संभव है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहावत न मालूम हो कि राजनीति हंगामा खड़ा करने, हर जगह ऐसा अवसर तलाशने, समस्या की गलत पहचान करने और, उससे भी अधिक, उसका गलत उपचार करने की कला है। लेकिन वह और उनकी सरकार किसानों के आंदोलन के साथ जिस तरह निबटने की कोशिश कर रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है। प्रधानमंत्री शायद यह भी समझते नहीं लगते हैं कि ‘कमिटी’ कुछ लोगों का ऐसा समूह होता है जो न हो, तो उसमें शामिल कोई व्यक्ति अकेला कुछ नहीं कर सकता। लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लोग समूह के तौर पर मिल- जुल सकते हैं और अंततः फैसला ले सकते हैं कि कुछ भी नहीं हो सकता है। और अपने यहां तो ऐसी समितियों की लंबी परंपरा और इतिहास है जिनसे अंततः कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
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किसी समस्या से निकल लेने, उसे लटकाए रखने या समाधान को ही लंबा खींचने के लिए एक समिति या आयोग बना देना सरकार का मनपसंद फॉर्मूला रहा है। इस अर्थ में किसान संगठन कुशल हैं जिन्होंने कृषि कानूनों को लेकर उठाए जा रहे मुद्दों पर विचार के लिए समिति बनाने के सरकार के प्रस्ताव को शुरू में ही ठुकरा दिया। किसान चाहते हैं कि कृषि कानून पूरी तरह वापस लिए जाएं, उनमें सुधार या संशोधन की जरूरत की बात ही नहीं है। पर वे इस बात को विस्तार से बताने के लिए हर वक्त तैयार हैं कि इन कानूनों की वापसी क्यों जरूरी है। सरकार चाहे तो सरकार और किसानों के बीच इन कानूनों को लेकर होने वाली बातचीत का टीवीचैनलों पर लाइव प्रसारण भी करा सकती है ताकि पूरा देश जान सके कि इस मुद्दे पर किसानों और सरकार की राय क्या-क्या और किस-किस तरह है।
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अगर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और राजधानी दिल्ली में नए संसद भवन निर्माण के भूमि पूजन को टीवी चैनल लाइव दिखा सकते हैं, तो ऐसे मुद्दे पर लाइव बातचीत को दिखाए जाने में क्या दिक्कत है जिससे देश की बड़ी आबादी जुड़ी हुई है, 22 दिनों के प्रदर्शन में करनाल के 65 वर्षीय गुरुद्वारा प्रमुख बाबा राम सिंह को आत्महत्या करनी पड़ी है और कम-से-कम 22 किसानों की ठंड और अन्य कारणों से अब तक मौत हो चुकी है। लेकिन सरकार अपने निर्णय को लेकर इतनी अडिग है कि वह पिछले छह महीने से इस बारे में किसानों की बातों को सुनने से भी हर तरह से कतराती रही है। सरकार ने संसद से जिस तरह ये कानून पारित करवाए, उसे सबने देखा ही। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने दिसंबर में कई मर्तबा कहा कि आंदोलनकारी किसानों को विपक्ष भ्रमित कर रहा है। दो-चार कदम आगे बढ़कर उनके मंत्री इन किसानों को आंदोलन करने के लिए माओवादी, अलगाववादी, कम्युनिस्ट, कांग्रेसी, आतंकवादी, खालिस्तानी और यहां तक कि पाकिस्तान-परस्त तक कह चुके हैं। जब रवैया इस किस्म का हो, तो बातचीत की गुंजाइश ही कहां बचती है।
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इस गतिरोध को तोड़ने के खयाल से देश के प्रधान न्यायाधीश ने भी दिसंबर के दूसरे सप्ताह में कोर्ट की देखरेख में कमिटी बनाने का प्रस्ताव दिया। दूसरे दिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इन कानूनों की वैधता को लेकर तो वह बाद में फैसला करेगी लेकिन इतना तो है ही कि किसानों को प्रदर्शन करने का अधिकार है। वैसे, जहां तक समिति का सवाल है, अयोध्या में राम मंदिर के सवाल पर भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह की समिति का गठन किया था। उससे क्या कुछ हासिल हो पाया, वह सबके सामने है। अब इस मसले पर भी समिति बनाने से क्या कुछ हासिल होगा, कहना मुश्किल ही है। जहां तक रास्ता रोके जाने की बात तो है, तो वह किसानों ने नहीं रोक रखा है- यह काम तो हरियाणा और दिल्ली की पुलिस ने बैरिकेड लगाकर किया है।
दरअसल, सवाल बड़े हैं। कोर्ट के सामने दो मुद्दे हैं- एक, क्या कृषि कानून राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर संविधान और संघीय व्यवस्था का अतिक्रमण करने वाले हैं; और दो, क्या सरकार जोर-जबर्दस्ती कर देश की राजधानी में शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार को समाप्त कर सकती है। अब, इन मसलों पर तो कोई समिति कुछ नहीं कर सकती।
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इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में खेती-किसानी में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। किसानों को धान दस रुपये प्रति किलो की दर तक पर बेचना पड़ रहा है। अभी बिहार में एक किसान को एक रूपये की दर से गोभी बेचना पड़ा है। इसकी खबर और वीडियो भी वायरल हुई कि इस रेट से दुखी किसान ने गोभी की लहलहाती फसल पर ट्रैक्टर ही चला दिया कि जब लागत भी नहीं निकलना है, तो इसे खेत से निकालना ही क्यों। लेकिन यह कोई अकेला किस्सा नहीं है। हर साल आलू, टमाटर, सभी किस्म की हरी सब्जी सड़क पर फेंक देने की खबरें यहां-वहां से आती ही रहती हैं।
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निजी सेक्टर और बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों का अब तक का जो ट्रैक रिकॉर्ड है, वह कहीं से भी प्रेरणा देने लायक नहीं है। यकीन दिलाने के खयाल से न तो वे सक्षम हैं और न उनकी नीति ऐसी है। आम तौर पर, सरकार उनकी मदद करती रही है और नीतियों में ऐसे संशोधन करती रही है जिसका फायदा उन्हें हो। यह सरकार वैसे भी दो लोगों वाली मानी जा रही है जो सिर्फ दो पूंजीपतियों को मदद करने वाली है। ऐसे में, किसान उस पर यकीन करें भी तो कैसे? इस आशंका को हलके में लिया भी नहीं जा सकता।
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