विचार

आकार पटेल का लेख: सरकार के फैसले एक ही व्यक्ति ले तो मास्टर स्ट्रोक भी होते हैं नाकाम, बेकाबू महामारी है इसका परिणाम

महामारी जैसी समस्या से सिर्फ एक मास्टर स्ट्रोक से नहीं निपटा जा सकता। इसके लिए सरकार को ध्यान देना होता है कि आने वाले दिनों में हालात कैसे होंगे। लेकिन जहां फैसले चंद लोगों या सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा लिए जाते हों, उसके परिणाम हम देख रहे हैं।

फोटो : Getty Images
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युद्धों को इतिहास में फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी का नाम काफी प्रसिद्ध है, भले ही उनके नाम पर बहुत अधिक विजय दर्ज नहीं है। यहां तक कि उनका सबसे प्रसिद्ध युद्ध जिसे ऑपरेशन मार्केट गार्डन भी कहा जाता है (इसकी कहानी पर हॉलीवुड की फिल्म ए ब्रिज टू फार भी बनी थी), एक तरह से नाकाम ही साबित हुआ था। लेकिन इतिहासकार इस बात पर सहमत है कि मोंटगोमरी में कुछ ऐसा जरूर था जिसे सभी जनरलों को मानना चाहिए, और वह है पकड़ यानी ग्रिप। यह ऐसी खूबी है जो हालात को बेहतर तरीके से समझने, आपके पास इन हालात से निपटने के क्या संसाधन है उनका भरपूर ज्ञान होने और आने वाले वक्त में किन संसाधनों की जरूरत होगी उनको ध्यान में रखने और हालात क्या करवट ले सकते हैं, इसका अनुमान लगाने का कौशल है।

लेकिन इनमें से एक भी खूबी ऐसी नहीं है जिसे हम अपने प्रधानमंत्री के साथ जोड़ सकें। उनकी रूचि चीजों को गहराई से समझने के बजाए एक बड़ी योजना में रहती है। आपको याद होगा कि 2014 चुनाव से ठीक पहले मधु किश्वर के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “आज भी अगर मेरे अफसर मुझे कुछ दस्तावेज दिखाते हैं तो मैं यही कहता हूं कि इसमें क्या मुझे दो मिनट में बताओ, मेरे 10 पन्नों के दस्तावेज को समझने के लिए दो मिनट काफी है। यह कुछ ऐसी खूबी है जो मैंने खुद विकसित की है।”

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लेकिन चीजों को विस्तार से समझने में रुचि न होना एक बात है, उनकी प्राथमिकताएं किसी भी ऑपरेशन में किनारे खड़े रहने की नही है, बल्कि वे उसमें एक साहसी और काल्पनिक दखल देते हैं। मसलन बीबीसी ने इस साल मार्च के अंत में रिपोर्ट दी थी कि पिछले साल लगाए लॉकडाउन से पहले किसी भी मंत्रालय से कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया और न ही इसके परिणामों पर कोई चर्चा हुई।

बीबीसी ने इसके लिए सूचना के अधिकार के तहत विभिन्न मंत्रालयों में 240 अर्जियां दाखिल कीं। इनमें स्वास्थ्य, वित्त, आपदा प्रबंधन मंत्रालय भी शामिल हैं। मकसद था यह पता लगाना कि देश व्यापी लॉकडाउन से पहले क्या उन मंत्रालयों से कोई सलाह मशविरा हुआ था या नहीं। इन अर्जियों के जवाब से पता लगा कि न किसी विशेषज्ञ और न ही किसी विभाग से इस बारे में कोई चर्चा हुई। सरकार ने इस बारे में बयान देने से इनकार कर दिया कि क्यों इस बारे में मंत्रालयों और विभागों से चर्चा नहीं की गई।

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प्रधानमंत्री के काम करने के तौर-तरीके का एक और उदाहरण है नोटबंदी। इसमें भी सिवाय कुछ मुट्ठीभर लोगों को ही पता था कि क्या होने वाला है। संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाते भारत में सामूहिक जिम्मेदारी के नियम को माना जाता है। लेकिन जिस दिन नोटबंदी का ऐलान हुआ उस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल तक को इसकी भनक नहीं थी कि 8 नवंबर को 1000 और 500 रुपए के नोट यानी देश की 86 फीसदी मुद्दा चलने से बाहर हो जाएगी। मोदी के इस कदम के लिए सरकार न सिर्फ तैयार नहीं थी, बल्कि जानबूझकर इसे सरकारी तंत्र से छिपाकर रखा गया।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह तरीका सही है या गलत है या फिर इसके फायदे-नुकसान क्या हैं। इस बात के साफ सबूत हैं कि इस पर चर्चा करना ही बेकार है। मसला यह है कि क्या यह स्टाइल उन हालात में काम करता है जिनमें इन दिनों हम हैं। महामारी जैसी समस्या से सिर्फ एक मास्टर स्ट्रोक से नहीं निपटा जा सकता। इसके लिए सरकार को हालात की सही जानकारी होना जरूरी है, उसके पास क्या संसाधन है और आने वाले दिनों किन संसाधनों की जरूरत हो सकती है, उसका ऐहसास होना जरूरी और हालात क्या करवट ले सकते हैं उसपर दूरंदेशी से काम करना जरूरी है। लेकिन बेहद केंद्रीकृत व्यवस्था में जहां फैसले चंद लोगों और अधिकतर बार सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा लिए जाते हैं, ऐसा करना असंभव है और इसके परिणाम हम देख रहे हैं।

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ऑक्सीजन, वेंटिलेटर्स और वैक्सीन की कमी पर हमारी सरकार की प्रतिक्रिया से साफ है कि सरकार में किसी ने इस दिशा में कभी सोचा ही नहीं। जबकि हकीकत यह है कि पूरी दुनिया इस बारे में सोच रही थी। आज हमें विदेशों से मदद के नाम पर जो कुछ मिल रहा है वह ऐसा नहिं है कि हमारे लिए उसे बनाया गया है, बल्कि उन देशों में हालात को दूरंदेशी से देखने के बाद तैयार किया गया सामान है जो वहां की सरकारों ने उन हालातों का पूर्वानुमान लगाकर तैयार कराया था जो इन दिनों हम भारत में देख रहे हैं। उन्होंने हालात का तैयारियों के साथ मुकाबला किया और इसीलिए उनके यहां इतना जरूरत से ज्यादा सामान तैयार था। कोई भी देश इतने महंगे सामान को सिर्फ इसलिए तैयार कर नहीं बैठा होगा कि आने वाले दिनों में भारत को इसकी जरूरत पड़ेगी। आज अगर हमारे पास पर्याप्त वैक्सीन नहीं हैं तो इसलिए क्योंकि सरकार ने समय रहते उनका ऑर्डर नहीं दिया, क्योंकि सरकार को तो लगता था कि हमें उसकी जरूरत ही नहीं है।

प्रधानमंत्री तो वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में जनवरी में कह चुके हैं, “भारत उन देशों मेंसे हैं जिन्होंने कामयाबी के साथ अपने लोगों की जान बचाई है और संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या तेजी से कम हो रही है।” उन्होंने आगे कहा था, “भारत की सफलता को दूसरे दों के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि भारत में विश्व की कुल आबादी का 18 फीसदी लोग रहते हैं, भारत ने कोरोना को प्रभावी तरीके से काबू करके मानवता को एक तबाही से बचाया है।”

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हमने तो जो आंकड़े देखे उस आधार पर मान लिया कि कोरोना को हराने में भारत अनोखा देश साबित हुआ। जबकि दूसरे देशों ने इसे गंभीरत से लिया और अनुमान लगाया कि सिर्फ एक लहर में रुकने वाली बीमारी नहीं है यह। उन्होंने समय रहते वैक्सीन का ऑर्डर दिया। उन्होंने वैज्ञानिकों को तय करने दिया कि क्या कोरोना से लड़ाई जीत ली गई है, न कि किसी दिव्य शक्ति वाले नेता को। जब वैज्ञानिकों ने उन्हें बताया कि एहतियात, स्वास्थ्य सेवाओँ में बढ़ोत्तरी और वैक्सीनेशन ही इस महामारी को रोक सकते हैं तो उन देशों ने उसी पर फोकस किया और अपने सारे संसाधन वहां लगाए।

सवाल है कि आखिर हम कोरोना की इस विध्वंसकारी दूसरी लहर को आते क्यों नहीं देख पाए। इसका जवाब यही है कि अगर नेतृत्व हालात को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले तो उसकी पकड़ यानी ग्रिप मजबूत होनी चाहिए न कि कोई जीनियस मास्टर स्ट्रोक। हो सकता है कि काम का यह स्टाइल कुछ मामलों में फायदेमंद हो, लेकिन इस दौर में तो यह नाकाम ही साबित हुआ है।

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