विचार

कश्मीर पर अमेरिकी राजनीति के एक धड़े से पंगा लेकर आखिर क्या जताना चाहती है मोदी सरकार!

विदेश मंत्री एस जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत रहे हैं। अमेरिका को वह बखूबी समझते हैं, पर क्या अमेरिकी संसद के समीकरणों में उलझना भारत के हित में है? वहां की डेमोक्रेटिक सांसद से नहीं मिलकर अमेरिकी उदारवादी राजनीति से टकराव मोल लेने की जरूरत क्या है?

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जितनी लहरें देश में उठ रही हैं, तकरीबन उतनी ही विदेश में भी उठी हैं। भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की स्थिति को लेकर कई तरह के सवाल हैं। इस सिलसिले में अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने से लेकर पूरे जम्मू-कश्मीर में संचार-संपर्क पर लगी रोक और अब नागरिकता कानून के विरोध में शिक्षा संस्थानों तथा कई शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों की गूंज विदेश में भी सुनाई पड़ी है। गत 18 से 21 दिसंबर के बीच क्वालालम्पुर में इस्लामिक देशों का शिखर सम्मेलन अपने अंतर्विरोधों का शिकार न हुआ होता, तो शायद भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन चुकी होतीं।

हुआ क्या था?

सवाल यह है कि भारत अपनी छवि को सुधारने के लिए राजनयिक स्तर पर कर क्या कर रहा है? यह सवाल भारत में नहीं अमेरिका में उठाया गया है। भारत और अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू’ श्रृंखला की बातचीत के सिलसिले में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर अमेरिका गए हुए थे। गत 18 दिसंबर को दोनों देशों ने इसके तहत सामरिक और विदेश-नीति के मुद्दों पर चर्चा की। इसी दौरान जयशंकर ने कई तरह के प्रतिनिधियों से मुलाकातें कीं। इनमें एक मुलाकात संसद की फॉरेन अफेयर्स कमेटी के साथ भी होनी थी, जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद प्रमिला जयपाल का नाम भी था। भारत का कहना है कि हालांकि, वह इस कमेटी की सदस्य नहीं हैं, पर उनका नाम मिलने वालों में शामिल था।

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बहरहाल जयशंकर ने डेमोक्रेटिक पार्टी की जयपाल से मिलने से इनकार कर दिया। इसकी वजह यह है कि प्रमिला जयपाल ने हाल में कई बार कश्मीर के हालात पर सवाल उठाए थे और भारतीय कदमों की आलोचना की थी। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रतिनिधि सदन में भी एक प्रस्ताव रखने की पेशकश की है, जिसमें कश्मीर में संचार सेवाओं और इंटरनेट बहाल करने की मांग है। भारतीय अधिकारियों ने कमेटी को सूचित किया कि यदि इसमें प्रमिला जयपाल शामिल होंगी, तो जयशंकर इस कमेटी से मुलाकात नहीं करेंगे।

गत 19 दिसंबर को वॉशिंगटन में भारतीय पत्रकारों से जयशंकर ने कहा कि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में जो प्रस्ताव पेश किया गया है, वह जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति का प्रदर्शन नहीं करता है। उन्हें उस प्रस्ताव की जानकारी है। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर भारत का अपना आकलन है और उनकी दिलचस्पी उनसे मिलने में नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें डेमोक्रेट्स से मिलने में कोई दिक्कत नहीं है। उनके साथ हमारे बेहतरीन रिश्ते हैं।

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प्रस्ताव लाएंगी

भारत का कहना है कि जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंध इसलिए लगाए गए हैं, क्योंकि हमें पाकिस्तानी हस्तक्षेप का डर है। जयशंकर का यह भी कहना था कि हमें वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) तरीके से देखने वालों से बात करने में दिक्कत नहीं है, पर किसी ने पहले से फैसला कर लिया है, तो उसे क्या बताना। उन्हें यही बात प्रमिला जयपाल से भी कहनी चाहिए। उनसे मिलने से इनकार करना कड़ी और कड़वी प्रतिक्रिया है।

प्रमिला जयपाल ने कहा कि भारत सरकार किसी भी असहमति को सुनना नहीं चाहती है। प्रमिला जयपाल ने ‘वाशिंगटन पोस्ट’ से कहा कि वह कश्मीर मामले पर अपने प्रस्ताव के संदर्भ में विदेश मंत्री से बात करना चाहती थीं। उनसे कहा गया था कि जल्दी करने के बजाय भारतीय विदेश मंत्री के साथ बातचीत तक का इंतजार कर लो। अब वह इस प्रस्ताव को जनवरी में लेकर आएंगी। उन्होंने कहा, “मेरे चुनाव क्षेत्र में मतदाता मानवाधिकारों को लेकर संवदेनशील हैं। मुझे उन्हें जवाब देना है।”

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भारतीय राजनयिकों का कहना है कि हाल में जब संसद की समितियों में कश्मीर मामले पर विमर्श चल रहा था, तब हमने प्रमिला जयपाल के सामने अपना पक्ष रखने का प्रयास किया था, पर उन्होंने तब हमें मौका नहीं दिया। ऐसे मौके पर जब अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर सीनेट में विचार होने वाला है, यह प्रकरण भारत सरकार और अमेरिका की आंतरिक राजनीति को लेकर भी कुछ सवाल खड़े कर रहा है। भारत सरकार ने क्या अनुमान लगाया है कि अमेरिकी राजनीति के किसी एक धड़े के साथ पंगा लेने का अर्थ क्या है? क्या इस टकराव को टाला नहीं जा सकता था?

पंगा क्यों लिया?

एस जयशंकर वरिष्ठ डिप्लोमैट हैं, वे काफी समय तक विदेश मंत्रालय के अमेरिका डेस्क के प्रमुख रहे हैं और अमेरिका में भारत के सफल राजदूत रहे हैं। अमेरिका की उनकी समझ बहुत अच्छी है, पर क्या अमेरिकी संसद के समीकरणों में उलझना भारत के लिए हितकर होगा? अमेरिकी उदारवादी (लिबरल) राजनीति से टकराव मोल लेने की जरूरत क्या है? उनके सवालों के जवाब देने में हर्ज क्या है? माना कि अमेरिकी संसद के कुछ सदस्य इस समय भारत को निशाना बना रहे हैं, तो क्या जरूरी है कि उनसे पंगा लिया जाए? उन्हें जवाब दें या उनकी अनदेखी करें।

अमेरिकी संसद के दोनों सदन समय-समय पर दुनिया भर के मसलों पर विचार करते हैं। अतीत में कई अवसरों पर वहां की संसद ने हमारी व्यवस्था और प्रशासन पर टिप्पणियां की हैं, पर यह भी सच है कि आज अमेरिका हमारे सबसे महत्वपूर्ण मित्रों में एक है। सन 1998 के नाभिकीय परीक्षण के बाद लंबे अर्से तक भारत अमेरिकी प्रतिबंधों का शिकार रहा, पर वे प्रतिबंध न केवल हटे, बल्कि आज सामरिक सहयोग की बातें हो रही हैं। ‘टू प्लस टू’ वार्ता इसका उदाहरण है। अमेरिकी जनमत लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे सवालों को लेकर काफी संवेदनशील रहता है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम उन्हें उचित जानकारी दें।

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अमेरिकी अंतर्विरोध

दरअसल इस परिदृश्य के पीछे अमेरिकी राजनीति के अंतर्विरोध भी नजर आ रहे हैं। वहां की सरकार भारत सरकार का समर्थन करती नजर आ रही है और विपक्ष विरोध। हाल में संयुक्त राष्ट्र से लेकर दूसरे तमाम वैश्विक मंचों पर कश्मीर के मामले पर भी अमेरिका ने हमारा साथ दिया है। यह भी माना जाता है कि अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी भारत की आलोचक है, पर हमें उसके साथ भी अपने रिश्ते बनाकर रखने होते हैं। पार्टी के साथ ही नहीं व्यक्तिगत रूप से सांसदों के साथ भी। अमेरिकी राजनीति में सांसद अपने वोटरों की इच्छा को सामने रखते हैं और हमेशा पार्टी के दबाव में नहीं रहते।

वहां अब भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या भी काफी बढ़ी है। देश में 40 लाख से ऊपर भारतवंशी नागरिक हैं। उनकी नजरें भी भारतीय राजनीति और समाज पर रहती हैं। अब वहां की संसद में भारतवंशियों का प्रतिनिधित्व भी है। प्रमिला जयपाल भी उनमें एक हैं। इन भारतवंशियों में सभी धर्मों, जातियों और इलाकों के लोग हैं। उनके साथ संवाद बनाए रखने की जरूरत है, क्योंकि वे भारतीय हितों की रक्षा करते हैं, पर उनकी भावनाओं को समझने की जरूरत भी है।

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हालांकि, अमेरिका के डेमोक्रेट सांसदों को लेकर विदेशी राजनेताओं की ऐसी प्रतिक्रिया पहली बार नहीं हुई है। इसके पहले इस साल अगस्त में इसरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने डेमोक्रेटिक पार्टी की इलहान ओमर और रशीदा तालिब को अपने देश आने की अनुमति नहीं दी थी। उन्होंने यह कदम राष्ट्रपति ट्रंप की सलाह पर उठाया था। उसी महीने रूसी सरकार ने डेमोक्रेट सीनेटर क्रिस मर्फी और रिपब्लिकन पार्टी के रॉन जॉनसन को रूस यात्रा की अनुमति नहीं दी थी। इसी तरह अक्तूबर में डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद क्रिस वान हॉलेन भारत आए और उन्होंने अपनी आंखों से कश्मीर के हालात देखने की अनुमति सरकार से मांगी, जो नहीं मिली।

कश्मीर के संदर्भ में प्रमिला जयपाल के प्रस्ताव के पहले गत 21 नवंबर को अमेरिका की एक सांसद ने प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश किया था। कांग्रेस सदस्य रशीदा टलैब (या तालिब) ने यह प्रस्ताव दिया था। इलहान उमर के साथ कांग्रेस के लिए चुनी गई पहली दो मुस्लिम महिला सांसदों में एक वह भी हैं, जो फलस्तीनी मूल की हैं। प्रस्ताव का शीर्षक था, ‘जम्मू-कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा और कश्मीरियों के स्वयं निर्णय को समर्थन।’ भारत की तरह अमेरिकी राजनीति में भी ध्रुवीकरण साफ है। ट्रंप सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वह भारत, इसरायल और रूस जैसी सरकारों और उनके नेताओं के साथ है। सवाल यह है कि इस टकराव का भागीदार बनना क्या हमारे हित में है?

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