मंडल मसीहा और ‘सामाजिक न्याय’ सिद्धांत पर आधारित पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति की नींव रखने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह से एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान मैंने पूछा, ‘आप इन दिनों लालू, मुलायम और माया से बिल्कुल नहीं मिलते-जुलते।’ उन्होंने छूटते ही कहा था, ‘क्या मिलें!’
वीपी सिंह का यह दो टूक उत्तर सुनकर हम दंग रह गए। अरे, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और मायावती ही तो उत्तर भारत में ‘सामाजिक न्याय’ के प्रतीक और पिछड़ों तथा दलितों के नेता थे। भला इस राजनीति के पहले स्तंभ स्वयं वीपी सिंह ही अपने चेलों से क्यों नाराज थे। हमने तुरंत उनसे प्रश्न किया, ‘आपको अपने चेलों से मेल-जोल में क्या आपत्ति!’
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यह सुनना था कि वीपी सिंह का संयम टूट गया। वह कोई दस मिनट तक लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ अपने दिल का गुबार निकालते रहे। उन्होंने किसी का नाम तो नहीं लिया परंतु उनकी उस बातचीत का सार यह था : ‘इन लोगों (लालू, मुलायम और मायावती) ने सामाजिक न्याय की राजनीति को जातीय राजनीति का स्वरूप दे दिया। वह (वीपी सिंह) जिस उद्देश्य के लिए खड़े ह़ुए थे उस उद्देश्य को इन क्षेत्रीय नेताओं ने किनारे कर जाति के आधार पर सत्ता की राजनीति प्रारंभ कर दी। ऐसे में लालू, मुलायम और माया जैसों से मेल-जोल का कोई अर्थ नहीं बचा।’
वीपी सिंह के इस कथन के पीछे एक अत्यन्त रोचक कहानी है, कदापि जिस पर अब चर्चा का समय आ गया है। चलिए, पहले चलते हैं मायावती जी के द्वार। इन दिनों दलितों की नेता मायावती चर्चा में हैं। इसलिए नहीं कि उनको बीजेपी की ‘मनुवादी’ राजनीति की चिंता है। इसलिए भी नहीं कि लॉकडाउन से परेशान लाखों दलित मजदूर भूखे-प्यासे सड़कों पर चल रहे हैं। उनकी चिंता तो यह है कि उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के कार्यों के कारण उनके पैरों तले जमीन खिसक रही है।
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इसलिए वह इन दिनों केवल कांग्रेस विरोधी भाषा के अलावा कुछ और नहीं बोलती हैं। बल्कि यह कहिए कि गोदी मीडिया के समान मायावती भी इस समय बीजेपी की गोद में बैठी हैं तो कोई बहुत अतिशयोक्ति नहीं होगी। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलकों में तो यह भी चर्चा है कि वह शायद अगला चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर ल़ड़ें या फिर बीजेपी की ‘बी टीम’ के तौर पर लड़ें।
‘मनुवाद’ विरोधी ‘सामाजिक न्याय’ का परचम बुलंद करने वाली इस नेता के लिए सत्ता की खातिर बीजेपी से हाथ मिलाना कोई बड़ी बात नहीं है। वह पहले भी ऐसा कर चुकी हैं। बात यह है कि मायावती और बहुजन समाज पार्टी जो कभी सवर्ण जातियों के विरोध में खुली जातीय राजनीति करती थीं, अब उन्हीं मायावती के लिए बीजेपी से खुलकर या पीठ पीछे हाथ मिला लेना कोई बड़ी बात नहीं है।
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कांशीराम के जीवन में ही उत्तर प्रदेश में पहली बीएसपी सरकार को बीजेपी सहित लगभग तमाम विपक्ष का समर्थन हासिल था। बस उसी समय से बीएसपी और उसकी नेता का ‘सामाजिक न्याय’ से रिश्ता टूट गया और वह खुलकर केवल सत्ता की प्राप्ति के लिए जातीय आधार अपना कर वोट बैंक की राजनीति करने लगीं। दलितों में जाटव जाति उनका वोट बैंक हो गई। बाकी दलित और पिछड़ी जातियों में टिकट बेचकर और बीजेपी से डरे मुसलमानों का वोट लेकर मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में लगभग तीन दशकों तक चमकती रहीं।
उनकी इस राजनीति में ‘सामाजिक न्याय’ मात्र एक नारा भर ही था जिसमें अवसरवाद का खुला तड़का था। अब मायावती की अवसरवादी राजनीति से लोगों का मोहभंग हो रहा है और उनके मतदाताओं को ‘सामाजिक न्याय’ के ढोंग के परे भी दिखाई पड़ रहा है। अतः हैरान-परेशान मायावती उत्तर प्रदेश में उठती हुई कांग्रेस से परेशान होकर बीजेपी से खुलकर या पीठ पीछे हाथ मिलाने को तैयार हैं।
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कुछ यही स्थिति ‘पिछड़ों के मसीहा’ मुलायम सिंह यादव और उनके सुपुुत्र अखिलेश यादव की है। वीपी सिंह के कंधों पर सवार होकर सन 1989 में मुलायम सिंह के हाथों में सत्ता क्या आई कि उन्होंने जल्दी ही अपने नेता वीपी सिंह से दामन छुड़ाकर घोर जातिवाद और अवसरवाद का रास्ता पकड़ लिया। वीपी सिंह की केंद्र की सरकार गिरते ही मुलायम सिंह ने यह ऐलान कर दिया कि सामाजिक न्याय की राजनीति से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। फिर मुलायम सिंह ने तुरंत पिछड़ों और मुस्लिम हित के नेता का रूप लिया।
मुलायम सिंह की प्रारंभिक राजनीति में यादवों के अतिरिक्त दूसरी पिछड़ी जातियों का भी गठबंधन दिखता है। बाबरी मस्जिद प्रकरण में कारसेवकों पर गोली चलवाकर वह उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक जीत ही चुके थे। इस प्रकार वह सामाजिक न्याय की कोख से जन्मे उत्तर प्रदेश की राजनीति का मुख्य स्तंभ बन बैठे। परंतु मुलायम सिंह का उद्देश्य तो सत्ता की राजनीति ही था। जब सत्ता के मजे मिले तो पहले अमर सिंह की आवश्यकता पड़ी। फिर स्वयं अपने परिवार की ओर झुकाव आरंभ हो गया।
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पिछड़ों में यादवों के अतिरिक्त ‘दूसरे पिछड़े’ अब मुलायम से पिछड़ने लगे और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का सीधा ‘एम-वाई’ गठबंधन मजबूत हो गया। अब यादव-मुस्लिम मुलायम सिंह का ‘कोर वोटर’ था और सत्ता मैनेजमेंट के लिए भाई, बेटे, दूसरी पत्नी, भतीजे, भांजों का डंका बज रहा था। अंततः पिछड़ों के मसीहा ने अपने बेटे अखिलेश यादव को सिंहासन सौंपकर पिछड़ों की राजनीति में परिवारवाद की नींव भी रख दी।
खुली जातीवाद और परिवारवाद की राजनीति में किसी सामाजिक न्याय की आशा हो ही नहीं सकती थी। स्पष्ट था कि इस अवसरवादी और सत्ता की राजनीति का समय आना ही था। यही कारण है कि अब अखिलेश यादव नरेंद्र मोदी से डरे-सहमे अपने पैरों के नीचे से खिसकती जमीन देख रहे हैं। इस प्रकार यादवों के मसीहा मुलायम और उनके सपुुत्र अखिलेश का खेमा भी यूपी में उखड़ता जा रहा है।
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अब बचे लालू प्रसाद जी, जो वीपी सिंह के पश्चात सामाजिक न्याय का परचम बुलंद कर बिहार ही नहीं लगभग सारे उत्तर भारत में गरीबों की उम्मीद बनकर उभरे थे। इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी की सवर्णों के हित की राजनीति को बिहार और सिद्धांतों के स्तर पर बिहार के बाहर भी लालू प्रसाद ने जैसी टक्कर दी वैसी टक्कर कोई और नेता बीजेपी को नहीं दे सका।
लालू प्रसाद यादव का दूसरा कमाल यह था कि संघ और बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ वह सदा एक दीवार बनकर खड़े रहे। लालू यादव को इसकी सजा भी भोगनी पड़ी और अब वह सवर्ण विरोधी राजनीति करने की सजा जेल की सलाखों के पीछे भोग रहे हैं। चारा घोटाला तो एक बहाना है, दरअसल संघ को तो लालू को उनकी सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति करने पर ऐसी कड़ी सजा देनी थी कि वह दूसरों के लिए एक मिसाल बन जाए।
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परंतु ‘सामाजिक न्याय’ के प्रतीक लालू प्रसाद की राजनीति में भी जल्द ही एक झोल आ गया था। उन्होंने भी मुलायम सिंह के समान ‘एम-वाई’ समीकरण को सदा के लिए एक अजेय गठजोड़ समझ कर बिहार की दूसरी पिछड़ी जातियों को किनारे करना प्रारंभ कर दिया। लालू विरोधी ताकतों ने तुरंत नीतीश को आगे करके ‘अति पिछड़ों’ की नई राजनीति आरंभ कर दी। अब बिहार में नीतीश के नेतृत्व में ‘एम-वाई’ गठजोड़ के विरूद्ध अति पिछड़ों और सवर्णों का गठजोड़ आरंभ हो गया जो व्यवस्था के सहारे लालू को सत्ता से उखाड़ फेंकने में सफल हो गया और आज तक सफल है।
लालू यादव का ‘एम-वाई’ फॉर्मूला नाकाम होने लगा तो घबराए लालू प्रसाद ने भी मुलायम सिंह के समान परिवारवाद का सहारा लिया। पहले पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। फिर बेटों-बेटी के हाथों पार्टी की कमान थमाकर जेल में बैठ गए। अब ‘एम-वाई’ गठबंधन भी टूट रहा है। इस प्रकार लालू प्रसाद की राजनीति भी जो पहले पिछड़ों, दलितों और मुस्लिम गठजोड़ से थी, वह यादव समाज तक सिमट गई। फिर यादव भी किनारे होने लगे और अब केवल परिवार ही परिवार दिखता है। अर्थात लालू प्रसाद की शुरुआती राजनीति भी अतंतः बदलकर जातिवाद और परिवारवाद के दायरे में सिमट गई।
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वीपी सिंह ने समझ लिया था कि सामाजिक न्याय का रास्ता छोड़कर घोर जातिवादी और परिवारवाद की राजनीति पर चलने का लंबे समय तक भविष्य नहीं हो सकता है। और 2014 से 2019 के बीच यह हुआ भी। मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद के कमजोर पड़ने से जो वैक्यूम उत्पन्न हुआ नरेंद्र मोदी ने उसे सफलतापूर्वक हिंदुत्व की राजनीति से भर दिया। आज सारे देश में मोदी और हिंदुत्व का डंका बज रहा है और मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की अवसरवादी राजनीति सिमटती जा रही है।
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