हमारे आबाई शहर इलाहाबाद में 1970 के दशक में हिंदू महासभा के एक नेता माना गुरु हुआ करते थे। यूं तो उनकी गिनती छोटे-मोटे नेताओं में होती थी लेकिन वह विधानसभा का हर चुनाव जरूर लड़ते थे। माना गुरु के जीतने का तो कभी प्रश्न ही नहीं उठा अपितु उनकी जमानत जरूर जब्त होती थी। लेकिन उनके भाषण पर जनता मजा लेने के लिए अक्सर इकट्ठा हो जाती थी। हिंदू महासभा के प्रत्याशी होने के कारण ‘गुरु’ के भाषणों का मुख्य बिंदु मुसलमान और पाकिस्तान ही होता था। उनके हर भाषण का अंत एक ही वाक्य से होता था जो गुरु बहुत नाटकीय अंदाज में बोलते थे। वह बहुत ही फिल्मी डायलॉग के अंदाज में कहते थेः ‘ऐ मुसलमानों उठाओ अपना पानदान, खानदान, उगालदान और चले जाओ पाकिस्तान।’ लोग उनके इस वाक्य पर मजा लेते और भाषण समाप्त होने के बाद यह भी भूल जाते कि माना गुरु चुनाव भी लड़ रहे हैं।
लेकिन 1970 के दशक से सन 2020 तक भारतीय राजनीति में बड़ी क्रांति आ चुकी है। यदि वही माना गुरु आज जीवित होते तो कदापि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हो सकते थे। क्योंकि अब सारे देश का चुनाव केवल देश के मुसलमानों और पाकिस्तान के नाम पर ही लड़ा जाता है और जीता भी जाता है। भारतीय जनता पार्टी के पास केवल एक ही चुनावी नुस्खा है, जिसे वह हर चुनाव में भुनाती है। वह नुस्खा है भारतीय मुस्लिम और पाकिस्तान कैसे देश और हिंदू समाज के लिए खतरा बन गए हैं और नरेंद्र मोदी इस खतरे से कैसे निपट सकते हैं। ‘इनको’ (मुसलमान और पाकिस्तान) मोदी जी ही ‘ठीक’ कर सकते हैं कि इस छवि पर मोदी देश का चुनाव भी जीत लेते हैं। अब क्या कीजिए कि देश की राजनीति भी माना गुरु के स्तर पर आ गई है। जो लोग पहले नगरपालिका और पंचायत का भी चुनाव नहीं जीत सकते थे, वे अब देश का चुनाव जीत रहे हैं।
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परंतु जो नुस्खा किसी राजनीतिक दल को चुनाव जिता दे, वह दल जाहिर है कि उसी नुस्खे को हर चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश करता ही है। यही कारण है कि जैसे-जैसे दिल्ली विधानसभा का चुनाव नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे इस महानगरी का चुनावी स्तर माना गुरु के निम्न स्तर को छू रहा है। जरा सोचिए एक केंद्रीय मंत्री अपने भाषण में फरमाते हैंः ‘देश के गद्दारों को’ और नीचे से जनता नारा लगाती है- ‘गोली मारो सालों को।’ और तो और माननीय गृहमंत्री अमित शाह पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए फरमाते हैंः ‘इतनी कस के फूल का बटन दबाओ कि करंट शाहीन बाग को लगे।’
जी हां, दिल्ली विधानसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बीजेपी की ओर से अब शाहीन बाग हो चुका है। शाहीन बाग क्यों? शाहीन बाग दिल्ली के ओखला इलाके की एक कॉलोनी है जहां मुख्यतः मुस्लिम आबादी बसती है। इन दिनों शाहीन बाग की मुस्लिम औरतें संशोधित नागरिकता कानून और एनपीआर/ एनआरसी के खिलाफ धरने पर बैठी हैं। शाहीन बाग अब सारे देश का एक मॉडल बनता जा रहा है। देश भर के न जाने कितने शहरों में ऐसे धरने हो रहे हैं। बीजेपी के लिए घबराहट की बात यह है कि इन धरनों और प्रदर्शनों में हिंदुत्व विचारधारा विरोधी देश के हर धर्म तथा जाति के लोग मुसलमानों के साथ शामिल हो रहे हैं। इस प्रकार शाहीनबाग अब हिंदुत्व विरोधी राजनीति का एक प्रतीक बन चुका है।
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इस बात से बीजेपी विचलित है क्योंकि राममंदिर-बाबरी मस्जिद समस्या के समय से बीजेपी ने देश की राजनीति में जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण किया है, अगर शाहीन बाग से उत्पन्न राजनीति से उस ध्रुवीकरण को ठेस लग गई तो बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति खतरे में पड़ जाएगी। यही कारण है कि दिल्ली के चुनाव में बीजेपी माना गुरु के निम्न स्तर पर गिरकर चुनावी प्रचार कर यहां हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने की भरपूर कोशिश कर रही है।
परंतु केवल एकमात्र यही कारण नहीं है कि बीजेपी के पास ध्रुवीकरण की राजनीति के नुस्खे के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। यह तो बीजेपी की समस्या है ही। लेकिन अब बीजेपी अपने द्वारा ही उत्पन्न ऐसी भीषण समस्या में घिर चुकी है कि उसके पास भटकाव की राजनीति के सिवा कोई उपाय ही नहीं बचा है। वह समस्या है चरमराती भारतीय अर्थव्यवस्था। आप सब जानते ही नहीं, अपितु अब यह महसूस भी कर रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था अब लगभग रसातल तक पहुंच चुकी है। देश भीषण आर्थिक संकट से जूझ रहा है।
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अब आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकार अपना खर्च चलाने के लिए कभी एयर इंडिया, तो कभी रेलवे और कभी बंदरगाहों जैसी सरकारी संपत्तियां बेच रही है। देश का हाल 1950 के दशक के उन राजाओं, जमींदारों और नवाबों के जैसा हो चुका है जो घर का खर्च चलाने के लिए अपने बाप-दादाओं की संपत्ति बेच रहे थे। डर तो यह है कि कल को सरकार वेतन बांट पाएगी या नहीं। लोगों का तो अब बैंकों पर से भी विश्वास खत्म होता जा रहा है।
ऐसी आर्थिक दुर्दशा में भला रोजगार कहां से आए और बाजार में बिक्री कैसे हो? तभी तो बेरोजगारी और मंदी का बाजार गर्म है। फिर खेती का जो हाल है वह रोज की किसान आत्महत्याओं से स्पष्ट है। भला ऐसी आर्थिक दुर्दशा में एक सत्ताधारी पार्टी चुनाव जीतने की आशा कैसे कर सकती है। ऐसी भीषण समस्या में घिरी बीजेपी के पास ध्रुवीकरण की राजनीति के अतिरिक्त और बचा ही क्या है।
एक और भीषण समस्या है जो बीजेपी के लिए संकट पैदा कर रही है। दुनिया भर का झूठ-सच बोलकर मोदी जी बीजेपी के चुनावी संकट मोचक बन गए थे। जनता को मोदी के भाषणों और उनके वादों पर विश्वास था। लेकिन पिछले छह वर्षों में मोदी द्वारा किया गया एक भी वादा पूरा नहीं हुआ है। ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे पर विश्वास करने वाली जनता को अब यह समझ में आ रहा है कि समाज में तो विभाजन हो ही रहा है, साथ में दो चार पूंजीपतियों के अतिरिक्त किसी का विकास भी नहीं हो रहा है।
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ऐसी स्थिति में यदि मोदी की छवि बिगड़ी तो फिर बीजेपी चुनाव कैसे जीतेगी। जनता का तजुर्बा तो यह बता रहा है कि मोदी खोटा सिक्का निकले। अतः बीजेपी को किसी प्रकार अब ध्रुवीकरण की राजनीति कर जनता को असल मुद्दों से भ्रमित कर भटकावे की ही राजनीति करनी है। तब ही तो डूबते को तिनके के सहारे के समान डूबती बीजेपी के हाथ दिल्ली का शाहीन बाग आ गया है। उसको पाकिस्तान की छवि देकर घबराई बीजेपी दिल्ली का चुनाव जीतने का अंतिम प्रयास कर रही है।
यह विपक्ष के लिए एक चुनौती है। दिल्ली में विपक्ष को ऐसी रणनीति अपनानी होगी जिससे बीजेपी शाहीन बाग के नाम पर ध्रुवीकरण की राजनीति उत्पन्न करने में सफल न हो। इसका एक उपाय तो यह है कि विपक्ष बीजेपी के बिछाए जाल में फंसने के बजाए बिजली, पानी और सड़क जैसी जनता की समस्याओं तथा बीजेपी द्वारा उत्पन्न आर्थिक संकट जैसे मुद्दों पर ही चुनाव लड़े। इसी के साथ-साथ शाहीन बाग में आंदोलन कर रही जनता को भी यह ध्यान रखना होगा कि उनकी ओर से कोई ऐसी बात न हो जिसका लाभ बीजेपी उठा सके। दिल्ली चुनाव में बीजेपी की हार देश की राजनीति में एक बड़ा मोड़ ला सकती है। जैसे भी हो इस चुनाव को ध्रुवीकरण से बचाकर देश को पुनः एक सकारात्मक दिशा देने की चेष्टा करनी होगी।
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