विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: कहानी लोकतंत्र के राजा की, CBI-ED, सब वही, देश वही...!

सीबीआई-ईडी, सब वही, देश वही। तो होता वही था, जो वह चाहता था। उसकी आलोचना देशद्रोह थी, उसकी वंदना देशप्रेम! उसके लिए देश का भूगोल उसके पैर से सिर तक और दाहिने हाथ से लेकर बांए हाथ तक था। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

वह था तो नहीं राजा मगर खुद को राजा या रानी समझने से किसी को कौन रोक सका है? हमारे यहां तो घर -घर में राजा-रानी प्रतिष्ठित हैं। आज तक किसी पति ने अपनी पत्नी को या किसी पत्नी ने पति को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कहा? अब तो माननीय प्रधानमंत्री जी ने भी अपने को प्रधानमंत्री और तमाम सम्माननीय मुख्यमंत्रियों ने भी अपने को मुख्यमंत्री मानना छोड़ दिया है। सभी राजा-रानी हैं, हमारे भाग्य विधाता हैं! धन्यवाद के पात्र हैं। हैं कि नहीं? हैं!

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तो यह कहानी लोकतंत्र के ऐसे ही एक फालतू टाइप राजा (फाटारा) की है। सभी राजाओं को अपनी आलोचना पसंद नहीं आती। अपने सामने भी नहीं और पीठ पीछे भी नहीं, सपने तक में नहीं। फाटारा भी ऐसा ही था और चूंकि वह असली फाटारा था तो इससे भी बहुत आगे था! उसने घर-घर में ऐसा मशीनें लगवा रखी थीं कि सपनों में भी कोई फाटारा की आलोचना करता तो तुरंत पकड़ में आ जाता था। इसके बाद उसका क्या होता था, इसकी कल्पना करने की जरूरत नहीं। देश की अदालत भी फाटारा था, पुलिस भी वही, वकील भी वही। सीबीआई-ईडी, सब वही, देश वही। तो होता वही था, जो वह चाहता था। उसकी आलोचना देशद्रोह थी, उसकी वंदना देशप्रेम! उसके लिए देश का भूगोल उसके पैर से सिर तक और दाहिने हाथ से लेकर बांए हाथ तक था। राष्ट्र का इतिहास उसकी वाणी से आरंभ होकर उसकी वाणी पर समाप्त होता था। उसकी तस्वीर देश के विकास की तस्वीर थी। जहां देखो, वही थी,वही-वही थी क्योंकि वह किसी और की नहीं, असली फाटारा की तस्वीर थी!

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पहले के राजा कुछ मायनों में बेचारे हुआ करते थे। उनका किसी के सपनों पर बस नहीं था मगर फाटारा का था चूंकि वह असली फाटारा था! फाटारा दुनिया का सबसे सुरक्षित आदमी था मगर कदम-कदम पर उसे अपनी हत्या के दिवास्वप्न आते रहते थे। उसे सबसे ज्यादा अपनी प्रजा पर शक था। कोई आदमी या औरत मंदिर में या मजार पर मनौती मांगने जाता,तो भी वह चौकन्ना हो जाता था। उसे लगता था कि यह मेरे नाश- विनाश की दुआ मांगने गया है!

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धीरे-धीरे भयभीत फाटारा का आतंक इतना बढ़ चुका था कि लोग अकेले में घर की दीवारों के सामने भी उसकी आलोचना नहीं करते थे मगर सपने में ऐसी ग़लतियां हो जाती थीं। ऐसे सपने आने पर लोग खुद ब खुद चुपचाप घर के बाहर खड़े हो जाते,ताकि उनके कारण घर के बाकी सदस्यों की नींद खराब न हो। सुबह पता चलता था कि क्या हो चुका है। धीरे-धीरे लोग ऐसी बातों पर शोक मनाना, रोना, पछताना, चीखना, क्रोध करना भूल चुके थे। सब सामान्य हो चुका था। पांच साल के बच्चे- बच्चियों को भी यह सिखा दिया गया था कि फाटारा की निंदा का सपना आए तो वे ईमानदारी से घर के बाहर जाकर खड़ा हो जाएं,ताकि सिपाही अपने काम को आराम से अंजाम दे सकें!

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कभी- कभी फाटारा औरतों, वृद्धों, बच्चे- बच्चियों को चार तगड़े झापड़ रसीद कर आगे से ऐसे सपने न देखने की हिदायत देकर छोड़ देता था, इसलिए ईमानदारी दिखाना लाभकारी माना जाने लगा था। देश में दिन अब फाटारा की अभ्यर्थना से शुरू होकर उसकी अभ्यर्थना खत्म होता था।

जिस तरह मीठे का शौकीन को भी नमकीन न मिले तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है, उसी तरह कुछ साल बाद फाटारा को अपनी आलोचना के अभाव में अपना स्तुति गान व्यर्थ लगने लगा था। उसने दरबारियों को आदेश दिया कि उनमें से हर एक ,हर रोज दस मिनट उसकी आलोचना किया करेगा मगर वह दरबारी ही क्या जो आलोचना कर सके! जन-जन भी आलोचना की शब्दावली, भाषा, वाक्य रचना सब भूल चुके थे। फाटारा ने ऐसी सभी सामग्री बहुत पहले नष्ट करवा दी थीं तो फिर से सीखने का कोई उपाय भी नहीं बचा था।

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सब दरबारियों ने मना कर दिया कि आप हमारा सिर ले सकते हो मगर हमसे आपकी आलोचना इस जन्म में नहीं हो सकेगी। उसने आश्वासन दिया कि मैं लिख कर देने को तैयार हूं कि किसी का कुछ न होगा मगर कोई तैयार नहीं हुआ।

इस तरह फाटारा की मृत्यु मीठे के आधिक्य और नमकीन के अभाव में समय से बहुत पहले हो गई मगर इससे उसके राजवंश ने कुछ नहीं सीखा।

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