इस महीने हम गणतंत्र दिवस मनाएंगे जो कि स्वतंत्रता दिवस से एकदम अलग होता है। इस फर्क को न तो पूरी तरह समझा जा सकता है और न ही समझाया जा सकता है। 15 अगस्त को हम उस दिन कि खुशी मनाते हैं जिस दिन भारत बाहरी शासकों के चंगुल से आजाद हुआ था और हम इसे स्वतंत्रता का नाम देते हैं। वहीं 26 जनवरी को हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं, क्योंकि इस दिन हमने ऐसे कानून लागू किए जो भारत के लोगों को संप्रभु बनाते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि हम गणतंत्र दिवस को अपने सैन्य कौशल (हथियार और जवानों) के कौशल का प्रदर्शन करते हुए मनाते हैं। इस दिन हम सैन्य साजो-सामान और सैनिकों की परेड निकालते हैं। लेकिन क्या हमें इस बारे में उनसे नहीं पूछना चाहिए जो सेना का हिस्सा है और कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में तैनात हैं। आखिर उनके लिए इस उत्सव के क्या मायने हैं, और क्या वे इस प्रदर्शन को ही गणतंत्र का उत्सव मनाने का सही तरीका मानते हैं।
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दरअसल गणतंत्र किसी भी लोकतंत्र से अधिक अहम होता है। लोकतंत्र तो वह व्यवस्था है जिसमें बहुमत पाने वाले दल के प्रतिनिधियों के जरिए सरकार चलाई जाती है। इन प्रतिनिधियों को चुनने वाले वोटर गणतंत्र का एक हिस्सा हैं। बाकी दो पहलू गणतंत्र के ये हैं कि इससे नागरिकों को बुनियादी अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता मिलती है। ये दोनों पहलू अति आवश्यक हैं क्योंकि इनके बिना लोकतंत्र तो हो सकता है लेकिन गणतंत्र नहीं। आप एक ऐसा देश तो हो सकते हैं जहां चुनाव होता है और व्यस्कों को वोट देने का अधिकार होता है लेकिन इनमें से किसी भी अधिकार या स्वतंत्रता का अस्तित्व अर्थपूर्ण रूप से होता ही नहीं है। यह एक लोकतंत्र तो हो सकता है लेकिन गणतंत्र नहीं। अधिकार दरअसल लोगों के पास नहीं बल्कि सरकारों और उन्हें चलाने वालों के पास होते हैं।
इसे उदाहरण से समझें, तो भारतीयों को शांतिपूर्ण तरीके से सभा करने का अधिकार है। दरअसल यह एक बुनियादी अधिकार है, यानी ऐसा अधिकार जिसमें किसी किस्म का अतिक्रमण नहीं हो सकता। लेकिन क्या भारतीयों को शांतिपूर्ण सभा करने का सही मायने में अधिकार है? जवाब है नहीं। लोगों के पास इतना अधिकार भर है कि वे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के लिए पुलिस और अधिकारियों को अर्जी दें और इसकी अनुमति मांगें। अब इसके बाद सरकार के पास यह अधिकार है कि वह इसे मंजूर करे, खारिज करे या सिरे से इस पर कोई प्रतिक्रिया ही न दे। इसी तरह कुछ पाने का अधिकार भी अस्तित्व में नहीं है (सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि गाय का अधिकार कसाई से ज्यादा है), और न ही धर्म का अधिकार है जैसा कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हाल में बने कानून और कुछ पुराने अदालती फैसलों से सामने आता है। इसी तरह अभिव्यक्ति की आजादी को भी कानूनी तौर पर अपराध बना दिया है जिनमें राष्ट्रद्रोह, अवमानना और मानहानि जैसे कानून शामिल हैं।
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दरअसल संविधान में जिन बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता की बात की जाती है वह अपने मूल रूप में आज हैं ही नहीं। ऐसे यह कहना क्या सही होगा कि भारत एक लोकतंत्र तो है लेकिन क्या यह गणतंत्र भी है? वास्तविकता यह है कि आज नागरिकों के पास अधिकार नहीं हैं, वे सारे के सारे सरकार के पास हैं।
समय गुजरने के साथ ऐसा होता है। संविधान ने शुरात में भारतीयों को वह सभी अधिकार दिए जिनका जिक्र ऊपर किया गया है और ये कमोबेश असली रूप में ही नागरिकों को मिले रहे जैसा कि अमेरिका जैसे अन्य गणतांत्रिक देशों में होता है। इसक बाद संशोधनों का सिलसिला शुरु हुआ और हम ईमानदारी से कह सकते हैं कि बुनियादी अधिकार दरअसल अब बचे ही नहीं हैं। सरकारों ने लोगों से संप्रभुता छीन ली है। और ऐसा (जैसा कि बहुत से लोग जानते हैं) संविधान में लिखी गई टिप्पणियों के जरिए , जिसे संशोधनों का भाग 3 कहते हैं के जरिए की गई हैं, और जो बुनियादी अधिकारों का हिस्सा है। सी में बोलने की आजादी है भी, जिस पर लिखी टिप्पणी में कहा गया है कि सरकार को ऐसी बोलने की आजादी पर पाबंदी लगाने का अधिकार है जिससे देश की संप्रभुता और एकता को खतरा हो या देश की सुरक्षा और विदेशों के साथ रिश्तों, कानून व्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता और अदालत की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने का बोध होता हो।
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सवाल है कि आखिर कौन तय करेगा कि ये पाबंदियां कितनी तर्कसंगत हैं? सरकार !
वे लोग जिन्होंने संविधान सभा में खुद को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी दी थी, अब सरकार के मातहत हो चुके हैं।
दरअसल पाबंदियां इसलिए नहीं लगाई जाती हैं कि लोग ऐसा चाहते थे, बल्कि इसलिए लगाई जाती रही हैं ताकि लोगों को जरूरत से ज्यादा आजादी न मिले।
इसी तरह संविधान में की गई टिप्पणियों और उनकी व्याख्या से अधिकारों के असली अर्थ खत्म हो गए, इनमें जीवन का अधिकार और स्वतंत्रता भी शामिल है। भारत में सरकार किसी को भी बिना किसी अपराध के हुए ही जेल में डाल सकती है। इसे एहतियाती हिरासत कहा जाता है जो अनुच्छेद 21 और 22 में उद्धत एक टिप्पणी में है। ऐसे में उस सरकार और अंग्रेजों के ब्रिटिश राज के बीच क्या अंतर रह जाता है जो अपने ही नागरिकों पर ताकत का इस्तेमाल करना चाहती है।
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सवाल यह है कि आखिर इसका किया क्या जाए। समाधान यही है कि सरकार उस नुकसान को दुरुस्त करे जो सालों से हो रहा है।
अनुच्छेद 13 कहता है कि, “सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो नागरिकों के अधिकारों को खत्म करे और अगर ऐसा कोई कानून है तो उसे रद्द माना जाए।” साफ है कि सरकार नागरिकों को लेकर अति-प्रतिक्रियावादी होती जा रही है।
ऐसे में इस गणतंत्र दिवस हम संकल्प लें कि हम संविधान के उन हिस्सों को लागू करेंगे जो अस्तित्व में हैं और उनके जरिए अपने अधिकारों और स्वतंत्रता को सरकार से हासिल करें जो उसने हड़प लिए हैं। तभी हम सही मायनों में गणतंत्र दिवस मना पाएंगे।
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