भारतीय राजनीति में इस समय दो ही ध्रुव नजर आते हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस सांसद राहुल गांधी हैं। मोदी दूसरी बार के प्रधानमंत्री हैं। हमेशा नए परिधान में मीडिया के कैमरों के सामने बने रहना पसंद करते हैं। मीडिया की रुचि के मुताबिक जुमले उछालते रहते हैं। लेकिन कभी मीडिया को सवाल पूछने का मौका नहीं देते। दूसरी तरफ राहुल गांधी हैं जो यूपीए-2 में प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन स्वेच्छा से पद से दूर रहे। वह मीडिया से परहेज नहीं करते लेकिन मीडिया के मुताबिक अभिनय करने को राजी नहीं होते और कठिन से कठिन सवाल का जवाब देने में खासी रुचि रखते हैं।
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यह तो दोनों नेताओं का वह रवैया है जो वे मीडिया के प्रति अपनाते हैं। लेकिन मीडिया दोनों नेताओं के प्रति क्या रवैया अपनाता है। जहां तक मोदी का सवाल है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उनका काम कैमरामैन से ही चल जाता है। वह मन मुताबिक बोलते और चलते रहते हैं, कैमरा अलग-अलग कोण से उसे रिकॉर्ड करता रहता है। रिपोर्टर का काम इस फुटेज को अच्छी से अच्छी काव्यात्मक भाषा में पेश करने का रह जाता है। प्रधानमंत्री से देश की नीतियों पर कठिन न सही, सरल सवाल पूछने की अभिलाषा भी भारतीय पत्रकारिता का बड़ा वर्ग नही रखता है।
पिछले 8 साल में यह ट्रेनिंग इतनी अच्छी तरह दी गई है कि पत्रकार सवाल न पूछने के अभ्यस्त और विज्ञप्तियों को ही ब्रेकिंग न्यूज बताने के आदी हो गए हैं। यह प्रक्रिया इतनी संक्रामक हो गई है कि विपक्ष के अधिकांश नेता भी सरकार, खासकर प्रधानमंत्री से कोई सवाल पूछना नहीं चाहते। मामला जितना गंभीर होता है, उनका मौन उतना ही गहरा होता जाता है। लेकिन भारतीय राजनीति में एक व्यक्ति इसका अपवाद है। वह हैं वायनाड से सांसद राहुल गांधी। विपक्ष में और भी बड़े-बड़े नेता हैं लेकिन वे प्रधानमंत्री से लगातार सवाल नहीं पूछते; तभी सवाल पूछते हैं, जब रस्म निभाना जरूरी हो। मसलन, करीब एक साल दिल्ली के शाहीन बाग पर मुस्लिम महिलाएं धरने पर बैठी रहीं लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस विषय पर टिप्पणी करना तक जरूरी नहीं समझा। इसी तरह अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शरद पवार, स्टालिन सहित बहुत से जनाधार वाले नेता हैं जो चुनावी राजनीति में मोदी से दो-दो हाथ करते हैं लेकिन क्या हर मुद्दे पर हर समय इन्होंने मोदी से सवाल पूछे हैं। जवाब होगा नहीं। अगर किसी ने मोदी की नीतियोों को तथ्यात्मक और मुखर रूप में लगातार चुनौती दी है तो वह सिर्फ राहुल गांधी हैं।
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तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इनमें से तकरीबन हर नेता पर मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जांच एजेंसियों का फंदा कस रखा है जबकि राहुल गांधी के पास ईडी का समन भेजने में मोदी सरकार को 8 साल लग गए। यह बताता है कि राहुल गांधी के पास छिपाने को इतना कम है कि मोदी सरकार उसे उजागर करने के नाम पर उन्हें ब्लैकमेल नहीं कर सकती।
आप शुरू से याद करते जाइए, मोदी सरकार सबसे पहले भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आई जो राहुल गांधी की अगुवाई में ही धराशायी किया गया। मोदी सरकार की नोटबंदी का सबसे मुखर विरोध राहुल गांधी ने किया। राफेल के मुद्दे पर ‘चौकीदार चोर है’ का नारा भी राहुल ने इस तरह बुलंद किया कि वह नारा जनता की जुबान पर चढ़ गया। 2018 के विधानसभा चुनावों में राहुल की अगुवाई में कांग्रेस ने देश की फिजा बदली। पुलवामा हमले के बाद कथित बालाकोट हवाई हमला न किया जाता, तो बीजेपी के लिए 2019 लोकसभा चुनाव जीतना मुश्किल ही होता। त्रिपुरा में मुसलमानों के खिलाफ की गई हिंसा हो या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ की जा रही हिंसा, मोदी को सबसे पहले राहुल की आवाज का सामना करना पड़ता है। चीन की भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ, कोरोना में सरकार का ढुलमुल रवैया, अर्थव्यवस्था की जर्जर होती हालात और देश में फैलते क्रोनी कैपिटलिज्म, यानी ‘हम दो हमारे दो’ पर सिर्फ राहुल ने ही सरकार को चुनौती दी है।
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किसी को यकीन न हो तो वह गूगल पर चेक करे कि क्या विपक्ष के किसी और नेता ने हर समय सरकार की नाक में इस कदर दम किया है। राहुल का न दबना और न चुप रहना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार जानती है कि राहुल जो सवाल पूछ रहे हैं, उनका जवाब देने में वह घिर जाएगी। इसलिए उसने मीडिया के एक वर्ग को इस तरह ट्रेंड किया है कि वह राहुल गांधी का मजाक उड़ाए। एक बार अनौपचारिक बातचीत में राहुल गांधी ने कहा भी था कि मीडिया में उनकी छवि ऐसे ही खंडित नहीं हो गई है, उसके लिए सुनियोजित षड़यंत्र के तहत हजारों करोड़ रुपये खर्च किये गए हैं।
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