विचार

‘वी द पीपल’: अल्पज्ञात तथ्यों और इतिहास-भूगोल के सूक्ष्म मिश्रण को समेटने वाला खजाना है!

आजादी के ठीक बाद हमारे तबके नेताओं के सामने भारतीय भूगोल को आकार देने का ऐसा काम था जिसकी कोई मिसाल कहीं और नहीं दिखती। उन्होंने उस तूफान से किश्ती को निकाला।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

ऐतिहासिक विवरण आमतौर पर जीतने वाले या फिर हारने वाले के नजरिये से कहे जाते हैं जिसमें स्थानीय या सामयिक चश्मे से घटनाओं या व्यक्तियों के जीवन को देखा जाता है। लेकिन यह पुस्तक स्वतंत्रता के बाद के भारत के इतिहास को एक पूरी तरह अलग और नए अंदाज से देखती है- मानचित्र पर उभरी रेखाओं के आधार पर जिसने आज के भारत को आकार दिया। यह पुस्तक उन राजनीतिक निर्णयों, भाषाई, जातीय, धार्मिक और सामाजिक आकांक्षाओं का विश्लेषण करती है जो यह तय करने का आधार बनीं कि किसी राज्य की आंतरिक सीमा कहां से खींची जाए। इस प्रक्रिया में 1947 में भारतीय गणराज्य के गठन से लेकर 2019 में जम्मू और कश्मीर को संघशासित प्रदेश बनने तक की यात्रा का इसमें विवरण है।

लेखक संजीव चोपड़ा 1952 में भारत के पहले हिन्दी मानचित्र से लेकर 2019 में जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन तक भारत के आंतरिक भूगोल की यात्रा की बात करते हैं। वह हमारे मानचित्र से तिब्बत के हटने और फिर से प्रकट होने के औचित्य, राज्य पुनर्गठन आयोग की भूमिका, भारतीय गणतंत्र में पुर्तगाली और फ्रांसीसी क्षेत्रों के एकीकरण, असम का सात राज्यों में विभाजन और नगालैंड का निर्माण, सिक्किम के विलय, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के गठन, तेलंगाना के अपरिहार्य जन्म, मद्रास, चंडीगढ़ और हैदराबाद जैसी राजधानियों से जुड़े विवाद से लेकर जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के निर्माण की व्याख्या करते हैं। पुस्तक में राजनीतिक आंदोलनों, क्षेत्रीय आकांक्षाओं, भाषाई मांगों का एक आकर्षक वर्णन है और इस बात का उदाहरण कि बातचीत, बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव और राज-नीति से क्या-कुछ हासिल किया जा सकता है।

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562 रियासतों जिनमें से नौ ने पाकिस्तान के साथ जाने का विकल्प चुना था और नौ प्रांतों के विलय और उनकी सीमाएं तय करने से जुड़ा अध्याय खासा दिलचस्प है। चोपड़ा बेहतरीन अनुसंधान के माध्यम से कश्मीर में कांग्रेस, मुस्लिम लीग, शेख अब्दुल्ला और महाराजा हरि सिंह के रुख और उनकी अपनी-अपनी बाध्यताओं को उजागर करते हैं। हालांकि महाराजा हरि सिंह ने आखिरकार 26 अक्तूबर, 1947 को भारत में अधिग्रहण के दस्तावेज पर दस्तखत कर दिए लेकिन वह ऐसी विरासत छोड़ गए जिसने आज भी हमें उलझा रखा है: कश्मीर के कुल 2,22,236 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाकिस्तान और चीन ने क्रमशः 78,114 वर्ग किलोमीटर और 42,735 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा कर रखा है।

एक छोटी-सी समीक्षा में प्रत्येक राज्य की मानचित्र-संबंधी पृष्ठभूमि का वर्णन संभव नहीं है लेकिन चैम्बर ऑफ प्रिंस के सिरमौर हैदराबाद की तत्कालीन रियासत से संबंधित अध्याय से सहज ही अंदाजा लग जाता है कि यह पुस्तक तथ्य और नजरिये के लिहाज से कितनी दिलचस्प है। हैदराबाद के तत्कालीन निजाम उस्मान अली खान ने 1947 के दौर में भी भारतीय मुसलमानों के नेतृत्व के मामले में खुद को जिन्ना के प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी और इसका असर आगे भी रहा। विडंबनापूर्ण विरोधाभास है कि कश्मीर और हैदराबाद में एक-दूसरे से एकदम अलग स्थिति थी- दोनों पर ऐसे शासकों का शासन था जो अपने बहुसंख्यक प्रजा से भिन्न धर्म से जुड़े थे! चोपड़ा बताते हैं कि कैसे कांग्रेस, हिन्दू महासभा और आर्य समाज की सक्रियता ने धीरे-धीरे निजाम के लिए संप्रभु स्वतंत्र बने रहना मुश्किल कर दिया था। अली खान को न तो माउंटबेटन का साथ मिला और न ही जिन्ना का। जिन्ना तो उन्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते थे और नहीं चाहते थे कि उनकी रियासत पाकिस्तान का हिस्सा बने। इस मामले को आखिरकार ऑपरेशन पोलो के जरिये निपटाया गया जब 15 सितंबर, 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया और इस तरह निजाम की रियासत भारत का हिस्सा बन गई।

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आपस में झगड़ते रहने वाली रियासतों का विलय वैश्विक इतिहास में अपने आप में एक अनूठा काम था। यह कितना मुश्किल और कितनी व्यापक प्रकृति का काम था, इसे केवल इसी उदाहरण से समझा जा सकता है- अकेले गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में 222 अलग-अलग रियासतें थीं! इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह हमें उस दौर में ले जाकर यह बताने का प्रयास करती है कि प्रतिस्पर्धी मांगों को संतुलित करने के बाद किस तरह महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हिमाचल, आंध्र प्रदेश, मद्रास, मध्य प्रदेश जैसे आज के विभिन्न राज्यों ने आकार लिया। नए राज्य बने और हैदराबाद और बड़ौदा जैसे पुराने राज्य मानचित्र से गायब हो गए। ज्यादातर लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि तेलंगाना के बीज 1957 में ही पड़ गए थे जब दोनों क्षेत्रों के नेताओं ने सत्ता को साझा करने का समझौता किया था।

यह पुस्तक हमें इतिहास की अल्पज्ञात घटनाओं की भी जानकारी देती है। जैसे: कैसे बंगाल और बिहार को मिलाकर एक विशाल राज्य बनाने का काम होते-होते रह गया क्योंकि इस बात के बावजूद कि दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री इसके लिए सहमत थे, राज्य पुनर्गठन आयोग को यह प्रस्ताव औपचारिक रूप से भेजा ही नहीं गया। यह पुस्तक पाठकों को फ्रांसीसी और पुर्तगाली क्षेत्रों के विलय के अंतरराष्ट्रीय प्रभावों, रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अंडमान और निकोबार और लक्षद्वीप समूह के इतिहास, पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के जटिल सरोकारों, नगाओं के लिए अंग्रेजों की कोमल भावनाओं से लेकर ए, बी और सी राज्यों के बीच का अंतर और इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन, मर्जर एग्रीमेंट और स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट के बीच के बारीक अंतर को भी समझाती है।

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‘वी द पीपल’ अल्पज्ञात तथ्यों और इतिहास और भूगोल के सूक्ष्म मिश्रण को समेटने वाला खजाना है। रोम एक दिन में नहीं बना था और न ही भारतीय गणतंत्र। सच पूछे तों 75 साल बाद भी यह काम अभी चल ही रहा है जो दिखाता है कि आजादी के ठीक बाद हमारे राष्ट्र के संस्थापकों के सामने कितनी बड़ी चुनौती थी। यह पुस्तक उन राजनेताओं, दूरदृष्टाओं और प्रशासकों को श्रद्धांजलि होनी चाहिए जिन्होंने राष्ट्र को तूफानी समुद्रों से निकालकर किनारे तक सुरक्षित लाने के मुश्किल काम को अंजाम दिया और जिसकी बदौलत आज का भारतीय गणराज्य फल-फूल रहा है, मजबूत है। इस पुस्तक को आज के उन सांसदों और राजनेताओं को तो जरूर पढ़ना चाहिए जो आजादी के बाद के उस अराजक दौर से राष्ट्र को निकालने की तबके नेताओं की अभूतपूर्व उपलब्धियों को जाया करने को कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

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