विभिन्न धर्मों की एकता व भाई चारे को बहुत महत्त्व दिया। इस संदर्भ में महात्मा गांधी के विचार विशेष रूप से प्रेरणादायक हैं क्योंकि उन्होंने बहुत कठिन परिस्थितियों में विभिन्न धर्मों की एकता के अपने मूल विचार को कभी नहीं छोड़ा और इस आदर्श के लिए वे जीवन का बलिदान करने के लिए भी तैयार रहे।

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महात्मा गांधी ने कहा था - मेरी दृष्टि में विभिन्न धर्म एक बगीचे में खिले सुन्दर फूलों के समान या एक ही विशाल वृक्ष की अलग-अलग शाखाओं की तरह हैं। (10.1.1937- पृष्ठ 364, खंड-64, गांधी वाङमय)महात्मा गांधी के जीवन का यह सतत् प्रयास रहा कि सभी धर्मों की एकता और सद्भावना की राह को वह तलाशते रहें।

उन्होंने कहा - “मेरी यह दिली ख्वाहिश है कि इन्सान-इन्सान के बीच इस तरह का भाईचारा कायम हो जिसमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी सब एक समान शामिल हों, क्योंकि मुझे दुनिया के सब बड़े-बड़े मजहबों की बुनियादी सच्चाई में विश्वास है। मुझे यकीन है कि यह सब मजहब ईश्वर के दिए हुए हैं और उन लोगों के लिए जरूरी हैं जिन्हें ये ईश्वर से मिले। मुझे इस बात का भी यकीन है कि अगर हम अलग-अलग मजहबों के मानने वालों की निगाह से पढ़ें तो हमें पता चलेगा कि सब मजहबों की जड़ एक है।” (गांधी महात्मा समग्र चिंतन - डा. बी.एन.पांडे, पृष्ठ 132)

अगर आप ‘कुरान’ पढ़ें तो आपको उसे मुसलमानों की नजर से पढ़ना चाहिए, अगर ‘बाईबिल’ पढ़ें तो निश्चय ही ईसाई की दृष्टि से पढ़ें, और अगर ‘गीता’ पढ़ें तो हिंदू की आंखों से पढ़ें। बाल की खाल खींचने से और फिर किसी धर्म का उपहास करने से क्या प्रयोजन हो सकता है। (13.3.1937 - पृष्ठ 462-463, खंड 64, गांधी वाङमय)

हम में अपने ही धर्म की तरह दूसरों के धर्मों के प्रति भी सहज सम्मान का भाव होना चाहिए। ध्यान रखिए पारस्परिक सहिष्णुता नहीं, बल्कि बराबर सम्मान का भाव। (28.11.1936 - पृष्ठ 21-24, गांधी वाङमय-64)

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जनवरी 1948 में अपनी शहादत से कुछ ही दिन पहले एक उपवास के दौरान उन्होंने कहा था, “जब मैं नौजवान था और राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता था, तभी से मैं हिन्दू, मुसलमान, वगैरा के हृदयों की एकता का सपना देखता आया हूँ। मेरे जीवन के संध्याकाल में अपने उस स्वप्न को पूरे होते देख कर मैं छोटे बच्चों की तरह नाचूंगा। ... ऐसे स्वप्न की सिद्धि के लिए कौन अपना जीवन कुरबान करना पसंद नहीं करेगा? तभी हमें सच्चा स्वराज्य मिलेगा।” (पूर्णाहुति, खंड चार, पृष्ठ 322)

आजादी की लड़ाई के साथ-साथ कुछ तत्वों ने पाकिस्तान की मांग उठाई तो महात्मा गांधी ने इस मांग का पूरा विरोध करते हुए भी इस विरोध को मुस्लिम विरोधी नहीं बनने दिया अपितु उन्होंने इस्लाम धर्म के महान आदर्शों की याद दिलाते हुए कहा कि पाकिस्तान की मांग इन आदर्शों के अनुकूल नहीं है।

धर्म के संकीर्ण स्वार्थी ठेकेदारों ने विभिन्न धर्मों के लोगों को आपसी झगड़ों में उलझाया है और साथ ही गरीब लोगों के शोषण को समर्थन देने के लिए भी धर्म का इस्तेमाल करने का प्रयास किया। दूसरी ओर महात्मा गांधी ने जहां विभिन्न धर्मों की आपसी एकता और सम्मान पर जोर दिया, वहां साथ ही उन्होंने धर्म को गरीब लोगों की भलाई और उत्थान से जोड़ने का विशेष प्रयास किया।

महात्मा गांधी ने न केवल विभिन्न मजहबों की आपसी सहनशीलता के लिए ही अपितु आपसी सम्मान व प्रेम पर जोर दिया। यदि उनके आदर्श को अपनाया जाए तो इससे हमारी साझी संस्कृति, सामाजिक समरसता व राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलेगी।

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