विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: पांच साल में मात्र एक बार प्रधानमंत्री करते हैं वोट ध्यान योग!

चुनाव के अंतिम चरण से ठीक पहले पांच साल में मात्र एक बार प्रधानमंत्री का वोट ध्यान योग आता है और हो सकता है, यह उनका अंतिम वोट ध्यान योग हो! मरना तो दैनिक रूटीन है, वोट ध्यान योग पांच साला रूटीन है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया ANI

चुनाव प्रचार बंद होने के बाद मीडिया बेचारा दोहरे पर था। एक तरफ प्रधानमंत्री थे। उनका कन्या कुमारी वाला कैमरा वोट ध्यान योग था, दूसरी तरफ लू से सैकड़ों मौतों की खबरें थीं। जाहिर है प्रधानमंत्री का वोट ध्यान योग महत्वपूर्ण था। मीडिया के लिए वही प्राणदायी-विज्ञापनदायी है। उसी में उसका वर्तमान और हो सकता है, भविष्य भी हो! उसकी वह उपेक्षा नहीं कर सकता! लोगों का क्या है, लोग तो बदमाश हैं! हर दिन, हर क्षण, हर बहाने मरकर दिखाते रहते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब इन्होंने मरने का कोई बहाना छोड़ा हो! रोज मरोगे तो यही होगी! और कभी कभी मरना, तुम कभी सीख नहीं पाओगे!

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चुनाव के अंतिम चरण से ठीक पहले पांच साल में मात्र एक बार प्रधानमंत्री का वोट ध्यान योग आता है और हो सकता है, यह उनका अंतिम वोट ध्यान योग हो! मरना तो दैनिक रूटीन है, वोट ध्यान योग पांच साला रूटीन है। मरनेवाले को मर रहा हूं, यह दिखाने के लिए कैमरे नहीं चाहिए, उसे वोट नहीं चाहिए कि मरूं कि नहीं मरूं मगर वोट ध्यान योगी तो कैमरे के बगैर सांस तक नहीं ले सकता! वह ध्यान, ध्यान नहीं, वह तपस्या, तपस्या नहीं, वह योग, योग नहीं, वह दिन, दिन नहीं, जिस दिन इस योगी की सेवा में दस-दस कैमरे आगे-पीछे न घूम रहे हों!

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वैसे शुक्र है कि चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद लू से गरीबों के मरने की रूटीन खबरों के लिए भी थोड़ी सी जगह बन गई है। शनिवार को छपी खबरों के मुताबिक अभी तक लू से 320 से अधिक लोग मर चुके हैं, जिसमें मतदान की ड्यूटी कर रहे 25 कर्मचारी भी शामिल हैं। जिस दिन आप इसे पढ़ रहे होंगे, हो सकता है, आंकड़ा 'अबकी बार चार सौ पार ' हो चुका हो! जिस दिन चुनाव परिणाम आ रहे होंगे, उस दिन से लेकर सरकार बनने तक और उसके बाद भी लोग लू से मरना नहीं छोड़ेंगे। सात सौ -आठ सौ -हजार भी पार हो जाएं तो ताज्जुब नहीं! लोग जीना छोड़ सकते हैं मगर मरना नहीं छोड़ सकते। मरना उनकी मजबूरी और सिस्टम की जरूरत है और हमारी आवश्यकता है इन खबरों को दरगुज़र करना! हम न लू से मरेंगे, न  बाढ़ से, न ठंड से! वैसे हमारा इरादा तो मरने का ही नहीं है पर क्या करें, मरना तो पड़ेगा! हो सकता है, कभी हमारे बाप-दादा लू या ठंड से मरे हों, बाढ़ में घर समेत बह गए हों मगर हम नहीं मरेंगे। हम या तो घर या अस्पताल के बिस्तर पर मरेंगे या सड़क पर किसी दुर्घटना में! हम लू से नहीं मरेंगे, बाढ़ से नहीं मरेंगे,  ठंड से कांपते हुए नहीं मरेंगे। यह हमारा संकल्प है कि हम इस तरह नहीं मरेंगे!

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वैसे अब किसी भी तरह किसी एक या सैकड़ों गरीबों के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी ऐसा जमाना रहा होगा तो रहा होगा,अब नहीं रहा। बस अब मरनेवालों की संख्या का महत्व है।किस दिन ज्यादा मरने का रिकार्ड टूटा और किस दिन कम मरने का रिकार्ड बना! किस दिन दस साल में सबसे ज्यादा मरे, किस दिन दस  साल में सबसे कम मरे! आंकड़ा देखो और आगे बढ़ो। इच्छा हो तो थोड़ी हाय- हाय भी कर लो! सरकार को कोस लो। इस पर रोक अभी सरकार कोसने देगी। उसे आपके कोसने से फर्क नहीं पड़ता! दरअसल हमारी हाय- हाय और हो -हो हो में अब ख़ास फर्क नहीं रहा। लीडर को अभी गम तो है मगर आराम के साथ। आयातित कुकुरमुत्ता खाने के बाद, एक झपकी लेने के बाद, जितना गम हो सकता है, उतना है और शुक्र है कि इतना तो है!

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 चुनाव प्रचार चल रहा होता तो ये मौतें हद से हद चुनाव का, छोटा सा, नन्हा सा दोषारोपण का खेल बन चुकी होतीं। इससे ज्यादा ताकत इन मौतों में नहीं थी! इससे न एक वोट इधर होता, न उधर! और अब तो जिसे, जिस तरह, जिस जगह मरना हो, खुशी-खुशी मरे, चुनाव निबट चुका।खेला हो चुका! अब कोई लू से मरे या आग से या आत्महत्या करके मरे! अब खेल खत्म है। अब सरकार बनाने का खेल शुरू है। इधर से भी दावा है, उधर से भी दावा है कि सरकार हमारी बनेगी। अब सरकार का जोड़, बाकी, गुणा, भाग का खेल चल रहा है। अब लोग स्वतंत्र हैं-जीने-मरने के लिए! कोई नहीं उन्हें पूछनेवाला! कोई नेता उनके घर झांकने नहीं आनेवाला! वह कठिन चुनाव काल अब चला गया। टाटा बाई बाई कर गया!

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 पिछले ढाई साल में बताते हैं आग से लगभग 1177 मरे हैं, वोट- योगी के हिसाब से ज्यादा नहीं मरे हैं। ज्यादा भी मर जाते तो इससे क्या अंतर पड़ता? क्या उसका तख्त पलट जाता?चाहे, वैष्णो देवी जा रही बस खाई में गिरे और लोग मरें।मरें और खूब मरें और भी अधिक मरें। कुछ नहीं होनेवाला।

 अब न कोई किसी की एक भैंस उठाकर ले जाएगा, न किसी का मंगलसूत्र छीनने आएगा। न आएगा कोई किसी की संपत्ति का एक्स-रे करने! अब न किसी की संपत्ति कोई मुसलमानों को देगा, न किसी और का आरक्षण छीनकर 'घुसपैठियों' को देगा। अब प्रधानमंत्री को उड़ीसा के मुख्यमंत्री का स्वास्थ्य चिंतित नहीं करेगा, न इसकी उन्हें चिंता होगी कि उनका उत्तराधिकारी कोई तमिल क्यों बनेगा? अब उड़ीसा की संस्कृति पर से आया खतरा टल गया है। अब बेटे-बेटी सबके बायोलाजिकली पैदा होने लगे हैं। अब तो प्रधानमंत्री की बायोलाजिकल मां फिर से उनकी मां हो जानेवाली है। अब यह खेला खत्म। अब दूसरा खेला शुरू। वैसे इनके किसी खेल का कभी लोगों से नाता नहीं होता। सारे खेल शब्दों के होते हैं। मुख विलास के लिए होते हैं। शब्दों के व्यापारी शब्दों का धंधा करते हैं।

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