विचार

मज़बूत लेकिन प्रगतिशील इरादों से चीन को मात देने वाले ताइवान से क्या सबक लेगा भारत!

ताइवान में चुनाव से पहले चीनी हस्तक्षेप के खिलाफ कड़े कानून लाने वाली राष्ट्रपति त्साई वेन-इंग दोबारा राष्ट्रपति बनी हैं। कानून की प्रोफेसर रहीं त्साई वेन-इंग ने अपने प्रगतिशील विचारों की बदौलत देश को आर्थिक, मानसिक और सांस्कृतिक प्रगति के नए आयाम दिए हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

क्या सवा सौ करोड़ वाले भारत को सवा दो करोड़ आबादी वाले ताइवान से कोई शिक्षा लेनी चाहिए? ताइवान और दोबारा शानदार तरीके से उसकी राष्ट्रपति चुनी गईं त्साई वेन-इंग को बधाई दिए बिना सोने चले जाना आजादी की उस भावना का अपमान होगा, जिसके दम पर छोटे से ताइवान (कुल क्षेत्रफल 35,808 वर्ग किलोमीटर) ने खुद से सौ गुना बड़े और डेढ़ सौ करोड़ आबादी वाले अजगर (चालीस लाख वर्ग किलोमीटर) को खुली चुनौती दे रखी है।

ताइवान में 11 जनवरी, 2020 को एक तरह से चीन-समर्थक और चीन-विरोधी धाराओं के बीच चुनाव हुआ था। राष्ट्रपति त्साई ने इस चुनाव के पहले ताइवान में चीनी हस्तक्षेप के खिलाफ कड़े कानून बनाए और फिर जबरदस्त जन समर्थन पाकर दोबारा राष्ट्रपति बनीं। लेकिन इस बीच एक बड़ी घटना हो गई। 30 दिसंबर, 2019 को कानून बने और 2 जनवरी, 2020 को, यानी चौथे दिन, ताइवान के प्रधान सेनापति शेन यी-मिंग एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में मारे गए।

याद होगा कि आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भी ताइवान में ही विमान दुर्घटना में मौत हो गई थी। वह दिन था 18 अगस्त, 1945। आज तक हम निश्चित रूप से नहीं जान सके हैं कि वह किस तरह की दुर्घटना थी। यह भी हम निश्चित रूप से शायद कभी नहीं जान सकेंगे कि ताइवानी प्रधान सेनापति शेन यी-मिंग की मृत्यु एक विमान हादसा थी या हत्या, और अगर हत्या थी तो क्या इसके पीछे चीन का हाथ था? या चीन को बदनाम करने के लिए अमेरिका का? या फिर यह सिर्फ एक हादसा ही था?

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यह सब हम नहीं जान सकेंगे। लेकिन कुछ और जानकारियां हैं, जिन्हें हमें अवश्य जानना चाहिए। ये जानकारियां अपने देश की हैं, एकदम ताजा हैं, लेकिन उनमें बदबू पुरानी है। वैसे इन बदबूदार बातों के पहले हम थोड़ा उस खास महिला, राष्ट्रपति त्साई वेन-इंग के बारे में बताते चलें जो एक राष्ट्राध्यक्ष ही नहीं, एक महिला के रूप में भी हमारे लिए प्रेरणादायक हो सकती हैं।

31 अगस्त, 1956 को एक ऑटो-मैकेनिक की 11वीं संतान के रूप में जन्मी त्साई वेन-इंग कानून की प्रोफेसर रही हैं। अविवाहित हैं और अपने प्रगतिशील विचारों की बदौलत उन्होंने अपने देश को आर्थिक के साथ मानसिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रगति के कई नए आयाम दिए हैं। उन्होंने 2015 में वैवाहिक समानता के अधिकारों की घोषणा करते हुए कहा था, “मैं समानता का समर्थन करती हूं। आइए! हम सभी को स्वतंत्र रूप से प्यार करने और खुशी पाने में सक्षम होने दें।”

उनका वादा है कि वह अगले पांच वर्षों में ताइवान को परमाणु-ऊर्जा से मुक्त देश बना लेंगी तथा पर्यावरण को सुरक्षित करेंगी। चीन के खिलाफ अपने कठोर रुख के आधार पर उन्होंने चुनाव जीता है। यह आश्चर्य की बात है कि इस छोटे से देश की इस राष्ट्रपति के पास इतना हिम्मती कलेजा है जितना शायद 56 इंच में नहीं है। चीन आज भी ताइवान को अपना एक प्रांत मानता है जबकि ताइवान खुद को आजाद मानता है। उसकी अपनी पूरी स्वतंत्र व्यवस्था और संपन्न आर्थिक स्थिति है। यह दुनिया में 21वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

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अब हम देखें कि ताइवान की तुलना में चीन के साथ अपने संबंधों में भारत का सीना कितना सीधा और सुरक्षित है। ताइवान के चुनाव और चीनी वर्चस्व को उसकी चुनौती के साथ ही यह खबर भी हाल के अखबारों में है कि हमारे यहां अभी 5जी के ट्रायल होने वाले हैं। इसमें भारत सरकार दुनिया की एक दर्जन बड़ी टेलीकॉम कंपनियों को आमंत्रित कर रही है। लेकिन भारत ने चीन की हुआवेइ कंपनी को निमंत्रित नहीं किया। हुआवेइ पर अमेरिका ने अपने यहां रोक लगा रखी है और उसने अन्य देशों सहित भारत से भी आग्रह किया है कि वे इस चीनी कंपनी को अपने यहां नहीं आने दें। वजह यह है कि इस कंपनी का घनिष्ठ संबंध चीनी सेना से है और यदि यह बड़े पैमाने पर अमेरिकी टेलीकॉम व्यवस्था में प्रवेश पा लेगी तो उससे अमेरिका की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह भी आरोप लगाया था कि हुआवेइ चीन के जासूसी तंत्र का हिस्सा है। तो अमेरिकी दबाव में भारत ने जुलाई में तय कर लिया कि हुआवेइ को ट्रायल में शामिल नहीं किया जाएगा।

चीन और भारत की भौगोलिक स्थिति प्रतिद्वंद्वी की है। दोनों के बीच एक बड़ा युद्ध 1962 में हो चुका है। भारत की काफी जमीन चीन ने दबा रखी है। कई इलाकों में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है। हमारे अधिकांश पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और नेपाल में चीन का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है। हिंद महासागर में चीनी नौसेना की गतिविधियां बढ़ रही हैं। भारत के बाजार और उत्पादन क्षेत्र में भी चीन की चुनौती भारत के लिए बेहद चिंताजनक है। इन सभी मुद्दों के मद्देनजर अपने बेहद ताकतवर और विस्तारवादी पड़ोसी के प्रति भारत को सतर्क रहना चाहिए।

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भारत है भी, इसीलिए उसने हुआवेइ कंपनी को शुरू में निमंत्रित नहीं किया था, लेकिन चीन ने भारत के खिलाफ प्रतिबंध की धमकी दे दी। तो अब भारत ने हुआवेइ को भी आमंत्रित कर लिया है। यह घोषणा भी दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कर डाली। लेकिन उन्होंने या उनके विभाग ने न तो पहले कभी बताया कि नीति में इस अचानक यू-टर्न की वजह क्या है? कहीं भारत के महत्वपूर्ण फैसले अमेरिका और चीन के परस्पर विरोधी दबावों के बीच एक पेंडुलम-गति को तो प्राप्त नहीं हो रहे हैं?

हुआवेइ के संस्थापक की बेटी और उसकी मुख्य कार्यकारी मेंग वान्झाऊ के खिलाफ अभी अमेरिका में धोखाधड़ी का मामला चल रहा है। आरोप है कि इस कंपनी के संबंध एक ऐसी फर्म से हैं जिसने प्रतिबंध के बावजूद ईरान को उपकरण बेचने की कोशिश की। भारत में मार्च-अप्रैल, 2020 तक 5जी स्पेक्ट्रम की नीलामी हो सकती है। नीलामी का न्यूनतम मूल्य 5.86 लाख करोड़ रुपये है। स्पेक्ट्रम नीलामी के द्वारा सरकार इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सिग्नल्स के संचार के अधिकार बेचती है। ये सिग्नल देश की सुरक्षा सहित हर गतिविधि में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। प्रश्न यह है कि क्या इस क्षेत्र में किसी ऐसी कंपनी को प्रवेश दिया जाना चाहिए जिसका घनिष्ठ संबंध चीन की सेना से हो?

दूसरी बात कि अगर पहले उस कंपनी को किसी आधार पर निमंत्रित नहीं किया गया था, तो फिर अब अचानक किस आधार पर नीति बदल कर उसे निमंत्रित किया जा रहा है? कहीं सिर्फ चीन की धमकी के कारण तो नहीं? इतना महत्वपूर्ण फैसला लेने या बदलने के पीछे क्या अध्ययन किसी के द्वारा किया गया? क्या जनता को इसकी जानकारी दिया जाना जरूरी नहीं था?

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अब याद करें कि हम सवा सौ करोड़ के देश हैं। हम 1962 में चीन से धोखा और हार खा चुके हैं। वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जताता है। हमारे रक्षामंत्री राजनाथ सिंह वहां जाते हैं, तो वह आधिकारिक रूप से आपत्ति दर्ज करता है। मसूद अजहर को आतंकी घोषित होने से बचाता है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खुला समर्थन देता है। पाक अधिकृत कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा भारत की आपत्ति के बावजूद चीन, पकिस्तान से ले चुका है। डोकलाम में वह 73 दिन हमारी सीमा में घुस कर खड़ा रहा। अक्साई-चिन हमारी दुखती रग है। श्रीलंका में अभी हुए चुनाव में चीन समर्थक सरकार आ ही चुकी है। भूटान में वह अंदर घुस कर सड़क बना रहा है। नेपाल में उसने अठारह समझौते किए जिनके तहत चीन से रक्सौल तक रेल और सड़क यातायात स्थापित हो जाएगा। नेपाल अब चीन की झोली में जा चुका और चीन हमारे रक्सौल और देवरिया तक पहुंच रहा है। नेपाल में चीन समर्थक सरकार है ही।

इधर भारत-चीन व्यापार में पलड़ा चीन की तरफ कितना भारी है, और ऊपर से हमारे छोटे-बड़े उद्योगों का चीन ने क्या हाल कर रखा है, यह स्वदेशी जागरण मंच अपने नैतिक देहांत के पूर्व सन्निपात में जब-तब बड़बड़ाता ही रहा है। लेकिन हम साबरमती आश्रम में जिनपिंग के साथ झूले पर पीगें लेते रहे या हमारे आश्रम में चीन हमें ही झूला झुलाता रहा है। जिनपिंग दोबारा आए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ममल्लापुरम घूमने गए, बातें क्या हुईं, क्या निकला, सो तो पता नहीं, लेकिन यहां से वह सीधे काठमांडू गए। वहां उन्होंने वे अठारह घोषणाएं कर डालीं जिनका जिक्र ऊपर है। संक्षेप में, चीन की रणनीति से पाकिस्तान, श्रीलंका, भूटान, नेपाल सब ओर से आप घिर गए हैं और आपकी अर्थव्यवस्था चीन के सामने हाथ बांधे खड़ी है।

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