विचार

मृणाल पांडे का लेख: नाकाम नीतियों पर पर्दा डालने की कोशिश है टी-शर्टों पर बेचा जा रहा युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद

आज का टी-शर्टों पर बेचा जा रहा युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद सरकार की घरेलू और वैदेशिक नीतियों की असफलता और निठल्लेपन पर पर्दा डालने का हिस्सा भर है। उन्माद से भरी बातें बेरोजगारी, कृषि संकट और छीजते पर्यावरण की ठोस सच्चाइयों से घिरे देश को न सिर्फ उबाती हैं, बल्कि उसकी उल्टी प्रतिक्रिया भी संभव है।

फोटोः डीडी सेठी
फोटोः डीडी सेठी 

बालाकोट के बाद का लगातार हाहाहूती उन्माद से भरा चुनावी मंजर राजनेताओं के मनोविज्ञान में रुचि रखने वालों के लिए दिलचस्प मसाला पेश करता है। ‘घर में घुस कर मारूंगा’, वाले तेवरों ने बे सोचे-समझे भारत और पाक ही नहीं, भारत-पाक और चीन, भारत-पाक और अमेरिका के रिश्तों के कई दबे प्रेतों को जिंदा कर फिजा में छोड़ दिया है। चुनावी माहौल के बीच उनके साथ वेताल पचीसी के राजा विक्रम के साथ लंबी जिरह नहीं की जा सकती।

लेकिन भारतीय राजनय के स्वरूप, पड़ोसी रिश्तों, महाशक्तियों की छुपी इच्छाओं, इरादों से गढ़ी जा रही एशियाई बिसात की रणनीतियों की बाबत थोड़ी बहुत समझ बढ़ाई जा सकती है। एक बात जिस पर दो विश्वयुद्धों से झुलस चुकी दुनिया एकमत है, वह यह कि परमाणु ताकत वाले दो देशों के बीच युद्ध सारे विश्व के लिए भारी खतरा है। इसलिए बालाकोट की आग पर ढक्कन लगाने को तुरंत सारी दुनिया हरकत में आई। ऊपरवाला मेहरबान हुआ और सेनाधिपति कगार से पीछे हट गए।

अब संभव है कि देश का अगला निजाम गत पांच सालों से सबक लेकर सिर्फ पार्टी विशेष के फौरी हितस्वार्थों के तहत देश को युद्ध कगार की तरफ धकेलने से बाज आएगा। बहुत बार भेड़िया आया चिल्लाने से जब वह सचमुच आ जाए तो कोई यकीन नहीं करता।

कहते हैं कि बछड़ा खूंटे के बल पर ही उछलता है। ऐन चुनावी संध्या पर पाकिस्तान अगर भारत की सीमा पर बारबार हंगामा मचा रहा है, तो इसकी बड़ी वजह है चीन का मजबूत खूंटा। चीन की विदेश नीति में दर्शन और दुनियावी खुराफात का एक अजीब मिश्रण है। उसने ताओ से माओ तक दर्शन का पारायण करके अपनी अगली सदी के भूराजनीतिक लक्ष्य तय किए हैं, जिनमें भारत के खिलाफ जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान को अपनी मिसाइल बनाना शामिल है।

गौरतलब है कि वह ठोस खुर्राट और व्यावहारिक बनकर पाकिस्तान की धरती पर अपने व्यापारिक-सामरिक हितों के तहत सड़कों से लेकर बंदरगाह तक बनाने के कार्यक्रम पर चुस्ती से अमल कर रहा है। हमारा मामला उल्टा है। हमारे नेता दूरगामी फल की चिंता किए बिना फौरी चुनावी जरूरतों से ही लक्ष्य तय कर बैठते हैं। राष्ट्रवादी भाषणों की आग भरी शरुआत होती है। यहां तक तो ठीक है, पर दिक्कत तब शरू होती है जब लुआठी लेकर उनके चौकीदार सूबे-सूबे में घूमकर पाक और अल्पसंख्यकों के खिलाफ उन्माद जगाते जनता को हिंसक संदेशों से उकसाते हैं।

व्यावहारिकता की जमीन पर जब ऐसी भविष्य विमुख नीति की गेंद टप्पा खाती है, तो उसका व्यावहारिक धरातल विश्व बिरादरी के सामने अक्सर लचर, अक्षम और दलदली साबित होता है। और हमारे कल के अग्निगर्भा बयानवीर, विश्व दबाव से झुककर इमरान खान को नेह भरे खत लिखकर पाक राष्ट्रीय दिवस की बधाई भेज देते हैं। हमको भली तरह समझ लेना चाहिए कि आज आतंकवाद के खिलाफ खुला युद्ध छेड़कर पाक से सीधा सामरिक टकराव मोल लेना चीन को हस्तक्षेप के लिए न्योतना साबित होगा।

इस क्रम में हम को रूस के पारंपरिक समर्थन की आस भी नहीं पालनी चाहिए। रूसी आखिर कम्युनिस्ट डीएनए से ही बने हैं और पुतिन के एक चालकानुवर्ती शासन ने आदतें ऐसी नहीं बदलीं हैं कि वे भारत-चीन टकराव पर तटस्थ नजर रखेंगे। यह भी हम नहीं मान सकते कि चीन के बूते पाक अगर हम पर हमलावर हुआ तो उसके खिलाफ हमको ट्रंप का नस्लवादी, संकुचित घरेलू स्वार्थों का रक्षक बनता जा रहा अमेरिका रक्षा की गारंटी देगा। उसके खुद अपने खरबों डॉलर चीन में निवेशित हैं।

आज का यह टी-शर्टों पर बेचा जा रहा युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद सरकार की घरेलू और वैदेशिक नीतियों की असफलता और निठल्लेपन पर पर्दा डालने के हिंदतु्व की परंपरा के रक्षण का हिस्सा भर है। बार-बार वही सतयुग, द्वापर युग के मुहावरों में सौ साल लड़ने, सर काट कर लाने, एक के बदले सवा सौ मारने की बातें बेरोजगारी, कृषि की बदहाली और छीजते पर्यावरण की ठोस सच्चाइयों से घिरे देश को न सिर्फ उबाती हैं, बल्कि उसकी उल्टी प्रतिक्रिया भी संभव है।

हमको अगले सौ-पचास सालों में तरक्की करनी है। इसके लिए हमको विश्व विमुख बड़बोले आलसियों की जमात से बाहर आकर भारत की चिंताजनक सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों पर जारी उन ठोस आंकड़ों की सच्चाई स्वीकार करनी होगी जिनको हमारे अनुभव संपन्न राष्ट्रीय शोध संस्थान सामने ला रहे हैं।

भारत और पाकिस्तान के बीच जो रिश्ता है, वह पिछले हजार बरस के भारतीय इतिहास से ही निकला है। इन रिश्तों का इतिहास जितना हमको खींचता है, उतना ही पाक को भी। दोनों के बीच युद्ध हुआ तो वह ऊपरी तौर से भले ही अंतरराष्ट्रीय युद्ध होगा, लेकिन एक गहरे मायने में वह एक गृह युद्ध भी होगा जो सीमा के आर-पार ही नहीं, दोनों देशों में अंधी अराजकता को कस्बों और गलियों में भी बिखरा देगा।

आज जबकि दोनों देश परमाणु बटन रखते हैं, दोनों के लिए यह आत्महत्या करने जैसा ही साबित होगा। इतिहास का पेंडुलम भारत में बहुत कम घूमा है। हमारे यहां ऐसे शस्त्रास्त्र थे, ऐसे उड़नखटोले और मिसाइलें थीं, इस तरह की अवैज्ञानिक सबूत विहीन बातों पर चबर-चबर करने के व्यावहारिक नतीजे क्या हैं? विदेशी अखबारों में जाहिर की गई शंकाएं बेबाकी से इनकी खिल्ली उड़ा रही हैं। आज अगर सचमुच युद्ध हुआ तो उन पांच हजार साल पुराने युद्ध के नुस्खों को हम क्या साकार कर सकेंगे? इसका जवाब शायद सिर्फ रहस्यवाद के लेवल पर दिया जा सकता है।

लेकिन हथियारों की क्षमता, वाजिब कीमत या सेना की तैयारी से जुड़े वाजिब, व्यावहारिक सवालों को लेकर राजकीय असहिष्णुता हमारे राजनय की असफलता और एशिया में हमारा अकेलापन जताती है। क्या यह विडंबना नहीं, कि जहां भारत में राजधानी क्षेत्र में अपने ही निहत्थे नागरिकों को घर के भीतर घुस कर मारना तो नितांत संभव बनता जा रहा है। पर कश्मीर पर पिछले पांच बरसों में जुआ खेलते-खेलते 2019 में दांव कितने ऊंचे होते जा रहे हैं। या चुनावी खेल में अगर बेईमानी से पड़ोस पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीयत से हमला कर दिया गया, तो वह भारत के विश्व हितों को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, क्या सरकार इस पर कुछ सोच रही है?

बहरहाल उम्मीद है कि बालाकोट का मामला समाप्त हो चका है। पर अब भी चुनावी लाभ दुहने के लिए हम विलंबित क्रोध का नाटक करें तो हम और भी बेवकूफ दिखेंगे। हमको याद रखना चाहिए कि भारत-पाक युद्ध छेड़ने- रोकने की चाभी न भारत के पास है, न पाक के पास। वह बीजिंग, वाशिंगटन, मास्को और सऊदी अरब के हाथ में है। 2019 में किसी विदेशी पहलवान को बुला कर झगड़ालू पड़ोसी को पिटवाने का सपना बहुत गया गुजरा और अर्थहीन बन चुका है।

जनसंपर्क और आत्मप्रचार को हमारे नेतृत्व ने शुरुआती काल में चाहे जितना भी शिखर पर पहुंचाया हो, विदेशों में हर जगह उनकी तस्वीर सदा को विराट और उजली बन जाएगी ऐसा नहीं है। विश्व की ताकत की बिसात पर अपने लिए जगह बनाते भारत को ऐसे दोस्त चाहिए जिनसे उसके हित स्वार्थों का मेल हो। यह हमारा भ्रम ही है कि दोस्तों की गरज सिर्फ पाक को है, हमको नहीं। हर देश को अपने इतिहास में ऐसे सबक सीखने पड़े हैं।

लेकिन दुनिया के राजनय के अखाड़े में बड़ी ताकतें अंतत: देश विशेष की दोस्ती की कीमत उतनी ही लगाएंगी जितना वह भीतर से शक्तिशाली हो। इस समय जब विदेश की मखु्यधारा का मीडिया भारत को बार-बार सांप्रदायिक आग से झुलसते, बेरोजगारों और भ्रष्ट भगोड़ों वाले देश साबित करता हो, 108 शीर्ष अर्थशास्त्री खुद सरकार द्वारा अपने ही नकारात्मक आंकड़ों को झुठलाने पर चिंता जताएं, निवेशक हमको अपने सार्वजनिक बैंकों का दोहन करने का दोषी मानने लगें, उस समय उसकी तरफ दोस्ती भरे हाथ जरा कम ही बढ़ेंगे।

इस समय विश्व मीडिया या घरेलू मीडिया के आलोचकों को गरियाना व्यर्थ है। चुनावों का क्या है मई अंत तक सरकार तय हो ही जाएगी। लेकिन इस समय युद्धोन्माद फैलाने की नादानी जो भी सिंहासन संभालेगा उसको घरेलू तथा वैदेशिक, दोनों मोर्चों पर बहुत भारी पड़ेगी यह बात सिंहासन की तरफ लपकते सभी दलों को याद रखनी चाहिए।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined