गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं- ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे’। तो तुलसीदास जी के कथन को सिद्ध करते हुए, उस दिन हमारे 'महान' प्रधानमंत्री संसद में विपक्ष को आदेश-उपदेश दे रहे थे कि इस पर पॉलिटिक्स मत करो, उस पर पॉलिटिक्स मत करो। वैसे तो खैर जो भी सत्ता में होता है, वह खुदा न खास्ता भद्र हुआ तो भी यह आदेश- उपदेश पांच साल में कम से कम पांच सौ बार तो विपक्ष को देकर ही मानता है।
और हमारे यही, यही के यही, कोई और नहीं, बल्कि ठीक यही उपदेशकाचार्य, रोज पॉलिटिक्स ही किया करते हैं बल्कि इन्हें अगर कुछ आता है तो सिर्फ पोलिटिक्स करना ही आता है। कड़वा सच यह है कि आज तक जितने भी इस देश में प्रधानमंत्री वगैरह हुए हैं, पॉलिटिक्स करने में ये उनके पितामह श्री के तुल्य हैं।
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यही नहीं, उनके लघु भ्राताश्री महाराज जी भी कम खुदा नहीं हैं, जिनका नाम लेने से मैं इसलिए कतरा रहा हूं कि आप कहेंगे कि हमें तू इतना बेवकूफ समझता है कि हम तेरा इशारा भी नहीं समझते! समझते हो भाई-बहना, तभी तो कतरा रिया हूं। वरना अपन ठहरे ‘मरद’ (चाहे छप्पन इंची नहीं) अपने को कतराने-शरमाने से क्या वास्ता!
वैसे नेताओं से यह कहना कि पॉलिटिक्स मत करो, कुछ ऐसा है कि जैसे आप बछड़े वाली गाय से कहो (और वह सुन-समझ ले) कि वह दूध न दिया करे या दो महीने के बच्चे से कहो कि तू मां का दूध मत पिया कर रे, अंडे-ब्रेड खा लिया कर या बनिए से कहो कि ओ जी बनिए जी महाराज जी, आप बिना ब्याज के ऋण दिया करो या स्वयं मोदी जी से कहो कि माननीय प्रधानमंत्री जी, पिछले पांच साल आपने बहुत भाषण देकर काटे हैं, भाषण ही भाषण दिए हैं, जरूरत से ज्यादा विदेश यात्राएं की हैं, इस बार सिर्फ अट्ठारह घंटे काम ही काम करके दिखाओ।
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भगवान कसम तमाम योगा-फोगा के बावजूद उनकी तबीयत खराब हो जाएगी और डॉक्टर उन्हें बेड रेस्ट लेने के लिए कहेंगे। मगर देश की गरीब जनता यह रिस्क नहीं ले सकती। चाहे उसे दो की बजाय एक टाइम खाना मिले! जनता जानती है कि कौन सी 'रिक्स' लेनी चाहिए और कौन सी नहीं!
तो इस पर या उस पर पॉलिटिक्स मत करो। ये दरअसल कबड्डी का खेल है जी, जो सत्ता सुख मिलते ही हर पॉलिटिशियन विपक्ष की टीम के साथ खेलता है। वैसे पॉलिटिक्स कहा नहीं है? हां जी, बिल्कुल सही फरमाया हमारा यह व्यंग्य भी पॉलिटिक्स है और ये ही क्या, हमारा हर व्यंग्य पॉलिटिक्स है। फर्क ये है कि हम मान लेते हैं, मगर मोदी जी समेत कोई पॉलिटिशियन यह नहीं मानेगा कि पॉलिटिक्स न करने का उपदेश देना भी पॉलिटिक्स है।
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वैसे भी हर कोई राजनीति में आजकल वाली पॉलिटिक्स करने ही आया होता है, भजन करने नहीं। अगर वह भजन करता है या योग करता है या बच्चे की पीठ थपथपाते हुए फोटो खिंचाता है तो पक्का मानिए कि ये भी नेचुरल नहीं है, पोज है, इसके पीछे भी पॉलिटिक्स है। बिना पॉलिटिक्स के पॉलिटिशियन नाक तक नहीं खुजाता या खांसी आ जाए या छींक आ जाए तो भी पॉलिटिक्स के हिसाब से ही खांसता-खुजाता है या नहीं खांसता-खुजाता है।
और तो और साहब, आजकल तो मां के पैर छूना भी खालिस पॉलिटिक्स है। बिना कैमरों के तो प्रधानमंत्री भी अपनी मां के पैर छू नहीं पाते। बेडरूम के अलावा सबकुछ आजकल पॉलिटिक्स है। हालांकि, एक मुहावरा ड्राइंगरूम पॉलिटिक्स के साथ ही बेडरूम पॉलिटिक्स भी चल पड़ा है।
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और भाइयों-बहनों अगर पॉलिटिक्स इतनी ही बुरी चीज है कि खुद पॉलिटिशियन होकर और पॉलिटिक्स करके भी आप पॉलिटिक्स न करने की सलाह देते हो तो भाई साहब आप पॉलिटिक्स में आए क्यों और गलती से आ गए थे तो फिर जमे हुए क्यों हो! जाओ जाकर चाय बेचो या झोला उठाकर फकीरी करो या रामकृष्ण मिशन चले जाओ, जहां आप कथित रूप से कभी जाना चाहते थे, अब भी देर नहीं हुई है।
और वहां जाएंगे तो क्या वहां पॉलिटिक्स नहीं करेंगे? पॉलिटिक्स तो आपकी प्राणवायु भी है और अपान वायु भी है। तो मजे से प्राणवायु लो और जनता को अपानवायु प्रदान करो और खुश रहो। उपदेश देने आदि का काम विश्व हिंदू परिषद के संतों पर छोड़ दो। वरना ये साधु-संत बेकार हो जाएंगे और क्या पता दे दनादन, दे दनादन करने लग जाएं! ईश्वर दे दनादन वाले आकाश विजयवर्गीय को अपने पिता की राह पर चलते हुए राजनीति के आकाश की ऊंचाइयां छूने का मौका दे ताकि वह भी गर्व से एक दिन कहते पाया जाए- पॉलिटिक्स मत करो।
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