संप्रभु राष्ट्र वे होते हैं जिनके पास अपनी पूर्ण शक्ति और अधिकार होता है। उन्हें कोई भी ऐसा काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जिसे वे न करना चाहें। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक महान शक्ति उसे माना जाता है जिसका प्रभाव उसकी सीमाओं से बाहर भी दूर तक होता है। ऐसी शक्ति न सिर्फ बाहरी प्रभाव का विरोध कर सकती है बल्कि वह अन्य राष्ट्रों या देशों पर अपनी इच्छा थोप भी सकती है।
हमारे दौर में अमेरिका ऐसी ही एक शक्ति है जिसका प्रभाव दुनिया भर में है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने सैन्य शक्ति से लेकर आर्थिक मोर्चे तक और दुनिया की रिजर्वे करेंसी से लेकर तकनीक में शीर्षत्व तक कई मामलों में अपना वर्चस्व स्थापित किया है। रूस वैसे तो अमेरिका और सोवियत संघ के मुकाबले कमजोर है, लेकिन उसे भी उसकी सैन्य ताकत के आधार पर एक मुख्य शक्ति माना जाता है। उसने अपनी सैन्य शक्ति को सीरिया जैसे देशों में तैनात भी किया था। चीन भी निस्संदेह अब एक महान शक्ति है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था बेहद मजबूत है (हमारी जीडीपी के मुकाबले 6 गुना) और रक्षा मद में उसका खर्च हमारे मुकाबले 4 गुना है। चीन का दबदबा पूरे महाद्वीप में है। मसलन अफ्रीका में उसने इंफ्रास्ट्रक्चर और अन्य परियोजनाओं में निवेश किया है जिससे उसे भूराजनीति में लाभ हासिल है।
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भारत फिलहाल अमेरिका या चीन जैसी आर्थिक ताकत नहीं है। रक्षा मोर्चे पर भी हालात अलग हैं। हमारी सेना दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी (चीन के बाद) सेना है लेकिन वह मुख्यतय: रक्षात्मक सेना है जिसका फोकस भारत में घुसपैठ से, खासतौर से कश्मीर में लोहा लेना है और 2020 के बाद उसका ध्यान चीन से लगी सीमाओं पर भी है। हमारी सेना ऐसी नहीं है जो देश की सीमाओं से बाहर कहीं तैनात हो या उसकी ऐसी क्षमता हो।
वैसे ऐसा न करने या करने की कोशिश न करने के हमारे अपने कारण हैं। एक गरीब देश के लिए ऐसा करना उचित भी नहीं होगा कि वह अपने सीमित संसाधनों को सैन्य शक्ति विकसित करने में खर्च करे जोकि पूरी तरह से रक्षा के लिए नहीं है। हालांकि दो तरीकें हैं जिनके जरिए भारत विश्व को प्रभावित कर सकता है। पहली बात तो यह है कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला लोकतंत्र है और वह लोकतांत्रिक मूल्य के विस्तार और प्रसार के लिए दूसरे लोकतांत्रिक देशों के साथ हाथ मिला सकता है। दूसरी बात यह है कि एक ताकत बनने वाली शक्ति बनने के लिए इसे चीन की तरह अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करना होगा तभी निवेश और व्यापार के जरिए वह दुनिया को प्रभावित कर सकता है।
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लेकिन इन दोनों मोर्चों पर भारत नाकाम रहा है। आखिर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना ही नहीं होता है। हममें से ज्यादातर लोग ऐसा ही समझत हैं लेकिन दुनिया के बाकी लोकतंत्रों में ऐसा नहीं होता। लोकतंत्र का अर्थ स्वतंत्र अभिव्यक्ति यानी बोलने की आजादी, धर्म की आजादी और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी उसी तरह नागरिकों को मिलें जैसा कि वोट देने का अधिकार।
इन मामलों में हम वैश्विक संकेतकों पर पिछड़े हुए हैं और मैं इन संकेतकों को सही मानता हूं। भारत एक आंशिक लोकतंत्र ही है। इसके चलते हम अपनी पूरी क्षमता और ताकत का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। इसी कारण से हमें भारत में मानवाधिकारों और अल्पसंख्यकों के साथ बरताव पर दूसरे देश क्या कहते हैं उन्हें सुनना चाहिए।
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर तो क्या ही कहें, बांग्लादेश तक हमसे प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में आगे निकल गया है। 2014 में बांग्लादेश हमसे 50 फीसदी पीछे था, लेकिन हमसे आगे निकल चुका है। बेरोजगारी और उपभोग के मोर्चे पर सरकारी आंकड़े ही सारी हकीकत बयान कर देते हैं। बीते कुछ सालों की हालत देखें तो साफ हो जाता है कि हम आने वाले दिनों में आर्थिक रूप से चीन या अमेरिका के आसपास नहीं पहुंचने वाले।
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हमारे आसपास ही देखें तो जर्मनी, जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया ने आर्थिक और तकनीकी तौर पर खुद को विकसित किया है और इसी आधार पर वह बाहरी देशों को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। इन सभी देशों को मिलाकर भी भारत इनसे कहीं बड़ा है लेकिन हमारी कमजोर अर्थव्यवस्था के कारण हम अपनी क्षमता का इस्तेमाल ही नहीं कर पा रहे हैं।
हमें विश्व में चीन के प्रभाव को ध्यान रखना चाहिए जो उसने 2000 के बाद बड़े पैमाने पर विस्तारित किया है और इसमें उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से भी कोई खास मदद नहीं मिली है। उसके पास संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार है लेकिन सिर्फ यही उसकी शक्ति का आधार नहीं है, उसकी असली शक्ति अर्थव्यवस्था से आती है।
जब हम यह चर्चा करें कि कुछ खाड़ी देशों की मांग और दबाव में भारत सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ने क्यों कदम उठाए तो ये कुछ बातें हैं जिन्हें हमें ध्यान में रखना चाहिए। ये मांगें कितनी जायज थीं, यह अलग मुद्दा है या फिर बीजेपी के कारण भारत इस स्थिति में पहुंचा है, यह भी अलग ही मुद्दा है। बहुत से लोग इस बारे में लिख रहे हैं। मुद्दा यह है कि आखिर बीजेपी सरकार ऐसा कदम उठाने को क्यों मजबूर हुई जो वह करना ही नहीं चाहती थी। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बीजेपी को नहीं पता था कि सरकार के पास भारत के सभी अंदरूनी मुद्दों से ध्यान भटकाने की क्षमता है। हम ऐसे मामलों में नाजुक स्थिति में हैं और अब इसकी पोल खुल चुकी है।
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इस सबसे बीजेपी को क्या सबक मिलता है? बाहरी दबाव का विरोध करने के लिए बीजेपी भारत की अंतर्निहित संपत्ति का उपयोग कर सकती है और मानवाधिकारों और अल्पसंख्यक अधिकारों को अधिक स्थान देकर लोकतंत्र को मजबूत बनाने का प्रयास कर सकती है। इसे अल्पावधि में किया जा सकता है। भारत को एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बनाने में अधिक समय लगेगा, लेकिन पहला कदम यह आकलन करना हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में क्या गलत हुआ है, खासकर 2016 के बाद से।
और अगर यह इनमें से कुछ भी नहीं करना चाहती तो एक तीसरा रास्ता भी है जिसके जरिए बाहरी दबावों को निरर्थक किया जा सकता है।और वह है बीजेपी ऐसा कुछ न करे जिससे कि बाहरी दुनिया को उसे भाषण पिलाने का मौका मिले या हमें ऐसा करना पड़े जो हम करना ही नहीं चाहते।
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