कोई भी शख्स जो भारतीय समाचार चैनल देखता है या सोशल मीडिया पर सक्रिय है, उसने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले में राहुल गांधी का भाषण और उस पर बीजेपी के आक्रामक हमलों को जरूर देखा होगा। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से लेकर सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी तक सभी ने इस भाषण पर कुछ न कुछ कहा है। अफसोस की बात है कि ज्यादातर आलोचनाएं भाषण की जगह या उसे देने वाले शख्स को लेकर की गईं। ‘उसने कैसे भारत का नाम विदेश में खराब करने की हिम्मत की?’ या ‘राहुल गांधी कौन होता है कुछ कहने वाला?’ जैसी स्तरहीन बातें कही गईं।
बर्कले में दिए राहुल के भाषण में दुनिया भर में बेरोजगारी के संकट से लेकर नव-उदारवादी व्यवस्था की असफलता का जिक्र था, जिसकी वजह से आज पूरी दुनिया में हिंसा और नफरत की लहर फैली हुई है। दुर्भाग्य से कोई भी इन मुद्दों से नहीं जूझना चाहता है। टीवी की बहसों और अखबारों के लेखों में सिर्फ वंशवाद की चर्चा की गई या यह कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लायक हैं या नहीं। जहां गंभीरता की उम्मीद थी वहां छोटी और अदूरदर्शी सोच का प्रदर्शन किया गया।
पिछले लंबे समय से देश में, खासकर राजनीति के क्षेत्र में बहस और चर्चा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। कॉलेज के दिनों में पढ़ाए गए कई सिद्धांतों में से मुझे यहां ‘तर्क की कमजोरी’ (फेलेसीज ऑफ लॉजिक) की सिद्धांत याद आ रहा है, जिसके अनुसार किसी व्यक्ति के तर्क की जवाब ढूढ़ने की बजाय उसके व्यक्तित्व पर हमला किया जाता है। इस तरह की भ्रांतियां ‘तर्क के दस रूप’ के नाम से इंटरनेट पर बड़ी तेजी से फैली हैं।
उन्हें देखने से पता चलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र में चल रहे लगभग सभी तरह के तर्क इन सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। चाहे राजनेता हों या सामाजिक कार्यकर्ता या फिर पत्रकार, सभी इन तर्कों का इस्तेमाल करते हैं।
जब नीति के तौर पर बहस का स्तर गिरता है तो ये हमारे समाज के तर्क में आई गिरावट को दिखाता है। गौरी लंकेश का नाम ‘गौरी लंकेश पैट्रिक’ होने के आरोपों के ट्वीटर पर ट्रेंड होने में यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है, जबकि उनकी पत्रिका का नाम ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ था। राहुल गांधी के भाषण पर आई प्रतिक्रियाओं में यह गिरावट और भी स्पष्ट तरीके से नजर आती है।
टिप्पणीकारों को तीन समूहों में बांटा जा सकता है:
राहुल गांधी और उनके भाषण से नफरत करने वालेः राहुल गांधी जिस तथ्य की बात कर रहे थे उससे यह समूह अपमानित प्रतीत होता है। राहुल के लिए अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले अपमानजनक नाम ‘पप्पू’ से लेकर उससे भी ज्यादा अपमानजनक भाषा में इस भाषण की आलोचना की गई। इस पूरी सक्रियता के दौरान सबके दिमाग में एक बात समान थी कि जो कुछ भी राहुल ने कहा वह सुनने लायक नहीं है।
इसलिए सारी आलोचनाएं भाषण देने वाले व्यक्ति पर केंद्रित थीं न कि भाषण के विषय पर। राहुल गांधी की आलोचना में कागज देखकर पढ़ने का मजाक या उनके हाव-भाव को भी निशाना बनाया गया, जैसे कि ‘सुनामी के बारे में बात करते वक्त वह क्यों मुस्कुरा रहे थे।‘ यहां तक कि भाषण की शुरुआत की आलोचना एक अजीब वजह से की गई, ‘अंडमान निकोबार के स्थानीय लोगों की समझ से एक बार भी जुड़े बगैर, उन्होंने मृतक की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के बारे में सोचने की हिम्मत कैसे की।‘
भाषण तो पसंद आया लेकिन व्यक्ति नहीं: यह एक दिलचस्प समूह था, जिसने भाषण की प्रशंसा तो की, लेकिन इसका श्रेय शशि थरूर को दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समूह के बीच पप्पू की छवि इतनी गहरी हो गई है कि राहुल गांधी इस तरह का भाषण खुद तैयार कर सकते हैं, इस पर एक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है।
भाषण और वक्ता दोनों पसंद आए: यह समूह भाषण और वक्ता को पसंद करता हुआ प्रतीत होता है। भाषण में इस समूह को देश के हालात का साफ प्रतिनिधित्व नजर आया और इसने राहुल की विनम्रता का स्वागत किया। कुछ लोगों ने इस भाषण से हुए अपने आश्चर्य को स्वीकारते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष में एक नई उम्मीद और भरोसा जताया।
भाषण और उसके तरीके की आलोचना सार्वजनिक बहस के गिरते स्तर की तरफ इशारा करती है और 'अच्छे नेता' को लेकर हमारी धारणा को भी सामने लाती है। वर्षों से जारी जातिवाद, उपनिवेशवाद और पितृसत्ता ने नेताओं के बारे में हमारी धारणा को गढ़ा है। इस दृष्टि से एक नेता ऐसा व्यक्ति होता है जो मजबूत, दृढ़, कठोर होता है और जो अपने लोगों को आदेश देता है या उन्हें अपने अधीन रखता है। नेता और अनुयायियों के बीच हमेशा एक विभाजन होता है, जिसमें नेता सर्वोच्च होता है जो कोई गलत काम नहीं कर सकता और उसके अनुयायी को हमेशा उसका गुलाम बने रहना चाहिए। और इस स्थिति पर कोई भी सवाल उठाना नेता का ही नहीं, बल्कि राष्ट्र का भी अपमान होता है। कई कारणों में से शायद यह भी एक कारण है जिसकी वजह से इतनी उनकी आलोचना करने के बावजूद हम उन शक्तियों के आगे अपना सर झुकाते हैं। बीजेपी इस धारणा को गढ़ने और लगातार इसे मजबूत करने पर काम करती रही है। इसलिए, अपनी रैली में जब मोदी विरोधियों को फटकारते हैं तो उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर नहीं माना जाता जो अपनी आलोचना का सामना नहीं कर सकता, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो मजबूत है और विपक्ष को चुप करा सकता है।
जब वह साक्षात्कार के बीच में उठकर चले जाते हैं तो इसे सवालों का सामना कर पाने में उनकी विफलता के तौर पर नहीं देखा जाता, बल्कि विपक्ष के सामने डटे रहने के तौर पर देखा जाता है। यह एक अजीबोगरीब बात है कि ऐसा करना एक खासियत बन जाती है। आप अपने आसपास देखें, नेताओं या टेलीविजन एंकर की असभ्य, अधिनायकवादी शैली को दृढ़ता और अच्छे नेतृत्व के संकेत के तौर पर देखा जाता है। यही वह धारणा है जिसके अनुसार डॉ मनमोहन सिंह का मृदुभाषी नेतृत्व कमजोर मानी गई और नरेन्द्र मोदी की छाती ठोंकने वाली छवि मजबूत नेतृत्व का उदाहरण बनी।
इस नजरिये से देखने वाले राहुल गांधी एक अच्छे नेता के बिल्कुल उलट नजर आते हैं। उनका हालिया भाषण, खासकर बीजेपी की आलोचना करते हुए बेंगलुरु में दिया गया भाषण लोगों को अपनी सच्चाई समझने के लिए प्रेरित करता है। बर्कले में दिये अपने भाषण में कांग्रेस की विफलता को स्वीकार करना उनकी ताजगी भरी विनम्रता को दर्शाता है। और लोकलुभावन समाधानों के दौर में उनका यह मानना कि चीजें रातों-रात नहीं बदलेंगी, एक राजनेता के तौर पर उनकी ईमानदारी और साहस को दिखाता है। वह नेता-अनुयायी मॉडल को पूरी तरह से खारिज करते हैं और एक अधिक समानतावादी मॉडल को बढ़ावा देते हुए प्रतीत होते हैं।
सक्रिय राजनीति में 13 साल बिताने के बावजूद राहुल गांधी एक पहेली बने हुए हैं। उनकी वंशावली के बावजूद मुझे लगता है कि नेहरू-गांधी परिवार से उनके संबंध उन्हें लाभ देने की बजाय और अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। उसकी वजह से उन्हें लेकर हमारी समझ पर असर पड़ता है। वह केवल एक राजनीतिज्ञ के तौर पर नहीं देखे जाते, बल्कि नेहरू के परनाती और इंदिरा गांधी के पोते के तौर भी देखे जाते हैं। यह ऐसा मानक है जिसके आधार पर शायद आज का कोई राजनेता कामयाब नहीं हो सकता।
दूसरी बात यह है कि वह कांग्रेस में उपाध्यक्ष के एक ऐसे पद पर हैं जो आज एक पसंदीदा पंचिंग बैग में बदल गया है। यह एक ऐसी धारणा है जो अक्सर मुझे परेशान करती है। एक दशक लंबे चले यूपीए शासन में कई समस्याएं थीं, लेकिन उसी दौरान आरटीआई, मनरेगा, भोजन का अधिकार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम से लेकर वन अधिकार अधिनियम जैसे कई प्रगतिशील कानून भी लाए गए। उस दौरान भी राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के बहुत अहम हिस्सा थे। जबकि आम धारणा इस पहलू को नजरअंदाज कर देती है और इन सबके लिए राहुल गांधी को कोई श्रेय नहीं देती। लेकिन कांग्रेस पार्टी और यूपीए के काल में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए बड़ी खुशी और निर्दयता से बिना वक्त गंवाए राहुल को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। उनको मिलने वाले कवरेज में भी ऐसी ही निर्दयता दिखती है।
हालिया भाषण को ही लीजिये। कई प्रमुख अखबारों ने उनके द्वारा अपने भाषण में उठाए गए मुद्दों की बजाय इस विषय पर पूरे के पूरे लेख छापे कि उन्होंने भाषाओं की संख्या के बारे में बात करते वक्त लोकसभा के सदस्यों की गलत संख्या बताई। ऐसा लगता है कि इस तरह का हमलावर कवरेज सिर्फ राहुल गांधी के लिए ही आरक्षित है। यह उनकी गलतियों को पकड़ने के इंतजार में बैठे चील की आंखों वाले लोगों की छवि हमारे सामने रखता है। यह सब राहुल गांधी के उस दावे को भी सही साबित करता है कि उन्हें बदनाम करने के लिए एक समर्पित फौज को काम पर लगाया गया है।
हालांकि, इन सब के बावजूद वह लगातार राजनीति में सक्रिय हैं और खुद को द्वेषपूर्ण बनाने के लिए किए जाने वाले निरंतर हमलों को उन्होंने सफल नहीं होने दिया है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता के तौर पर राहुल बीजेपी के कई गलत कदमों का फायदा उठा पाने में विफल रहे हैं और उन्हें अपना जनाधार तैयार करना अभी बाकी है। इन सबके लिए वह जिस तरह से कोशिशें करते हैं, जिस तरह से ध्यान से लोगों को सुनते है और उनसे जुड़ते हैं उसकी बहुत जरूरत है।
अधिनायकवादी 'मजबूत' शासकों के इस युग में राहुल गांधी की विनम्रता, स्पष्टवादिता और जमीन से जुड़ा होना परिवर्तन के लिए एक प्रेरणा बन सकती है। लेकिन क्या यह राहुल गांधी को भारत का प्रधानमंत्री बनने तक लेकर जाएगा? मुझे यह तो नहीं पता, लेकिन मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि इस देश को छाती फुलाकर खुद का बखान करने वाले नेतृत्व की कोई जरूरत नहीं है।
Published: 16 Sep 2017, 4:07 PM IST
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Published: 16 Sep 2017, 4:07 PM IST