आम चुनाव अब ख़त्म हो गया है। नतीजे आ चुके हैं। कई मायनों में नतीजे दिलचस्प और कइयों के लिए चौंकाने वाले भी रहे। इन नतीजों में भविष्य की राजनीतिक दिशा भी छिपी है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि इन नतीजों के पीछे की राजनीति कैसी रही। किस तरह की राजनीति ऐसे नतीजे लाने में कामयाब रही। अनेक मुद्दों की गरमागर्म चर्चा हुई। वार-पलटवार हुए। हालांकि, इन सबके बीच पूरे चुनाव में एक मुद्दा लगातार अपनी मौजूदगी दर्ज कराता रहा। वह है- मुसलमान। चुनाव अभियान के ढेर सारे भाषणों पर ग़ौर करें तो इस बात का सहज अंदाज़ा लग जाता है।
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एक कल्पना करते हैं। अगर मुसलमान इस देश में न हों तो क्या होगा? वे गायब हो जाएं या गायब कर दिए जाएं तो क्या होगा? अगर उन्हें बंगाल की खाड़ी में बहा दिया जाए तो कैसा रहेगा? मुसलमान विहीन समाज हो तो ज़िंदगी कैसी होगी? ऐसी कल्पना करने या सोचने में कोई हर्ज नहीं है। मुसलमान विहीन मोहल्ला, गांव, शहर, राज्य और देश… ऐसी कल्पना करने के पीछे ठोस वजह है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वैसे, ऐसा क्या हो गया? ऐसा क्यों कहा जा रहा है? ऐसा सोचा ही क्यों जा रहा है?
पिछले दिनों टेलीविजन न्यूज रूम हों, व्हाट्सएप संदेश हों या फिर चुनाव की रैलियां हर जगह मुसलमानों से जुड़ा शोर सुनाई देता रहा है। इस शोर में बस एक ही चीज़ पता चलती है कि मुसलमान सभी परेशानियों की जड़ हैं। न सिर्फ़ परेशानियों की जड़ हैं बल्कि इनकी वजह से देश की बहुसंख्यक आबादी का जीना मुहाल है।
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यक़ीन न हो रहा हो तो चुनावी भाषणों में कही गई बातों को ही देख लें। ज़्यादा नहीं, चंद बानगी ही काफ़ी होगी। जैसे- फ़लां पार्टी आएगी तो मुसलमानों के बारे में ही सोचेगी। वे शरिया कानून लागू कर देंगे। दूसरों का आरक्षण काटकर मुसलमानों को दे दिया जाएगा। सबकी सम्पत्ति ले ली जाएगी और उसे मुसलमानों को दे दिया जाएगा। मंगलसूत्र उतरवा लिया जाएगा। मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाले हैं। वे घुसपैठिए हैं। बहुसंख्यकों की सम्पत्ति छीनकर इनके बीच बांट दी जाएगी। कुछ ख़ास पार्टियां उनकी हिमायती हैं।
वे अगर सत्ता में आ गईं तो हनुमान चालीसा पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। वे देश में इस्लामी क़ानून लागू कर देंगे। गोकशी की खुली छूट देंगे। अपराध बढ़ जाएगा। दंगे होने लगेंगे। वे अपनी मनमर्जी का खाना खाने लगेंगे। कुछ पार्टियाँ सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करती हैं। उनकी सरकार आई तो बस अल्पसंख्यकों की भलाई के बारे में ही सोचेंगी। वे पिछड़ों के आरक्षण छीन लेंगे। बहुसंख्यक दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाएंगे… वगैरह… वगैरह। इन बातों के शब्द और वाक्य अलग हो सकते हैं मगर भाव कुछ ऐसे ही हैं। ये बातें उन लोगों के भाषण का हिस्सा हैं जो ज़िम्मेदार संवैधानिक पदों पर हैं।
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चुनाव में आमतौर पर वादे और दावे किए जाते हैं। वादों में वैसी बातें होती हैं, जो किसी की भलाई से जुड़ी होती हैं। तो दावों में जो किया जा चुका है, उसकी बात होती है। मुसलमानों की चर्चा है लेकिन बात मुसलमानों के लिए किए गए कामों की नहीं हो रही है। उनकी भलाई के वादे नहीं किए जा रहे हैं। बस दावे हैं कि ऐसा होगा तो वैसा हो जाएगा।
जो समूह मुसलमानों को मुद्दा बनाए हुए है, वह मुसलमानों को तालीम या रोज़गार देने की बात नहीं कर रहा है। उन्हें अच्छे के लिए याद नहीं कर रहा है। वह तो ऐसा माहौल बना रहा है, जैसे मुसलमानों में ग़रीबी है न बेरोज़गारी है। न तालीम की कमी है। उनके पसमांदा समाज को न ही आरक्षण जैसी किसी नीति की ज़रूरत है। जैसे उनके पास सब कुछ है… और यह सब कुछ उनके पास किसी से छीनकर आया है। किसी का हक़ मारकर आया है।
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ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी मुसलमान के नाम पर चुनाव में भाषण होते रहे हैं। मगर पहले और इस बार में एक बड़ा फर्क है। पहले ज़्यादातर ढका-छिपा कर इशारों में बात की जाती थी। अल्पसंख्यक, तुष्टीकरण, वोट बैंक जैसे शब्द ज़्यादा सुनाई देते थे। इस बार सब कुछ खुला है। एक समूह दूसरे समूह पर हमला करने के लिए खुलकर मुसलमान शब्द का उच्चारण कर रहा है।
मुसलमानों को निशाना बनाकर बातें की जा रही हैं। चुनाव की आदर्श आचार संहिता कहती है कि चुनाव में धर्म का इस्तेमाल नहीं हो सकता। मगर यहां तो खुलकर इस्तेमाल हो रहा है। मुसलमान शब्द का अफ़वाह की तरह इस्तेमाल हो रहा है। अफ़वाह एक ही काम करती है। वह भड़काती है। एक को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करती है। तो क्या मुसलमान शब्द का इस्तेमाल सामाजिक समूहों को आमने-सामने खड़ा करने के लिए किया जा रहा है? एक को दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए किया जा रहा है?
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कितना दिलचस्प है कि सौ में साढ़े चौदह लोग देश के सबसे बड़े चुनाव के मुद्दा बने हुए हैं. किसी अच्छी वजह से मुद्दा नहीं बने हैं. ऐसा लगता है कि वे सबके लिए सरदर्द हैं. सबकी परेशानी की वजह हैं. देश की सभी समस्याओं की जड़ हैं.
इसीलिए सवाल है, मुसलमान न होते तो मुद्दा क्या होता? कैसे लड़े जाते चुनाव? किनके नाम पर वोट माँगे जाते? किनके नाम पर जीत हासिल की जाती? मुसलमानों के इस योगदान को कैसे याद रखा जाएगा? इसीलिए यह सोचने में हर्ज नहीं कि अगर मुसलमान न होते तो क्या होता?
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चुनाव में हर समूह अपनी बात रखता है। हर समूह अपना प्रतिनिधित्व चाहता है। अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये अपनी आवाज़ संसद तक पहुंचाता है। क्या मुसलमानों को ऐसा करने का हक़ नहीं है? क्या जो प्रतिनिधि या पार्टी मुसलमानों की बात करेगी, वह ग़लत होगी? उसे आलोचनाओं का शिकार बनना पड़ेगा? मुसलमानों का प्रतिनिधित्व और उनकी आवाज़ दिनों दिन कमज़ोर होती जा रही है। अगर चुनाव का यही अंदाज़ बरक़रार रहा तो मुसलमान के बारे में सोचना भी मुश्किल हो जाएगा। पार्टियां मुसलमानों की बेहतरी की बात करने से डरेंगी। समाज का एक बड़ा हिस्सा अछूत बना दिया जाएगा। लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं होगा
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