प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए साल के पहले दिन एक न्यूज एजेंसी को दिए इंटरव्यू में उस वक्त यह बात मान ली कि सत्ता के साढ़े चार साल में उनकी सरकार किसानों की समस्या खत्म करने में नाकाम रही है। उन्होंने खुद ही कहा कि ज्यादातर किसान किसी महाजन या बनिए से कर्ज लेते हैं।
दरअसल उनका इशारा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरफ था जहां हाल ही के विधानसभा चुनावों मे उनकी पार्टी बीजेपी को मात मिली है। इनमें से दो राज्यों में तो उनकी 15 साल से सरकार थी। अगर प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि ज्यादातर किसान महाजन से कर्ज ले रहे हैं तो वे यह भी मान रहे हैं कि बैंकिंग सेवाओं को जन-जन तक पहुंताने का उनका दावा झूठा है।
अगर बिजनेस न्यूज देने वाले अखबारों और बैंकिंग विशेषज्ञों की मानें तो प्रधानमंत्री तथ्यात्मक रूप से गलत ही साबित होते हैं क्योंकि ज्यादातर किसानों के कर्ज बैंकों से ही लिए हुए हैं। ऐसी ही एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में करीब 4.2 लाख करोड़ का कृषि कर्ज है और करीब 1.2 लाख करोड़ का किसान कर्ज है। इसमें से 52 फीसदी कर्ज तो सरकारी बैंकों ने दिया है, 32 फीसदी सहकारी बैंकों और करीब 12 फीसदी प्राइवेट बैंकों ने दिया है।
दूसरे राज्यों में महाराष्ट्र जैसी स्थिति नहीं है। लेकिन, फिर भी इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की समझ पर सवाल खड़ा होता है कि इन आंकड़ों के बावजूद वे ज्यादातर किसानों के कर्ज महाजन या बनिए से लिए हुए बताते हैं।
दूसरी बात, अगर बड़े और मझोले किसान बैंकों से जुड़े हैं और छोटे और बेहद छोटे किसानों को अब भी कर्ज के लिए गांव के महाजन के सामने हाथ फैलाना पड़ता है तो इससे सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़ा होता है। इसका अर्थ तो यही निकला न कि सरकारी बैंक अभी भी गेश के ग्रामीण इलाकों में अपनी पैठ नहीं बना पाए हैं और किसानों को कर्ज देने से डरते हैं। इसी कारण छोटे किसानों के पास महाजन से मोटे ब्याज पर कर्ज लेने के सिवा दूसरा विकल्प ही नहीं है।
इसी तरह जनधन योदना और इस जैसे दूसरे दावे भी खोखले साबित हो रहे हैं।
यह किसी विपक्षी दल के आरोप नहीं हैं, बल्कि प्रधानमंत्री ने खुद ही देश-दुनिया में प्रसारित हुए अपने इंटरव्यू में इसे माना है। एक तरफ तो वे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों द्वारा किसान कर्ज माफी की घोषणाओं की आलोचना कर रहे हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि उनकी ही पार्टी की उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में सरकारों ने भी ऐसी ही घोषणाएं की थीं। सवाल है कि वे तब क्यों नहीं बोले ये सब?
इतना ही नहीं, जैसे ही कांग्रेस शासित तीन राज्यों ने किसानों कर्ज माफी का ऐलान किया, उसके फौरन बाद बीजेपी शासित असम और गुजरात सरकार ने भी किसानों के कर्ज और बिजली बिल माफ करने की घोषणा की। इसका वादा तो बीजेपी ने अपने चुनावी प्रचार में किया था। लेकिन इस पर प्रधानमंत्री चुप हैं।
होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को साफ बोल देना था कि वे कर्ज माफी की नीति के खिलाफ हैं। उन्हें इतनी हिम्मत दिखानी चाहिए थी कि कर्ज माफी की नीति देश के लिए हानिकारक है।
अब, जबकि पांच राज्य सरकारों (इनमें दो बीजेपी शासित हैं) ने कर्ज माफी का कदम उठा ही लिया है, तो अचानक प्रधानमंत्री की नींद टूटी है कि यह नीति तो सही नहीं है।
न तो कांग्रेस और न ही किसी अन्य विपक्ष दल ने, यहां तक कि किसानों के लिए संघर्ष करने वाले किसी संगठन ने भी ऐसा दावा नहीं किया है कि किसानों की कर्ज माफी कृषि संकट का दीर्घकालीन या स्थाई समाधान है। वे सब तो सिर्फ यही कह रहे हैं कि कर्ज माफी से उन किसानों को थोड़ी राहत मिल जाएगी जो बेशुमार दिक्कतों से दोचार हैं।
देश में इस बात पर भी एकमत है कि खेती-किसानी के लिए एक नई नीति-रणनीति की जरूरत है।
वैसे बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अंदरखाने यह बातें कर रहा है कि किसानों के मुद्दों को लोकसभा चुनाव से ऐन पहले बड़ा मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने बीजेपी के पैरों तले से जमीन खिसका दी है।
अब बीजेपी को इसका एहसास हो रहा है जिसके नतीजे में लोगों को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है। नतीजा यह है कि प्रधानमंत्री कर्ज माफी की आलोचना करते हैं और उनकी पार्टी की सरकारें किसानों के कर्ज माफ।
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