संविधान की प्रस्तावना एक शुरुआती वक्तव्य और संविधान का एक संक्षिप्त परिचय है। प्रस्तावना से हमें पता चलता है कि आखिर संविधान का उद्देश्य क्या है और इसके जरिए बनाए गए कानून से हम क्या हासिल करना चाहते हैं। भारत का संविधान कहता है कि भारत के लोग (सरकार नहीं) यह प्रण लेते हैं कि भारत को एक लोकतांत्रिक देश बनाएंगे जो अपने सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देगा। हम विचारों, धर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चि करेंगे। हम सभी को बराबरी का स्थान और अवसर देंगे। लेकिन हमने इस सबको अनदेखा कर दिया है, और इतिहास में शायद ही हमने इन सारी स्वतंत्रताओं का आनंद लिया है। लेकिन प्रस्तावना की आखिर पंक्ति है जिसे आज देखने की जरूरत है। इसमें कहा गया है कि भारत के लोग खुद को बंधुत्व से बांधेगे।
आखिर यह बंधुत्व क्या है? दरअसल इसका अर्थ है किसी ऐसे के बारे में दया और करुणा का विचार रखना जो आप जैसा नहीं है। इसके लिए हमें सरकार की जरूरत नहीं है। भारतीय समुदायों में विश्वास करने वाले लोग हैं। हम अपने समुदाय में ही शादी करते हैं, हम अपने लोगों को बीच सहज रहते हैं और ज्यादातर बार हम अपने ही समुदाय को वोट देते हैं। लेकिन बंधुत्व तो हर उस व्यक्ति के बारे में करुणा से सोचने का नाम है जो आपसे भिन्न समुदाय का हो या जिसकी आर्थिक स्थिति आपसे अलग हो। क्या हम संविधान की प्रस्तावना के इस शब्द को साकार कर रहे हैं? नहीं...हम किसी भी किस्म के बंधुत्व को बढ़ावा नहीं दे रहे।
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हाल का इतिहास बताता है कि हम न सिर्फ किसी समुदाय को बढ़ावा नहीं दे रहे बल्कि इसका उलटा कर रहे हैं। लॉकडाउन से पहले, कोविड नियम लागू होने से पहले, और कोविड मामलों की संख्या 100 के आसपास होने के समय जब क समुदाय ने एक धार्मित सम्मेलन किया तो उन्हें कोरोन आतंकी या कोरोना जिहादी कह दिया गया। लेकिन जब दूसरे समुदाय ने उस समय मानव इतिहास का सबसे बड़ा जन समूह इकट्ठा किया जब हर रोज एक लाक से ज्यादा कोविड केस सामने थे तो कोई आलोचना नहीं हुई, और यह सब प्रधानमंत्री के निमंत्रण पर हुआ। क्या हम सामाजिक बंधुत्व को बढ़ावा दे रहे थे।
हमारे देश में हर साल सैकड़ों लोगों की जान सिर पर मैला ढोने वालों की होती है, जिनमें आमतौर पर दलित महिलाएं होती है तो हमारे शौचालय साफ अपने हाथ से साफ करती हैं। सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी है, लेकिन यह प्रथा आज भी जारी है। सेप्टिक टैंक और नालियों को दलित पुरुषों से साफ कराया जाता है, जिनमें से बहुत से लोगों की जान इनसे निकलने वाली गैसों में घुटकर हो जाती है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर ऐसा हो रहा है क्योंकि किसी को फर्क ही नहीं पड़ता। क्या हम जातीय बंधुत्व को बढ़ावा दे रहे हैं।
देश की मौजूदा सरकार ने कोरोना वैक्सीन उन लोगों को शुरु की है जो निजी अस्पतालों में जाकर 1200 प्रति डोज की कोवैक्सिन लगवा सकते हैं। इसके बाद 6 सप्ता में आपको फिर 1200 रुपए में दूसरी डोज लेनी है। आखिर देश में ऐसे कितने परिवार होंगे जो सिर्फ वैक्सीन के लिए 12000 रुपए खर्च सकते हैं, जिसका असर सिर्फ एक साल तक ही रहना है। गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। केंद्र ने राज्यों को कहा है कि उन्हें भी वैक्सीन लगाई जाए, लेकिन इसके लिए न तो राज्यों को पैसा दिया गया न वैक्सीन। जिन लोगों ने इस मामले में शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट मे हुई सुनवाई पर ध्यान दिया होगा उन्हें पता है कि कोर्ट ने कुछ ऐसी चीज की तरफ ध्यान आकर्षित किया है जिसकी सफाई सरकार के पास नहीं है। कोर्ट ने साफ पूछा कि आखिर वैक्सीन के हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग दाम क्यों हैं? क्या यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह सबको वैक्सीन मुहैया कराए? हां है तो, लेकिन सरकार तो आर्थिक बंधुत्व में विश्वास ही नहीं रखती। भारत में अगर आपके पास पैसा है तो आपको वैक्सीन मिल जाएगी और इस फर्क को आपको मानना ही पड़ेगा। हम आर्थिक बंधुत्व को भी बढ़ावा नहीं दे रहे।
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2014 के बाद से 28000 से ज्यादा करोड़पति (ऐसे लोग जिनके पास 7.5 करोड़ या उससे अधिक की संपत्ति है) ने भारत को छोड़ दिया और दूसरे देशों के नागरिक बन गए। हमें इससे हैरान नहीं होना चाहिए। हम दरअसल एक ऐसे रास्ते पर हैं जिसमें आशावाद खत्म हो तुका है। आज हम ऐसे कानून पर वोटिंग की मांग कर रहे हैं जिसमें लोगों को धर्म के आधार पर सिस्टम से बाहर कर दिया जाए। हम आज हम पुरातत्व निर्माणों के ध्वंस पर जश्न मना रहे हैं और उनक जगह मंदिर बना रहे हैं। आज हम 20,000 करोड़ क लागत से नई इमारत बना रहे हैं जिसमें प्रधानमंत्री के लिए नया घर होगा, जबकि करोड़ो लोगों के पास अपने और अपने बच्चों लिए वैक्सीन खरीदने के पैसे नहीं हैं।
हम एक राष्ट्रीय पद से घिरे हुए हैं जो अभूतपूर्व है। हम आजाद भारत में इतने बड़े पैमाने पर कभी किसी वायरस से प्रभावित नहीं हुए जिसने सभी को बराबरी से परेशान किया है लेकिन जान सिर्फ उनकी गई है जिन्हें ऑक्सीजन या वेंटिलेटर या अस्पताल का बिस्तर नसीब नहीं हुआ। बेंग्लोर में मेरे एक साथी की हाल ही में नौकरी चली गई थी लेकिन उसे कोरोना संक्रमित अपनी पत्नी और बच्चे के इलाद के लिए 22000 हजार रुपए रोज खर्च करने पड़े। लेकिन वह अपने परिवार के लिए खुशकिस्मत था कि वह देखभाल करने वाला था। लेकिन ज्यादातर भारतीयों के लिए ऐसा करना संभव ही नहीं है। वे घरों में मर रहे हैं क्योंकि मीडिया में जो खबरें आ रही हैं वे अलग हैं और श्मशानों में जो चिताएं जल रही हैं उनकी संख्या कुछ और बताती है। बहुत से लोग बिना किसी इलाज के ही मर रहे हैं।
यह बंधुत्व तो नहीं ही है, बल्कि यह बंधुत्व शब्द की सीधे सीधे उल्लंघन है। जो हम जैसे नहीं हैं उनके लिए हमारे मन में करुणा ख्तम हो गई है, और हम क्या खो रहे हैं हमें पता भी नहीं। हमारा संविधान हमें बताता है कि हमें बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे को समझना है, उनकी मदद करनी है। लेकिन हकीकत तो यह है कि हमें यह तक नहीं पता कि हमें ऐसा करना चाहिए।
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