मेरा पहला टीवी न्यूज प्रोडक्शन 9 अगस्त, 1975 का हुआ था। यह कोलकाता में आकाशवाणी-टीवी का उद्घाटन दिवस था। यह देखने योग्य समाचार थे। सरकारी प्लेटफॉर्म होने की वजह से इसकी अपनी सीमाएं थीं। लेकिन उस अवधि के दौरान मैंने करंट अफेयर्स की जो प्रस्तुतियां दीं, उस पर प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक मृणाल सेन और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। उन लोगों को लगा कि मैं अपने दृष्टिकोण में कुछ ज्यादा ही बोल्ड हूं और चर्चा के विषय सारगर्भित हैं। तमाम सीमाओं के बावजूद हमने ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिन पर प्रतिक्रिया हुई और वे विचारों को झकझोरने वाले थे।
मैंने लगातार दो चुनावों में एनडीटीवी पर नया चलन शुरू करने वाला चुनाव विश्लेषण कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया। आजतक-इंडिया टुडे के लिए भी इसी किस्म के कार्यक्रम भी मैंने प्रस्तुत किए। मुझे याद है कि मैंने करण थापर को आक्रामक लेकिन चोट पहुंचाने वाला न होने वाला होने को कहा था। पीछे मुड़कर मैं देखता हूं, तो आज के ट्रेन्ड की तुलना में रुख और भाषा की दृष्टि से करण बिल्कुल जेंटलमैन थे। आखिरकार, हमने समाचार कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे, नाटक नहीं। हमारे लिए समाचार ऐसे एफएमसीजी उत्पाद थे जो देश भर में बेचे जाने वाले हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर, धारावाहिकों और टीवी कथाओं की तरह ही आज समाचार भी असभ्य, प्रतिशोधी और क्रूर हैं।
Published: undefined
लेकिन ऐसा क्यों है? अगर आप इसके प्रस्तोताओं से मिलें तो आप उन्हें बहुत शिष्ट और भद्र पाएंगे। तो क्या वह अभिनय करते हैं? क्या समाचारों की प्रस्तुति एक मंच है जहां मुक्तिदाता- देवात्मा की भूमिका निभानी है? व्यापक तौर पर एक खलनायक होना चाहिए जिसे ललकारा जाना, सवालों से तंग करना और किनारे कर दिए जाने की जरूरत है। असुर को दुर्गा द्वारा मारा जाना जरूरी है। देश की सुरक्षा उनके हाथों में है जबकि पुलिस तमाशबीन है। यह कितना हास्यास्पद हो सकता है... धारावाहिक पारिवारिक झगड़ों पर चलते हैं जहां लडाई- झगड़े, धोखा, कपट रणनीति का हिस्सा हैं, प्रतिशोध वह जादुई छड़ी है जो अपने अस्तित्व के लिए टीआरपी को बढ़ाता है।
क्या समाचार की भी यही रणनीति होती है? विश्वसनीय, अपक्षपाती संतुलित समाचारों को क्या हो गया? कमर्शियल समाचार- जहां पेड न्यूज प्रमुख भूमिका निभाती है, के आगमन के बाद हम इससे बेहतर क्या अपेक्षा कर सकते हैं? यह दुखद है कि देश इस तरह का कूड़ा-करकट देखता है। क्या यह इसके साक्षरता स्तर का प्रतिबिंब है?
Published: undefined
अब सब्जी बेचने वालों को ही देखिए। वे विशिष्ट तरीके से आवाज निकालने की कला का उपयोग करते हैं ताकि घर में रह रही महिला तक उसकी आवाज पहुंच सके। यह जो समाचार बेचने वाले लोग हैं, उनके मामले में भी यही है- कि वे लोगों को बांध सकें जो उन्हें टीआरपी के प्वाइंट दिलाए। पेड न्यूज ऐसा टर्म है जिसका कभी-कभी उपयोग किया जाता है। यह अब खुला रहस्य हो गया है। मुझे संदेह होता है कि यह सिर्फ पेड न्यूज है या पेड चैनल है जो अपनी योजना के हिस्से के तौर पर हमारे उपद्रवी कोलाहल को हिलोड़ रहा है। राजनीतिज्ञ निश्चित तौर पर अपनी फसल काटेंगे, यह राजनीति का हिस्सा है। उन्हें देखा जाना है। उन्हें सुना ही जाना है। वे विवाद पैदा करते हैं। लेकिन धन के लालच में शिकार बनना, पत्रकारिता को खरीदा जाना- मेरे लिए इसे स्वीकार करना निश्चित तौर पर कठिन है। और यह सिर्फ उच्च स्तर पर ही समाप्त नहीं होता। बॉस सब दिन सही ही होता है। यह जमीन पर काम कर रहे लोगों तक भी पहुंचता है। आखिरकार, मार्केटिंग टीम सुनिश्चित करती है कि ब्रांड और प्रोडक्ट के मूल्य जमीनी स्तर पर भी दिखें।
Published: undefined
आपको सवाल पूछने के लिए पढ़ने, रीसर्च करने की जरूरत नहीं है- आज कल आपको रास्ता बनाने, धक्का-मुक्की करने, किसी ऐसे व्यक्ति के सामने माइक्रोफोन घुसेड़ देने के लिए अपनी कोहनी का इस्तेमाल करने की क्षमता की जरूरत है जो संभव है, प्रतिक्रिया देने की जरूरत भी नहीं समझता हो। जब आप कैमरे पर बात कर रहे हों, तो आपको रिपोर्टर नहीं, कमेन्टेटर की तरह होना चाहिए... स्टूडियो एंकर की ओर से आए सवाल पर ‘आप बिल्कुल सही कह रहे हैं’ से अपनी बात शुरू करनी है। वहां जरा भी अंतर नहीं हो सकता, मगर हर चैनल एक्सक्लूसिव के तौर पर अपने टेलीकास्ट को आगे बढ़ाता रहता है!
ऐसा भी नहीं है कि पहले ‘खरीदे जाने योग्य’ रिपोर्टर नहीं होते थे, लेकिन तब उनकी संख्या नगण्य थी। ऐसे अधिकांश लोग इस पेशे में आए क्योंकि वह आसानी से ‘खरीदे जाने योग्य’ थे। पी. साईनाथ ने सब दिन व्यवस्था के खिलाफ लिखा। मैं यह यकीन नहीं कर सकता कि किसी ने उन्हें खरीदने की कोशिश नहीं की होगी। उन्हें पद्मश्री का प्रस्ताव नहीं दिया गया होगा जिसे उन्होंने ठुकरा दिया होगा?
Published: undefined
मुझे लगता है, सत्यजीत रे के पिता सुकुमार रे को इस गिरोह का अंदाजा हो गया था और तभी उन्होंने ‘बाबूराम सपूरे’ लिखा। इसमें कुछ ऐसा वर्णन है- हैलो, बाबूराम - आपको वहां क्या मिला है? सांप? क्या आपको लगता है कि यह कोई ऐसा सांप है जिसे आप छोड़ सकते हैं? मुझे तो ऐसे सांप पसंद हैं, लेकिन एक बात बता दूं – न तो काटने और न ही फुफकारने वाले सांप मुझे पसंद हैं। मैं उन सांपों को भी छोड़ दूंगा जो फन से चोट करते हों, सनसनाहट की आवाज निकालते हों, फन तानकर खड़े हो जाते हों। जहां तक खाने की आदत बात है, मुझे वे अच्छे लगेंगे जो केवल दूधऔर भात खाते हों। मुझे भरोसा है कि आप समझ गए होंगे कि मुझे कैसे सांप चाहिए। जब आपके पास ऐसा कोई सांप हो तो बाबूराम, मुझे बताएं जिससे मैं इसके फन पर चोट कर सकूं।
सिर फोड़ने का कार्यक्रम चल रहा है। आधुनिक शब्दावली में, सुकुमार रे के बेटे ने ‘मगज़ धुलाई' या ब्रेन वाशिंगशब्द का इस्तेमाल करते हैं। हम सांप को देखने से इनकार करते हैं- जिसका दंश कभी भी आपको हमेशा के लिए चुप कर सकता है। समाज की झिझक उसी नींव को बर्बाद कर सकती है, जिस पर वह खड़ा है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined