विचार

आकार पटेल का लेख: आखिर क्यों न याद रखें भीमा कोरेगांव केस!

भीमा कोरेगांव ऐसा केस है जिससे साफ पता चलता है कि सरकार उन लोगों के खिलाफ क्या कुछ कर सकती है जो वंचित तबकों के खिलाफ सरकारी उत्पीड़न के विरोध में खड़े होते हैं। उन्हें सरकार के दुश्मन के तौर पर देखा जाता है और सरकार जब तक चाहे उन्हें जेल में रख सकती है।

भीमा कोरेगांव केस को 5 साल पूरे हो चुके हैं (फोटो - सोशल मीडिया से)
भीमा कोरेगांव केस को 5 साल पूरे हो चुके हैं (फोटो - सोशल मीडिया से) 

इस महीने भीमा कोरेगांव मामले में पहली गिरफ्तारी के पांच साल पूरे हो गए हैं।  इस केस में कुल 16 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिसमें एक फादर स्टेन स्वामी भी थे, जिनकी हिरासत में मौत हो गई थी। गिरफ्तार किए गए ज्यादातर लोग अभी भी जेल में हैं। गिरफ्तार किए गए लोगों में से किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया है, और न ही किसी का हाथ हिंसा में होने की बात साबित हुई है, और न ही भीमा कोरेगांव से किसी का कोई नाता जोड़ा गया है।

अगर किसी को ऐसे कानून की मिसाल देनी हो जो बहुत ही कठोर हो और जिसमें सरकार की क्रूरता इस हद तक सामने आए कि इस कानून के तहत किसी पर मुकदमा चलाने के बजाए लोगों को बेमियादी मुद्दत के लिए जेल में रखने की मंशा जाहिर होती हो, तो उसके लिए भीमा कोरेगांव केस की मिसाल दी जा सकती है।

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महत्वपूर्ण बात यह है कि हम न तो इस केस को अपनी स्मृति से हटाएं और न ही उन्हें जो इस कानून के तहत जेल में डाल दिए गए हैं। यूएपीए के तहत दर्ज किए गए मामलों में से 10 फीसदी से भी कम मामले खत्म किए गए हैं और सभी दर्ज मामलों में से केवल एक चौथाई मामलों में ही दोषसिद्धि हुई है। इस विशेष मामले में, यानी भीमा कोरेगांव मामले में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है उनमें शिक्षाविद, प्रोफेसर, वकील, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। इन सभी पर राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया है।

जिस शख्स की शिकायत पर इन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उसका कहना है कि वह अपने हिंदुत्व के लिए एक सरल सा नियम अपनाता है। ‘जिन भी चीजों से हिंदुओं की मदद होती है, उन्हें बचाया जाना चाहिए, बाकी को छोड़ दिया जाना चाहिए।' इस व्यक्ति की शिकायत के बाद ही भीमा कोरेगावं केस में, सरकार का तख्ता पलट करने और प्रधान मंत्री की हत्या की साजिश रचने के आरोपों को शामिल किया गया था।’

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विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद इस केस को पुणे पुलिस से वापस ले लिया गया था। बाद में उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके कुछ समय बाद ही केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र को बताया कि भीमा कोरेगांव केस की जांच 24 जनवरी 2020 को एनआईए को सौंप दी गई है। इससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि केंद्र सरकार की मंशा क्या है। इस दौरान भीमा कोरेगांव के आरोपियों के साथ सरकारी ज्यादतियों की खबरें सामने आती रहीं हैं। इनमें से कुछ की सूची मीडिया वेबसाइट न्यूज लॉन्ड्री ने बनाई है।

फादर स्टैन स्वामी पारकिंसन बीमारी से पीड़ित थे, लेकिन उन्हें हफ्तों तक जेल में स्ट्रॉ से कुछ भी पीने की इजाजत नहीं दी गई। शोमा सेन आर्थराइटिस से पीड़ित हैं, और उन्हें देसी तरीके के कमोड पर बैठने में दिक्कत होती है। इस तकलीफ से निजात के लिए शोमा सेन की बेटी उनके लिए एक कुर्सी लेकर आई, लेकिन इसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी गई।

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सुरेंद्र गाडलिंग ने यूएपीए और आईटी एक्ट की कॉपी और उससे जुड़े नोट्स बनाने के लिए कुछ कागजों की मांग के साथ ही स्वामी विवेकानंद द्वारा लिखित 4 किताबों की मांग की। लेकिन इस मांग को ठुकरा दिया गया। सरकार ने इसका यह कहते हुए विरोध किया कि उन्हें अनुमान नहीं है कि विवेकानंद की किताबें भारत में प्रतिबंधित हैं या नहीं।

इसके बाद अदालत ने किताबों को लाने की इजाजत दे दी, लेकिन जेल अधिकारियों ने अभी तक इन किताबों को गाडलिंग को नहीं सौंपा है। अदालत के आदेश के बावजूद उन्हें एक स्वीटर पहनने की इजाजत नहीं दी गई, और बताया गया कि सिर्फ थर्मल स्वीटर की ही इजाजत है न कि ऊनी स्वीटर की। इसके बाद जब उनकी पत्नी पूरी बांहों का थर्मल स्वीटर लेकर आईं तो यह कहकर इनकार कर दिया गया कि सिर्फ आधी बांहों के स्वीटर की ही इजाजत है।

70 वर्षीय गौतम नवलखा का चश्मा जेल में चोरी हो गया। और इसके बिना वे एक तरह से नेत्रहीन से हो गए। लेकिन उन्हें तीन दिन तक दूसरा चश्मा बनवाने की अनुमति नहीं दी गई। उनक पार्टनर ने उनके लिए जेल में नया चश्मा भेजा लेकिन जेल प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी, जबकि इस बारे में जेल को पहले ही सूचित कर दिया गया।

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जब गाडलिंग की मां का देहांत हुआ, तो उन्होंने अंतिम संस्कार में शामिल होने की अर्जी दी। लेकिन इसे यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उनकी अर्जी के साथ मां की मौत का मृत्यु प्रमाणपत्र नहीं लगा है और इसके बिना एनआईए यह नहीं मान सकती कि उनकी वास्तव में मृत्यु हुई है। इसके बाद जब गाडलिंग ने अर्जी दी कि वे मां की स्मृति सभा में शामिल होना चाहते हैं, तो इसे भी यह कहकर खारिज कर दिया गया कि अर्जी के साथ सभा की प्रति नहीं लगाई गई है।

जब सुधीर धवाले के भाई की मौत हुई, तो उन्होंने अपनी अर्जी के साथ सभी दस्तावेज, अंतिम संस्कार के बाद होने वाली स्मृति सभा के निमंत्रण वाला कार्ड और मृत्यु प्रमाणपत्र भी लगया। लेकिन इस अर्जी को भी यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उन पर लगा आरोप ‘गंभीर’ है, इसलिए जमानत नहीं दी जा सकती। इसी तरह महेश राउत की बहन की शादी जब हुई तो वह जेल में ही विचाराधीन कैदी थे। जब मई 2021 में कॉलिन गॉन्जाल्विस की मां का देहांत हुआ तो उन्होंने कोई अर्जी दी ही नहीं ताकि उनके परिवारों को बाकी के परिवारों की तरह प्रताड़ना का सामना न करना पड़े।

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फरवरी 2021 में द वाशिंगटन पोस्ट ने खबर दी कि जिस पत्र को सरकार बड़ा सबूत मान रही थी, वह तो रोना विल्सन के लैपटॉप में प्लांट किया गया था, यानी उसे लैपटॉप जब्त करने के बाद उसमें डाला गया था। एक अन्य स्वतंत्र विश्लेषण से सामने आया कि इसे पत्र को लैपटॉप में डालने के लिए मालवेयर का इस्तेमाल किया गया। जो पत्र दिखाए गए, जिनमें वह पत्र भी शामिल था जिसमें कथित तौर पर मोदी की हत्या की साजिश का जिक्र था, उसे माइक्रोसॉफ्ट के उस वर्जन का इस्तेमाल कर लिखा गया है जो लैपटॉप की बरामदगी के वक्त तक विल्स के लैपटॉप में था ही नहीं। इस बात का भी कोई सबूत नहीं है कि इस दस्तावेज को या किसी हिडेन फोल्डर (छिपे हुए फोल्डर) को कभी खोला भी गया है।

अप्रैल 2021 में एक बड़ी डिजिटल फॉरेंसिक ने कहा कि उसके पास इस बात के ‘पक्के और झुठलाए न जा सकने वाले’ सबूत हैं कि विल्सन के कम्प्यूटर को हैक किया गया था। इसमें भीमा कोरेगांव की घटना के 11 दिन बाद यानी 11 जनवरी 2018 को फाइलों को डाला गया था।

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इतना सबकुछ होने के बाद भी अधिकांश आरोपी जेल में ही हैं। भीमा कोरेगांव केस अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसमें सरकार ने असहमति जताने वालों को निशाना बनाने के लिए कानून का दुरुपयोग किया हो। उमर खालिद को भी जेल में 1000 दिन से ज्यादा हो गए हैं। खालिद उन लोगों में सबसे मुखर आवाजों में से शामिल हैं जो बीजेपी के कृत्यों के खिलाफ उठती हैं। जाहिर है कि आज के दौर में अल्पसंख्यक, गरीब और वंचित तबके के लोग अधिक सरकारी प्रताड़ना का शिकार हो रहे हैं।

इसमें कोई विवाद नहीं है। लेकिन भीमा कोरेगांव एक प्रतीकात्मक केस जरूर है। इससे पता चलता है कि सरकार उन लोगों के खिलाफ क्या कुछ कर सकती है जो वंचित तबकों के खिलाफ सरकारी उत्पीड़न के विरोध में खड़े होते हैं। और, उन्हें सरकार के दुश्मन के तौर पर देखा जाता है और सरकार जब तक चाहे उन्हें जेल में रख सकती है।

जब तक हममें से बाकी लोग सरकार के इस रवैये के खिलाफ आवाज नहीं उठाते, जब तक हम उन लोगों को भूलते रहेंगे जिन्हें निशाना बनाया गया है, तब तक यह व्यवहार जारी रहेगा। ‘भीमा कोरेगांव 16’ को नहीं भूलना चाहिए।

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