सोशल मीडिया पर एक चित्र पिछले दिनों वायरल हो रहा था। एक बुजुर्ग पूर्व केंद्रीय मंत्री किसी गांव की किसी साधारण सी दुकान के बाहर कुर्सी लगाकर बैठे मोबाइल पर कुछ देख रहे थे। उनके पुराने ओहदे और महिमा से अनजान तीन गरीब औरतें और इतनी ही मर्द इस अजनबी को अजनबी निगाहों से देख रहे थे। ये निगाहें पूछती सी लग रही थीं कि आप कौन हैं महाशय, यहां क्यों बैठे हैं, क्या करने आए हैं! हाथ -पांव नहीं चलते हैं तो घर बैठकर आराम क्यों नहीं करते!
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मगर बेचारे नेताओं के जीवन में आराम कहां? उन्हें तो जीवनभर 'देशसेवा' करनी होती है! कांग्रेस में रहकर वह 24 वर्ष तक राज्यसभा तथा कुछ साल मंत्री पद पर रहकर 'देशसेवा' कर चुके थे पर पिछले सोलह साल से कांग्रेस ने उन्हें 'देशसेवा' का अवसर नहीं दे रही थी, तो 72 साल के कांग्रेस के इस भूतपूर्व 'अनुशासित सिपाही' ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में जाकर 'देशसेवा' करना तय किया। बीजेपी तो 'मिस्ड कॉल 'पर भी सदस्यता देकर 'देशसेवा' का अवसर दे देती है। उसने इन्हें भी अवसर दिया मगर इन्हें तो देशसेवा लोकसभा या राज्यसभा में जाकर ही करना आती थी मगर पार्टी इनसे उस तरह की सेवा करवाना नहीं चाहती थी। साधारण कार्यकर्ता की तरह उन्हें पन्ना प्रमुख का काम दे दिया। जो काम कांग्रेस में रहकर पार्टी के इस 'अनुशासित सिपाही' ने जवानी में भी कभी नहीं किया था, उसे बुढ़ापे में करना पड़ रहा था!
सब उनकी हंसी उड़ा रहे थे तो मैं भी उनमें शामिल हो गया। जिस शख्स ने जीवनभर पंचायत तक का चुनाव नहीं लड़ा, उसे कांग्रेस ने राज्यसभा की सदस्यता और मंत्री पद का बरसों सुख दिया, उसमें सत्ता की अभी भी देखो कैसी ललक है!
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ये तो मात्र एक उदाहरण हैं। पिछले दस सालों में कांग्रेस के न जाने कितने बूढ़े (जवान भी) कांग्रेसियों ने सत्ता -सुख के लिए भाजपा का दामन थामा है। बूढ़ों में किसी न किसी तरह की सत्ता की हवस जवानों से कहीं ज्यादा होती है क्योंकि उन्होंने सत्ता का सुख चखा होता है। वे जानते हैं कि सत्ता सभी सुखों की जननी है, मातृभूमि है, स्वर्गादपि गरीयसी है। दुनिया की किसी भी मिठाई से अधिक मीठी और किसी भी नमकीन से अधिक नमकीन है। किसी भी सुंदरी से ज्यादा सुंदर और किसी भी शराब से ज्यादा मादक है।
इस कारण हर पार्टी इन बूढ़ों के बोझ से लदी है, जो न फल देते हैं, न फूल। जहर जितना चाहे, ले लो। ऐसा ही एक बूढ़ा 74 साल की उम्र में सत्ता के शिखर पर बैठा है। उसका बस चले तो वह सौ साल की उम्र में भी इसी जगह इसी तरह बैठा रहे। और जब भी इस दुनिया से जाए तो कुर्सी भी साथ ले जाए, ताकि कोई दूसरा उस पर बैठ न पाए! सत्ता के लिए वह कुछ भी अपना सकता है, कुछ भी छोड़ सकता है। किसी से भी हाथ ही नहीं, पैर भी मिला सकता है। किसी के चरणों में गिर सकता है। किसी की जूतियां उठा सकता है। वह मंदिर पे मंदिर बना सकता है और जरूरत पड़ जाए तो क्रांति की भ्रांति भी रच सकता है।
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एक और बूढ़ा कभी था। दिल्ली से बोरिया-बिस्तर समेट रहा था। इस -उसको कोर्निश बजा-बजाकर वह थक चुका था। उसकी पीठ जवाब दे चुकी थी। हवाई जहाज़ में लंबी-लंबी यात्राओं के कारण उसका पिछवाड़ा जवाब दे चुका था। पैंतीस साल तक मुफ्त का तर माल खाकर उसकी भूख मर चुकी थी। उसकी हालत पतली थी। शरीर को आराम की सख्त दरकार थी पर अचानक भाग्य का छींका टूटा और उसे उसकी कल्पना से बहुत ऊंचा पद मिल गया। फिर तो 70 साल के उस बूढ़े की सारी थकान, सारी बीमारियां छूमंतर हो गईं! बंद बिस्तर खुल गया। वह वही सब करने लगा,वही सब खाने लगा,जो वह पिछले पैंतीस साल से खा- खाकर थक चुका था। एक बार उस पद पर पहुंच गया तो फिर उसने वो- वो रंग दिखाए कि रंग बदलने के लिए कुख्यात प्राणी भी क्या दिखाएगा!
एक और बुजुर्ग के जीवन की एक ही कामना थी कि किसी भी तरह सत्ता के शीर्ष पर पहुंच जाएं। अस्सी पार के बाद उनका यह सपना पूरा हुआ। अगर नब्बे के बाद भी अवसर मिलता तो भी वह ले लेते। उनका गांधीवाद शिखर पद की प्राप्ति थी। एक और बुजुर्ग ने सत्ता के लिए इतने पापड़ बेले थे कि कोई क्या बेलेगा? रथ चलाया था, सैकड़ों का खून बहाया था पर हजार से अधिक खून बहानेवाला तो आगे बढ़ गया मगर वह शिखर से एक पायदान नीचे रह गए। इस दुख के साथ आज भी वह जैसे- तैसे जीवन काट रहे हैं।
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लगभग सारे बड़े रिटायर्ड अफसर पचपन साल की उम्र तक पहुंच कर रिटायरमेंट के बाद के जुगाड़ में लग जाते हैं। कुर्सी कहीं भी हो,किसी भी तरह की हो, होनी चाहिए। अनेक बड़े-बड़े न्यायाधीश भूतपूर्व होने से पहले अभूतपूर्व होने के चक्कर में पड़े जाते हैं। इसके लिए पद पर रहते जो भी कर सकते हैं, करते हैं। जो बस में न हो, वह भी करते हैं। अनेक भूतपूर्व राजनीति में आकर करियर चमकाते हैं, जहां रिटायरमेंट की कोई उम्र नहीं है। सेनाध्यक्ष का पद भी किसी को इतना छोटा लगता है कि वह राज्यमंत्री बनकर जीवन को सफल बनाने में लग जाता है। भगवा पहन चुके भोगियों और योगियों का भी असली प्राप्य ईश्वर नहीं, राजनीतिक सत्ता है।
हम जैसे जिन्हें रिटायरमेंट के बाद कुछ नहीं मिलता, साहित्य की सेवा में जोर- शोर से लग जाते हैं। जोर तो अधिक लगाना वश में नहीं होता, शोर करना होता है, उसमें जी जान से लग जाते हैं। पेंशन के बल पर सरस्वती की उपासक करने लगते हैं। हम में से कुछ प्रकाशक को पैसा देकर किताबें छपवाते हैं। अपने पैसे से भव्य विमोचन करवाते हैं। उस शाम के लिए वे हिंदी के रेणु, नागार्जुन या मुक्तिबोध हो जाते हैं! अगले दिन से फिर अपनी सही औकात में आ जाते हैं।
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किसी को साहित्य का क्षेत्र अपर्याप्त लगता है, तो वह कला-रंगमंच आदि क्षेत्रों में प्रवेश कर जाता है, जहां दाम भी है और नाम भी। कुछ को कुछ नहीं मिलता तो जिनको कुछ मिला है, उनसे ईर्ष्या करके जीवनी बिताते हैं। कुछ को साहित्य- कला वगैरह से कोई मतलब नहीं होता तो वे टीवी के सामने बैठकर ऊब मिटाते-मिटाते ऊब जाते हैं मगर घर के अंदर चाय का कप उठाकर भी नहीं रखते हैं, शहंशाही झाड़ते हैं। कोई नहीं सुनता तो बड़बड़ाते हैं और अंत में किसी प्राइवेट अस्पताल का भला करने में जी-जान से जुट जाते हैं। जीवन में भलाई का एक यह काम जरूर कर जाते हैं, ताकि अस्पतालवाले उन्हें युगों-युगों तक याद रखें, मगर वहां दस मिनट बाद भी किसी भूतपूर्व मरीज को याद रखने की फुर्सत किसे होती है, हां फाइनल बिल बनाने का अवकाश अवश्य होता है!
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