कुछ ही दिनों में गांधीजी की 150वीं जयंती के समारोह समापन का सरकारी कुंभ शुरू होने जा रहा है। देश के कई कोनों से तरह-तरह के साधुओं के अखाड़े प्रकट होकर गांधी के गुण, उनके प्रिय भजन गाएंगे। उनके शाकाहार और सदाचारी जीवन को अनुकरणीय बताएंगे। जगह-जगह जलसे होंगे, गांधी वांग्मय की नुमाइशें लगेंगी, समीक्षा लेखों-भाषणों की बाढ़ आ जाएगी। दंभी फूहड़पने से कहा जाएगा कि देश को आज फिर गांधीजी की राह पर चलने की जरूरत है, आदि।
विडंबना देखिए, गांधी को एक अवतार पुरुष बता रही पार्टी की एक सदस्या ने अभी हाल में चुनावी माहौल में गांधीजी के पोस्टर पर गोली चलाई थी। एक अन्य सदस्या ने गांधी के हत्यारे गोडसे की तारीफ करते हुए उनको गांधी से बड़ा युगपुरुष बताया। क्या हमारा नेतृत्व समझता है कि युगपुरुष, होता क्या है? गांधी उनकी समझ में नहीं आते, क्योंकि गांधी एक विशाल जनांदोलन के रणनीतिकार थे, जिन्होंने अपने विचार और आंदोलन की राह कई बार वक्त की जरूरत के अनुसार बदली थी? लेकिन साध्य और साधन की पवित्रता का अनुपात उन्होंने कभी गिरने नहीं दिया।
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गांधी का कोई रास्ता परिवर्तनहीन नहीं है। स्वदेशी, स्वच्छता और अहिंसा पर उनके विचार गौर से देखने पर बहुत जटिल और परतदार निकलते हैं। मसलन भारत वापसी की घड़ियों में गांधीजी ने मशीनों की कठोर निंदा करते हुए (हिंद स्वराज में) लिखा था कि वे यांत्रिक पिशाच हैं, जुलाहों को, किसानों को वे बरबाद कर रही हैं। पर आगे जाकर जब सघन जनसंपर्क के लिए उन्होंने मीडिया की उपादेयता पहचानी, तो ‘नवजीवन’ का यांत्रिक प्रेस हाथ में लिया और छापा मशीनों की मदद से (हाकिमों तक बात पहुंचाने को) अंग्रेजों और जनता तक स्वराज का संदेश पहुंचाने को गुजराती तथा हिंदी के अखबार निकाले। रेलों, अस्पतालों और अदालतों के बारे में भी उनकी शुरुआती राय बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी 1948 तक आते-आते उन्होंने उनकी अनिवार्य उपस्थिति स्वीकार कर ली थी। क्योंकि बिना रेलों से सफर किए उनका सघन जनसंपर्क कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता था।
उनके दर्शन के तहत सिर्फ सही मंजिल तक पहुंचना नहीं, सही रास्ते पर चलना महत्वपूर्ण था। आज पांच ट्रिलियन की इकोनॉमी की मंजिल पाने के लिए हर रंगत की विदेशी पूंजी न्योतने, आदिवासियों से अधिग्रहीत जमीन कारखानों तथा खदानों के लिए बेचने और इस मुहिम के तहत दलितों, अल्पसंख्यकों के संवैधानिक हकों को डीप फ्रीज में डालने का जो रास्ता अख्तियार किया गया है, उस पर गांधीजी होते तो आज की तारीख में क्या कहते, यह सोचना दिलचस्प होगा।
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गांधी जो बोले, जो उन्होंने लिखा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि हम उससे बंधकर गांधी को एक मूर्ति या अवतार पुरुष की तरह न याद करें। हमारा समय अलग है, और 2019 में भारत के राजनीतिक पर्यावरण से उनके मूल्य इस तरह गायब हो चुके हैं जैसे वे कभी थे ही नहीं। इसलिए सरकारी समारोहों में गांधी का गुणगान वैसे ही अर्थहीन बन गया है, जैसे किसी मध्यवर्गीय घर में जगराता। कोने में कुछ बूढ़े गुट हल्के सुरों में बतियाते रहते हैं, कामकाजी लोग आकर कुछ समय बाद पंडिज्जी और चौकी को नमस्कार कर निकल जाते हैं। बच्चे शोर मचाते यहां-वहां फिरते हैं, और भक्त लोग भोग और चरणामृत के प्रबंधन में। अंत में आरती के समय आरती होती है, परशाद बंटता है फिर जै रामजी की!
अपने अवतार पुरुषों के अभिनंदन में हम किसको प्रणाम करते हैं? राजनेताओं की क्या मजबूरी है कि पार्टी के बड़े लोग गोडसे को आप्त पुरुष मानें, और गांधी को छुटभैय्ये गली-गली गरियाते फिरें, फिर भी हर दो अक्टूबर को सरकार उनके पुण्य स्मरण का सार्वजनिक कर्मकांड आयोजित करे? हर विदेशी राजनीतिक मेहमान से तामझाम सहित राजघाट पर फूल चढ़वाए?
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दरअसल गांधी की स्थिति आज बहुत कुछ गौतम बुद्ध की तरह होती चली गई है। दोनों के मरणोपरांत उनके शिष्यगणों की अगली पीढ़ी पहले झगड़ालू वैचारिक संघों में बंटी, फिर वे राज्याश्रयी होकर विशाल शैक्षिक परिसंपत्तियों, पुस्तकालयों के मालिक बने। इसके बाद बुद्ध और गांध की निरंतर घूम-घूम कर जन-जन के बीच सही धम्म का प्रचार करना छोड़ उनके अनुयाई आसपास के निरक्षर गरीब ग्रामवासियों से दूर अपने ज्ञान को अपने ही मठों तक सीमित रखने लगे।
11वीं सदी तक बौद्ध भिक्षुगण स्थानीय लोगों से इस कदर कट चुके थे कि जब विदेशी आक्रांताओं के हमले हुए, तो वे तटस्थ रहे और नालंदा, तक्षशिला सब खंडहर बन गए। यही गांधी के अनुयाइयों के साथ भी हुआ, और आज 2019 में भी उसी तरह सामाजिक समरसता, सत्य और अहिंसा के जिन मूल्यों के लिए गांधी ने अपने जीवन की बलि दे दी, वे सब कश्मीर से कर्नाटक तक हर कहीं बुरी तरह क्षत-विक्षत हैं, और लोग बाग इस कदर तटस्थ हैं, मानो यह सब हिंसक घटनाएं, सरेआम संविधान तथा लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाना किसी और ग्रह पर हो रहा हो।
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क्या अवतारवादी भारत की बुनियादी प्रकृति में ही कुछ है जो उसे बार-बार अपने इतिहास पुरुषों के संदेशों, उनकी बौद्धिक धरोहर से इतना फिरंट, इतना विपरीतगामी बना देती है? राजकीय समारोहों के आईने में देख कर लगता है कि आज बुद्ध या गांधी दोनों अवतारी पुरुष बन गए हैं। राजनेताओं के लिए अपनी चुनावी दुकानदारी चलाने के वास्ते दोनों का व्यक्तित्व और प्रतिमाएं लगाना या तोड़ना अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन उनके जीवन और संदेशों का मूल समझ कर जनता के बीच उनकी तरह लगातार जा-जा कर उनकी वैचारिक विरासत को लगातार बढ़ाने का काम कौन कर रहा है?
बुद्ध ने ईसा पूर्व चौथी सदी की हताश जड़ जनता को जातिप्रथा, सामंतवाद और अनचाहे गार्हस्थ्य जीवन से मुक्ति दिलाई और उनके कई सदियों बाद गांधी ने एक बार फिर सदियों से विदेशियों के हाथ गिरवी पराधीन और भाग्यवादी लोगों को संगठित कर उनको स्वराज और अंतिम सीढ़ी पर खड़े जन का हितैषी बनने का मंत्र दिया। पर उनके आज के उत्तराधिकारियों को सिर्फ 30 जनवरी और 2 अक्टूबर को गांधी की विरासत के नाम पर रामधुन, वैष्णवजन और बहुत हुआ तो बॉलीवुड श्टाइल गांधीगिरी याद आती है।
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हम आज भी ज्ञात इतिहास का सही तरह पीछा करते हुए उससे अपने वक्त के लिए सही सबक नहीं ले रहे। हम अवतारों, अतीत के वेतालों और पुरखों की तरह गांधीजी को रूढ़ियों के बीच याद कर रहे हैं। अक्टूबर 2019 को जो मनने जा रही है, वह गांधी की 150वीं सालगिरह नहीं, उनका 150वां श्राद्ध है। हाल के पांचेक बरसों के दौरान जो कुछ घटा और जिस तरह उसे संभव बनाया गया, सार्वजनिक हिंसा जिस सुनियोजित तरीके से फैलाई और चलाई जा रही है, उसे देख कर भी लोग अनजान होने का नाटक कर रहे हैं। कई लोग तो सवाल उठाने को देशद्रोह का पर्याय मानने लगे हैं।
जाहिर है कि भारतीय लोकतंत्र में, अभिव्यक्ति की आजादी में और न्याय व्यवस्था में भारत के आम नागरिक की कोई खास रुचि नहीं रही, जब तक खुद उसका घर महफूज है, उसे क्या? उसे उसका 4जी का स्मार्ट फोन जो खबरें दे रहा है, उनके स्रोत क्या हैं, कौन उनकी सचाई की पड़ताल कर रहा है? जो वीडियो उसे मिल रहे हैं उसमें से कितने फेक हैं, कितने नहीं, नौकरियां गायब हो रही हैं, शेयर बाजार गिर रहा है यह सब उसके लिए मजाक के विषय हैं। उसकी चिंता के विषय यही हैं कि उसका टॉक टाइम क्या सस्ता होगा? उसके बच्चे का दाखिला किस तरह किस निजी स्कूल में कौन करवा सकता है?
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धर्म और इन्फोटेनमेंट की अफीम की गोली मुंह में डालकर पड़े लोगों को अपने लोकतंत्र के चारों पायों का दरकना, डराता या उत्तेजित नहीं करता। शब्द और कर्म के बीच की खाई देखना हमने एक बार फिर छोड़ दिया है। और अफीम की झोंक में रक्तरंजित सार्वजनिक मंचों से आवाज के तमाम नाटकीय उतार-चढ़ाव के साथ बोलते नेता हमको उतने ही सुहाने भरोसेमंद लग रहे हैं जितने कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के साहिब लोग लगते थे। आज की कट्टरपंथी बनती जा रही पेशेवर राजनीति के तहत बुद्धि का उपयोग करने, सोचने-विचारने वाले स्वप्नदर्शी लोग खतरनाक हैं। उनको मेकेनिक किस्म के प्रशासक पसंद हैं जो सवाल नहीं पूछते, सिर्फ कलपुर्ज़ों की मरम्मती करते रहते हैं ताकि उनको दी गई मशीनें चलती रहें।
गांधी सत्याग्रह के हथियार से जितना कर सकते थे उतना उन्होंने किया, लेकिन आज उनके उस सदी पुराने क्षतिग्रस्त यंत्र को सही तरह मरम्मत करके उसे चलाने वाले कहां हैं? दिक्कत यही है कि सरकार द्वारा नियुक्त अधिकतर मेकेनिक पेशेवर कुशल कर्मी नहीं, तिकड़मी और चापलूस कामगार अधिक हैं, जो सत्य या आग्रह के कलपुर्जों की बनावट से खास परिचित नहीं। लेकिन उनका महत्व यही है कि उससे लगातार छेड़छाड़ करते हुए अगले चुनाव तक वे मशीन में गतिशीलता का आभास पैदा करते रहेंगे।
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