यह नरेंद्र मोदी हैं कौन? वह किस बात के प्रतीक हैं? शुरू में तो मोदी प्रबल महत्वाकांक्षाओं वाले एक असफल नेता हुआ करते थे। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में ऊपर से बैठाए गए मोदी ने 2002 में मुसलमानों के खिलाफ ऐसा कत्लेआम मचाया कि दुनिया सकते में आ गई। हैरानी की बात है कि विभिन्न देशों में रद्द किए गए वीजा के बावजूद मोदी गुजरात में फिर से चुने गए। क्रूर और आक्रामक संघ परिवार की मदद से 2014 में उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर ही तख्तापलट किया और भारत का प्रधानमंत्री बन बैठे।
अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने राष्ट्रपति शासन का दुरुपयोग करके अरुणाचल की सरकार को पलटा और राज्यपालों और दल-बदलुओं की मदद से गोवा, मेघालय और अब कर्नाटक में सत्ता हथिया ली। उनकी राजनीति के झंडाबरदार उत्तर प्रदेश के भगवाधारी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी हैं, जो लिंचिंग को कोई बड़ा मुद्दा नहीं मानते, लेकिन जाहिर है, वह खुद की लिंचिंग नहीं ही चाहेंगे।
अब हम 2019 में हैं। मोदी ने अपनी रणनीति बिल्कुल बदल दी है। जैसे ही इस बात का अहसास हुआ कि हिंदूवादी सांप्रदायिक अभियान प्रतिकूल परिणाम देने वाला हो सकता है, नए तरह का चुनावी ‘मोदीवाद’ शुरू किया गया। इसके कई उदाहरण हैं। पहला, फरवरी-2019 का अंतरिम बजट जो संसाधन की कमी के बावजूद गरीबों के कल्याण और उन्हें सीधे फायदा पहुंचाने पर केंद्रित था। दूसरा, पुलवामा और बालाकोट का इस्तेमाल ‘राष्ट्र-विरोधी गद्दारों’ को छोड़कर सभी भारतीयों के बीच एक उग्र राष्ट्रवाद का भाव फैलाने में किया गया।
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तीसरा- लोगों को सब्जबाग दिखाया गया कि देश की अर्थव्यवस्था खरबों डॉलर की हो जाएगी और बड़ी मुश्किल से लोगों की गाढ़ी कमाई पर गुजारा करते कारपोरेट में विदेशी निवेश बढ़ेगा। चौथा, असहमति के स्वर को यह दलील देते हुए कुचलना कि उन्होंने ऐसा सांप्रदायिक आधार पर नहीं, बल्कि आतंकवादियों और राजद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई की मंशा के तहत किया। पांचवां, कानून के शासन और एक स्वतंत्र न्यायपालिका में विश्वास जताना। छठा, आर्थिक विकास और उग्र राष्ट्रीयता के नए मंत्र के साथ मोदी के करिश्मे को और बढ़ाने के लिए एक राष्ट्र-एक चुनाव की बात।और सातवां- हालांकि संघ परिवार ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन अब फिर से इसके लिए जोर-शोर से अभियान शुरू कर दिया है।
मोदी की आर्थिक और अन्य नीतियां एक दिशा में देखती हैं तो संघ परिवार को दूसरी दिशा में देखने की छूट दे दी जाती है। मोदी की नीतियों को तटस्थ रूप में पेश किया जाता है, जबकि संघ परिवार को सांप्रदायिकता में लिपटी घृणा और लिंचिंग जैसी घटनाओं को बढ़ावा देने की छूट दे दी जाती है।
अगर विकास ही कुंजी है, तो इतनी सांप्रदायिक अशांति क्यों है। खासतौर पर गाय को लेकर? मैं कश्मीरी ब्राह्मण, न्यायमूर्ति काटजू की तरह गोवंश के लिए निराधार किंतु पवित्र श्रद्धा के होने से इनकार तो नहीं करूंगा, लेकिन क्या यह भावना कभी मारपीट, हत्या के रूप में प्रदर्शित हुई? राजनीतिक सच्चाई यही है कि सरकार बेशक तटस्थ हो, संघ समर्थकों समेत उपद्रवियों को कायराना तरीके से हिंसा भड़काने के लिए खुला छोड़ दिया गया है।
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जुलाई, 2019 में 49 प्रमुख नागरिकों, जिनमें शुभा मुद्गल, कोंकणा सेन, श्याम बेनेगल, आशीष नंदी जैसे लोग शामिल हैं, ने राम के नाम पर की जा रही हिंसा और सरकार से असहमति जताने वालों को ‘राष्ट्रविरोधी’ और ‘अर्बन नक्सल’ करार दिए जाने के खिलाफ विरोध जताते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा। मोदी ने तो कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सोनल मानसिंह, कंगना रनौत, विवेक अग्निहोत्री समेत 62 अन्य हस्तियों ने ‘झूठी अवधारणा’ पर भरोसा करते हुए उन 49 हस्तियों को पाखंडी करार दिया क्योंकि वे माओवादी हिंसा या कश्मीर में मुस्लिम अलगाववादी हिंसा की निंदा नहीं करते और वे ‘असहिष्णु’ हैं। जो भी हो, क्या लिंचिंग बर्बर नहीं? इस पर मोदी मौन हैं ।
जब से मोदी दूसरी बार सत्ता में आए हैं, संसद में एक के बाद एक विधेयक पास कराए जा रहे हैं। तीन तालक अधिनियम ने इस प्रथा को दंडनीय अपराध बना दिया है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे अमान्य घोषित कर दिया था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और सूचना अधिकार अधिनियम की स्थिति को ऐसा बना दिया गया है मानो इनमें नियुक्त लोग प्रोबेशन पर काम करेंगे। ढुलमुल से पिनाकी घोष को एनएचआरसी का अध्यक्ष बनाया गया है। श्रम कानूनों को लचीला बनाने के नाम पर श्रमिक संघों को और भी शक्तहीन बनाया जा रहा है।
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पाकिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई की आड़ में आतंकवाद विरोधी कानून में संशोधन किया गया, लेकिन इसका इस्तेमाल तो किया जाना है भारतीयों के खिलाफ। कॉर्पोरेट कानून को बदला जा रहा है। छोटे-मोटे विधेयकों को तो प्रवर समिति को विचार के लिए भेजा जा रहा है, लेकिन किसी भी विवादास्पद विधेयक को उसके पास नहीं भेजा गया क्योंकि सरकार जानती है कि अपने बहुमत के बल पर वह विपक्ष को चुप करा सकती है।
क्या यह फासीवाद है? फासीवाद की पहचान है- (i) आमजन और राष्ट्र के हित में तटस्थ आर्थिक नीतियों का दावा करना, (ii) चुनाव प्रक्रिया के जरिये सत्ता पर कब्जा जमाना, (iii) भावुक समर्थन के लिए अपने ‘नेता’ के करिश्मा पर निर्भर करना, (iv) उग्र राष्ट्रवाद का माहौल बनाना, (v) अंधराष्ट्रीयता के लिए सेना का समर्थन, (vi) राजनीतिक विरोधियों को आतंकवादी और देशद्रोही करार देने का आधार खोजना, (vii) अंधराष्ट्रीयता को समर्थन देने के लिए खास तरह की विदेश नीति तैयार करना (हमारे मामले में पाकिस्तान, इस्लाम विरोध, आतंकवादी इस्राइल को समर्थन देने के लिए फलस्तीन समर्थक नीतियों को पलटना और इस्लाम विरोधी शरणार्थी नीतियां), (viii) उपद्रवियों और कट्टरपंथियों का क्रूर आधार तैयार करना जो असहमति के स्वर को दबाने के लिए हिंसा, यहां तक कि हत्या का रास्ता अपनाने से भी परहेज नहीं करें, (ix) सेलिब्रिटी प्रचार तंत्र तैयार करना और सरकारी और निजी मीडिया पर नियंत्रण, (x) व्यक्तियों और समूहों को निशाना बनाने के लिए कानून और अभियोजन एजेंसियां बनाना, (xi) संसद की भूमिका खत्म करने के लिए बहुसंख्यकों का इस्तेमाल करना, (xii) विपक्ष की सरकारों को गिराने के लिए संवैधानिक-असंवैधानिक तरीकों को अपनाना, (xiii) न्यायपालिका पर निर्यंत्रण तथा सरोकारी वकीलों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना।
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भारत आज ऐसी स्थिति में है जब आम लोगों, श्रमिक संघों और मीडिया को बड़े पैमाने पर शक्तिहीन कर दिया गया है। किसानों की उपेक्षा की जा रही है। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालयों पर कब्जा करके विमर्श की विषय वस्तु को नियंत्रित किया जा रहा है। आजादी खतरे में है। हमें चुनावी महागठबंधन की दरकार नहीं। बल्कि जरूरत है तो कर्मचारियों-श्रमिक संघों, दलितों और जनजातीय लोगों का महागठबंधन तैयार करने की। जिस तरह दिल्ली में अन्ना का आंदोलन हुआ, वैसा व्यापक विरोध आयोजित करना होगा। जिस तरह की आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं, उसका सामना करने के लिए साहसी पत्रकारों को सामने आना होगा। जिस तरह देश में आंबेडकरवादी न्याय आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था को हाशिए पर धकेला जा रहा है, उसका बौद्धिक तौर पर प्रतिकार करना होगा।
यह सब कतई आसान नहीं होगा क्योंकि ऐसे किसी भी संघर्ष के खिलाफ सरकारी और गैर-सरकारी ताकतें बेहद क्रूर तरीके से पेश आएंगी। संघर्ष का दायरा बड़ा व्यापक है- सड़क, निर्वाचित निकाय और तमाम अन्य जगह। मेरा हमेशा से विश्वास रहा है कि ‘कानून’ अपने आप में संघर्ष का एक मैदान है। कई साल पहले, विश्व युद्धकाल में लेबर पार्टी के नेता नाई बेवन उदारवादी कंजरवेटिव पार्टी के नेताओं से कुछ इस तरह संबोधित हुए- आपकी नजरें तो अनिश्चित भविष्य पर टिकी हैं, लेकिन आपके पैर पीछे पड़ रहे हैं। उन्होंने अपनी बात को इस तरह भी कहाः ‘ वे हमसे कहते हैं कि उधर देखो जिधर हम देख रहे हैं। हम उनसे कहते हैं, देखिए-देखिए आप किधर जा रहे हैं।’
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