कई बरसों तक मुझे पाकिस्तान का दौरा करने और वहां के हालात को समझे का मौका मिला। मैंने पाकिस्तान के कई अखबारो के लिए लेख भी लिखे हैं। मेरी दिलचस्पी खासतौर से उन 20 साल में रही जो बांग्लादेश बनने के बाद से जनरल जिलाउल हक के सत्ता से बाहर होने तक का दौर है। इससे पहले करीब 30 साल तक, पाकिस्तान ने खुद के इस्लामीकरण की कोशिश की, लेकिन इसमें कामयाब नहीं हो पाया था।
यहां तक कि आज भी पाकिस्तान के कानून भारत जैसे ही हैं और लाहौर, कराची और पेशावर के लोग 420, 302 और 144 जैसी धाराओं से वाकिफ हैं। यह इसलिए क्योंकि उपमहाद्वीप के कानून मैकाले नाम के एक अंग्रेज ने 19वीं सदी में बनाए थे। ढाका में भी आज भी दिल्ली की ही तरह दो समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाने वाले पर धारा 153 ए ही लगती है।
1970 और 1980 के दो दशकों के दौरान पाकिस्तान ने बदलने की कोशिश की। वहां कुरआन पर आधारित या फिर इस्लामी कानून के मुताबिक सजा के प्रावधान किए गए। इसमें शराब पाने पर 80 कोड़े मारने की सजा के साथ ही नाजायज संबंध बनाने वाले को संगसार यानी पत्थर मारकर जान लेने की सजा तक का प्रावधान किया गया। चोरी और डकैती के लिए दायां हाथ काटने की व्यवस्था की गई। दूसरी बार अगर यही शख्स वही अपराध करता तो उसके पैर को एड़ी से काटने की सजा था। पाकिस्तान के भयभीत डॉक्टरों को बाकायदा इसके लिए ट्रेनिंग गई की हाथ-पैर कैसे काटे जा सकते हैं। लेकिन इन सजाओं को कभी लागू नहीं किया गया। किसी को कभी भी पत्थर मारकर नहीं मारा गया और न ही किसी का हाथ या पैर काटा गया। ये सारी सजाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहीं। लेकिन सरकार ने भारत की तरह ही न्यायिक व्यवस्था को लागू किया जो आधुनिक थी और जजों को इन्हीं कानूनों के लिए प्रशिक्षित किया गया था। वहां के जज इन नए कानूनों को लागू करने में झिझकते रहे। जैसे-जैसे वक्त गुजरा पाकिस्तान ने अपने कानूनों को सेक्युलराइज या दार बना दिया। जनरल परवेज मुशर्रफ के दौर में बलात्कार जैसे अपराधों को फिर से पाकिस्तान पीनल कोड या शरिया कानून के तहत ले आया। जकात के लिए मुस्लिमों को मजबूर करना या फिर रमजान के माह में रोजा रखना जरूरी करने वाले कानूनों को वापस ले लिया गया।
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बिना शुबह इसका कारण यह है कि आधुनिक सरकार का कोई विकल्प नहीं है जिसमें कानून स्वतंत्रता के साथ स्पष्ट और संरेखित हों क्योंकि पूरी लोकतांत्रिक दुनिया स्वतंत्रता शब्द को समझती है। इन सबके बारे में बात करने की वजह यह है कि भारत आज उसी दौर से गुजर रहा है, जिनसे पाकिस्तान उन 20 सालों में दोचार था। भारत आज अपने अल्पसंख्यकों को राजनीति से वैसे ही बाहर कर रहा है जैसा हमारे पड़ोसी ने किया था। आज भारत में कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है और सत्तारूढ़ दल के 303 सदस्यों में कोई मुस्लिम लोकसभा सांसद नहीं है। 15 राज्यों में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। मुसलमान आज भारत की राजधानी में पहले से तय जगहों पर नमाज नहीं पढ़ सकते। उनकी मस्जिदों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है।
बीजेपी शासित कई राज्यों ने 2014 के बाद ऐसे कानून बनाए हैं जो विशेष रूप से अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को लक्ष्य करते हुए बनाए गए हैं। प्रधानमंत्री के प्रोत्साहन के बाद, महाराष्ट्र की तत्कालीन बीजेपी सरकार और फिर हरियाणा ने गोमांस रखने को अपराध घोषित किया। नतीजतन देश में मॉब लिंचिंग का एक सिलसिला शुरु हुआ था। हालांकि वक्त के साथ इसमें कमी आ गई है और न के बराबर ऐसी घटनाएं सुनने को मिलत हैं। गुजरात में, पशु वध की सजा आजीवन कारावास है, हालांकि इसे एक आर्थिक अपराध माना जाता है।
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बीजेपी शासित राज्यों उत्तराखंड (2018 में), हिमाचल प्रदेश (2019), उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश (2020) और गुजरात (2021) में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंतर्धार्मिक विवाह को अपराध घोषित कर दिया गया है। मध्य प्रदेश ने इस सप्ताह कहा कि वह प्रदर्शनकारियों की संपत्ति को जब्त करने के उद्देश्य से यूपी के 2020 के कानून जैसे कानून को अपने यहां भी लागू करेगा। उत्तर प्रदेस में यह कानून उस वक्त लाया गया था जब राज्य ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध हो रहा था और पुलिस फायरिंग में कई मुसलमानों की जान गई थी। सीएए निश्चित रूप से मुसलमानों को निशाना बनाने वाला एक कानून भी है और भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के साथ, असम की तरह हर जगह अल्पसंख्यकों पर लागू किया जाने वाला कदम है।
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जिन लोगों ने उस दौर में पाकिस्तान का अध्ययन किया, जिसका ऊपर जिक्र किया गया है, वे ऐसे कानूनों के इरादे से परिचित होंगे। इसी तरह के कानून भारत ने मोदी शासन के वर्षों में पारित किए हैं। इन कानूनों से हिंदू समाज की कोई भलाई नहीं होने वाली है और इसका यह उद्देश्य भी नहीं है। न ही इन कानूनों से किसी समुदाय के उन लोगों का उत्थान होता है जो हाशिए पर हैं या गरीब हैं। ये ऐसे कानून हैं जो नफरत और असहिष्णुता के नजरे से लिखे गए हैं। एक न्यायपालिका जो डरी हुई है या सरकार से मिलीभगत में है (या शायद दोनों) ने इन कानूनों पर कदम उठाने से इनकार कर दिया है और कश्मीर में मुसलमानों के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर भी चुप्पी साध रखी है।
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सवाल यह है कि यह कब तक जारी रहेगा और भारत को कहां पहुंचाया जा रहा है? इसका उत्तर यह है कि यह लंबे समय तक नहीं चलेगा। पाकिस्तान के इस्लामीकरण के दो दशक दूसरे युग में थे। अपने ही नागरिकों के साथ भारत का कानूनी दुर्व्यवहार शायद आधे समय तक चलेगा। और निश्चित रूप से दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि कोई अंतिम गंतव्य नहीं है। एकबार यह जहर उतरेगा तो भारत वापस वहीं पहुंच जाएगा जहां वह 2014 से पहले था। हो सकता है कि यह एक आदर्श समय न हो, लेकिन वहां से चीजें बेहतर हो जाएंगी।
आधुनिक दुनिया उस तरह की कट्टरता को समायोजित नहीं करेगी जैसा भारत आज दुनिया को दिखा रहा है। हिंदुत्व प्रोजेक्ट फेल हो जाएगा और जैसे पाकिस्तान एक अधूरा इस्लामी गणराज्य है, वैसे ही भारत एक अधूरा हिंदू राष्ट्र रहेगा।
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