लोग कहने लगे हैं, वाह भाजपा, वाह! तेरा चाल, चरित्र, चेहरा, क्या शानदार है, क्या अजब-गजब है वाह, वाह सिद्धांतवादी भाजपा वाह! सबकुछ दिख गया, देख लिया, वाह, वाह-वाह। मजा आ गया।खुदरा व्यापार में मनमोहन सिंह विदेशी मुद्रा लायें तो बहुत बुरी, बहुत ही गंदी बात। जीएसटी लाएं तो भी गंदी बात। विपक्ष में सिद्धांतवाद, सरकार में व्यवहारवाद! चलो जिसका नेता दिन में दस बार ड्रेस बदल सकता है तो साढ़े तीन साल में सिद्धांत भी बदल दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी हमारी दिल्ली सबको सिखा देती है कि फर्क पैंदा! अरे भई सिद्धांत भी तो ड्रेस जैसा ही महत्व रखते हैं! वैसे भी सिद्धांत में जो पार्टी 'स्वदेशी' हो सकती है, वह व्यवहार में 'विदेशी' क्यों नहीं हो सकती?गांधी जी ने कहा होगा कभी कि सिद्धांत और व्यवहार में फर्क नहीं होना चाहिए, लेकिन वह तो धोतीधारी थे, ड्रेसधारी नहीं। वह भी घुटने तक के धोतीधारी, ड्रेसधारी-सूटबूटधारी नहीं। नजर में फर्क आ जाता है जी इतने से। फिर भाजपा आखिर एक पार्टी है, कोई मजाक है क्या?
पितृसंगठन संघ स्वदेशी जागरण मंच चलाये, भाजपा विदेशी जागरण मंच चलवाये तो क्या दिक्कत है? आखिर दोनों ही तो एक ही पेड़ की दो शाखाएं हैं और आराम से फलफूल भी रही हैं। जैसे दलितों के घर भोजन करना और दलितों की पिटाई करवाना एक सिक्के के दो पहलू हैं, वैसे यह भी है। कभी एक पहलू दिखेगा, कभी दूसरा! एक पहलू देखोगे तो दूसरा नहीं दिखेगा, दूसरा देखोगे तो पहला नहीं दिखेगा। इतनी सिम्पल-सादी बात किसी को समझ में नहीं आती है तो संघ और भाजपा क्या करे?
अरे समझ तो खुद ही पैदा करनी होती है, वरना शाखा में आइए, स्वागत है। अब किसी की आंख पर चश्मा ही चढ़ा हो और वह बदलना ना चाहे, तो यह भाजपा की समस्या नहीं। भगवा चश्मा लाओ तो सब भगवा दिखेगा। हरा-हरा नहीं, भगवा-भगवा! यह दरअसल पुराने चश्मे की समस्या है, न यह भाजपा की समस्या है, न संघ की। और भगवा चश्मा पहनने के बाद भी भगवा न दिखे तो यह सही डॉक्टर को ना दिखाने की समस्या है। यह समस्या अब सुप्रीम कोर्ट में भी पैदा हो गई है। यह अच्छी बात नहीं है।
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