विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: अक्सर नफरत के पुतले ही किया करते हैं प्रेम और सद्भाव की बातें

इतिहास में यह दर्ज नहीं होता कि किसने, किसकी, किस बात पर कब ताली बजाई थी। ताली बजाना और बजवाना वैसे भी कोई जुर्म नहीं है। अकसर ही ताली बजवाई जाती है, यह कहकर कि इस पर मैं आपकी ताली चाहूंगा! पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

आजकल छोटे दिल- दिमाग के लोग बड़ी -बड़ी बातें बहुत करते हैं। बस उन्हें अवसर मिलने चाहिए, अवसर वे खुद पैदा करते हैं। छोटी बातें कहने का कोई अवसर तो वे चूक ही नहीं सकते, बड़ी-बड़ी बातें करके भी अपनी झांकी जमाने में वे पीछे नहीं रहते। चाहे जी-8 शिखर सम्मेलन का मंच हो या पर्यावरण शिखर सम्मेलन का। एक ही उद्देश्य है, जिस तरह भी, जहां भी जमे, अपनी झांकी जमाओ। झांकी ही सर्वस्व है। झांकी ही राजनीतिक परम सत्य है।

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झांकी वाला काम काम ये ज्यादा करने लगे हैं। घटिया बातें के साथ बड़ी- बड़ी बातें करने में भी वे सबसे बाजी मार लेना चाहते हैं, ताकि इनका नाम बड़ी-बड़ी बातें करनेवालों की सूची में भी स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो! बड़ी-बड़ी बातें करने में तो ये बुद्ध, महावीर, गांधी, भगत सिंह से भी प्रतियोगिता करने में शर्माते नहीं। गांधी जी को उनके चश्मे में तब्दील करनेवाले, नैतिकता की बातें जितनी बार, जितने अधिक आत्मविश्वास से करते हैं, उतना आत्मविश्वास तो खुद गांधी जी को भी अपने आप पर नहीं था! घटिया लोग आत्मविश्वास के महापुंज होते हैं।

बातें करना हो और केवल बातें करना हो तो इससे आसान दुनिया में कुछ नहीं क्योंकि बातें हैं, बातों का क्या? दिलचस्प बात यह है कि बातें करने से ज्यादा आजकल किसी से कोई उम्मीद भी नहीं करता! मुझसे भी नहीं, आपसे भी नहीं। कोई कैसा  भी हो, हत्यारा हो, लुटेरा हो, अगर वह अच्छी अच्छी बातें करना जानता है तो इसके लिए लोग उसके अहसानमंद होते हैं कि यह आदमी कैसा भी हो, देखो कितनी-कितनी बड़ी बात करना जानता है!

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बुरे-बुरे, घिनौने काम करनेवालों के मुंह से अच्छी-अच्छी बातें सुनकर अगर कोई खुश नहीं होता तो नाराज़ भी नहीं होता, किसी को इस पर आश्चर्य नहीं होता। कुछ हत्यारों को हमने इस युग में क्षमा दिवस पर'  जाने-अनजाने किसी को कष्ट पहुंचाने के लिए'  क्षमा मांगते भी देखा है और हम इस बात पर उन पर हंसना तक भूल चुके हैं!

यह युग बुनियादी रूप से रंगे -पुते हत्यारों का है। इनके कपड़े जितने सफेद आज हैं, पहले कभी नहीं थे। जितने सफेद इनके कपड़े आज हैं, उतना सफेद तो सफेद भी इतिहास में कभी नहीं रहा! वे बार-बार हत्या करते हैं और बार-बार क्षमा मांगते हैं। वे दाग को दाग रहने नहीं देते, सर्फ से धो लेते हैं। बेदाग हो जाते हैं। क्षमा भी ये हत्या करने के लिए नहीं मांगते, ऐसा तो ये कर ही नहीं सकते, जबकि युग ऐसा है कि इन्हें किसी भी बात के लिए, कुछ भी करने के लिए कभी भी क्षमा मिल जाती है क्योंकि क्षमा मांगनेवाले ही आजकल क्षमा देनेवाले भी  घोषित हो चुके हैं! ऐसों की निंदा भी कितनी बार  करोगे, गरियाओगे कब तक? ये हत्या करके कभी नहीं थकेंगे, निंदा करनेवालों को ये थका देंगे! भोले-भाले लोग उनकी बातों पर यकीन करेंगे, आपकी-हमारी बातों पर नहीं! इसलिए नहीं कि ये भोले-भाले हैं बल्कि इसलिए यह युग हत्यारों का है। सच उनका है। नेता उनका है। ईश्वर उनका है, भक्त उनके हैं। आप हैं और जिंदा हैं, यह उनकी बहुत बड़ी कृपा है। इसे उनकी भलमनसाहत कहा जाता है क्योंकि हत्यारों  की छवि यह है कि वे भले लोग होते हैं!

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बातें करना, अच्छी-अच्छी बातें करना बहुत आसान भी है। ऐसी बातें करने पर किसी का कुछ खर्च नहीं होता! किसी का इससे भला हो न हो मगर बुरा नहीं होता। ऐसी बातें चूंकि स्वभाव से अहिंसक होती हैं तो किसी ने इनका खास नोटिस नहीं भी लिया तो फर्क नहीं पड़ता! कोई न कोई तो फिर भी किसी न किसी दिशा से, उनकी बातों पर ताली बजानेवाला निकल ही आता है क्योंकि ताली बजाना हमारे संस्कार हैं। हत्या पर ताली बजाना हमारा अधिकार है। न बजानेवाले का भी कुछ खर्च नहीं होता, न बजवानेवाले का।

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इतिहास में यह दर्ज नहीं होता कि किसने, किसकी, किस बात पर कब ताली बजाई थी। ताली बजाना और बजवाना वैसे भी कोई जुर्म नहीं है। अकसर ही ताली बजवाई जाती है, यह कहकर कि इस पर मैं आपकी ताली चाहूंगा! ताली बजाना सामूहिक कर्म है, तो कई बार यह पहचानना  मुश्किल होता है कि किसने बजाई और किसने नहीं बजाई। कोई पहचान भी ले तो भारतीय दंड संहिता में इसकी कोई सजा नहीं है। इसके लिये कोई तारीफ करें, न करें, कोई अदालत में घसीट नहीं सकता। ज्यादा से ज्यादा हंसी उड़ाएगा। और हंसी उड़ाने से किसी का क्या बिगड़ता है? बल्कि जिसकी हंसी उड़ती है, वह अपने को ईसामसीह की श्रेणी में शामिल करे तो उसको रोका नहीं जा सकता।

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 इसलिए नफ़रत के पुतले, प्रेम और सद्भाव की बातें अक्सर किया करते हैं। लोकतंत्र और संविधान की एक-एक ईंट खिसकानेवाले लोकतंत्र और संविधान की बातें सबसे अधिक करते हैं। स्वतंत्रता पर लंबे-लंबे व्याख्यान वे ही देते हैं। उनके ही व्याख्यान सुने भी जाते हैं। संविधान के एक-एक पन्ने को नोच- नोच कर कूड़ेदान में डालनेवाले संविधान दिवस मनाने का आइडिया लेकर आते हैं। लोगों को भूख और बेरोजगारी के नए-नए तोहफे बांटनेवाले योग दिवस मनाने आगे आते हैं। नरसंहारक रोज नए-नए मंदिर बनवाते हैं। पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाते हैं। देश के भविष्य के लिए ईश्वर से देर तक प्रार्थना किया करते हैं।

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