सबसे पहले तो बता दूं कि मेरी कोई औकात नहीं है। जो थोड़ी-बहुत थी, वह नौकरी के साथ आई और चली गई! अब जो भी, जितनी भी औकात है, घर के अंदर है। पति के नाते है, बच्चों के बाप के नाते है। दादा जी के नाते है। इसके अलावा इस समाज में सत्तर साल से ऊपर के आदमी की सामान्यतः जितनी औकात समाज में, सरकारी दफ्तरों में होती है, उतनी है! कभी किसी ऑफिस में जाना पड़ जाता है तो या तो इस या उस कारण डांट खानी पड़ जाती है या डांट खिलाकर आ जाता हूं। इस तरह अपना बनता काम, बिगाड़ आता हूं! कभी-कभी मेरी उम्र के खातिर कोई अफसर किसी जूनियर को डांट पिला देता है तो लगता है कि भलाई का जमाना अभी गया नहीं!
बस कुल अपनी इतनी सी औकात है। बाकी हिंदी लेखक की औकात कितनी होती है, उसे तो शायद पता न हो मगर बाकी सबको पता है! कहीं से कोई पुरस्कार टपक पड़ता है या टपकवाने का प्रयास सफल हो जाता है तो लेखक खुश होकर अपनी औकात को बढ़ा हुआ समझने की गलती कर बैठता है! फेसबुक पर वह बधाई मांगता है और लोग दे देते हैं तो वह खुशी से वह झूमने, नाचने, गाने लग जाता है! जहां तक लेखक के नाते मेरी अपनी औकात का सवाल है, वह इतनी सी है कि किताब छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे नहीं देने पड़ते! और यह औकात भी बंधुओं-भगिनियों मानो तो छोटी नहीं है! हम इसी में हम फूले-फूले रहते हैं!
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पहले जब तक पत्रकार भूतपूर्व नहीं होता था, तब तक उसकी कुछ औकात रहती थी। भूतपूर्व होते ही पत्रकार को अपनी असली औकात पता चल जाती थी। अब चूंकि देश में रामराज्य आ चुका है, हर्षित भये, गये सब सोका वाली आदर्श स्थिति है तो पत्रकार तो पत्रकार, अब अखबार और टीवी चैनलों के मालिकों की भी कोई औकात नहीं है! है तो दो पैसे की है, जो अब चलते नहीं!
इनको बता दिया गया है कि अपनी औकात बढ़ाने के चक्कर में रहोगे तो चक्की पीसने भेज दिए जाओगे। औकात भूल जाओगे तो विज्ञापन की रबड़ी खाओगे! अब तो 'साहस की पत्रकारिता' करने वाले भी जयश्री राम करने लगे हैं! अपने प्राणों की अप्रतिष्ठा न हो जाए, इस डर से अपनी प्राण-प्रतिष्ठा निरंतर करवाते रहते हैं! अब तो बड़े-बड़े मंत्रियों की औकात भी इतनी रह गई है कि उन्हें राममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में बुलाया तक नहीं जाता मगर कैबिनेट की बैठक में राममंदिर के लिए महामानव अपनी तारीफ का प्रस्ताव पारित करवा लेते हैं। 'प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव' में तो अंबानी की, सदी के महानायक वगैरह फिल्मी हस्तियों की औकात भी अब साफ दिख गई! और तो और रामलला की भी हैसियत इतनी ही रह गई है कि उन्हें महामानव की ऊंगली पकड़ना पड़ रही है। और शंकराचार्यगण भी औकात के खेल में महामानव से जीत नहीं पाए! अब तो एक की ही औकात है और बाकी सब अपनी औकात में आ गए हैं! यह लोकतंत्र का सामंतवादी चरण है।
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वैसे हमारे यहां औकात दिखाने का खेल प्राचीन काल से चला आ रहा है। कोई तथाकथित ऊंची जाति से है तो आज भी उसकी औकात है वरना वह उनमें हैं जिन्हें उनकी औकात दिखाई जाती है। हर जाति के अंदर भी औकात के बहुत से पायदान हैं। फिर पैसे और पद से भी औकात बनती-बिगड़ती रहती है! वैसे कभी- कभी औकात दिखानेवाले गच्चा भी खा जाते हैं। मोबाइल नामक वस्तु ने मामला थोड़ा सा गड़बड़ा दिया है। मध्य प्रदेश के शाजापुर के कलेक्टर हड़ताली ट्रक ड्राइवरों को उनकी औकात दिखाने लग गए और इसका वीडियो वायरल हो गया तो कलेक्टर साहब को उनकी असली औकात पता चल गई। वे औकात नहीं दिखाते तो बचे रहते, कलेक्टरी न जाती! इसके बाद इसी राज्य के एक एसडीएम साहब ने अपनी गाड़ी के आगे गाड़ी ले जाने के 'जुर्म' में तीन युवकों को पिटवाकर उनकी औकात दिखाई तो उन्हें उनकी औकात दिखा दी गई। कल के मामाजी, आज के कुछ नहीं हैं। कल तक रविशंकर प्रसाद अपनी बड़ी हुई औकात दिखाते रहते थे। हमेशा वे नहीं, उनकी औकात बोलने लगी थी! आजकल उनकी भी औकात वही है, जो किसी भाजपाई सांसद की आज रह गई है!
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साहेब के अलावा आज किसी की कोई औकात नहीं है। न रामलला की, न शंकराचार्यों की। गणतंत्र दिवस पर भी अब साहेब ही साहेब दिखते हैं। गणतंत्र किसी कोने में उदास खड़ा उन्हें देखता रहता है। उनकी औकात के कारण अगर किसी की औकात है तो वे संघ- विहिप आदि के कार्यकर्ता है! उनकी औकात किसी भी मंत्री -मुख्यमंत्री से ज्यादा है! वे सबको उनकी औकात बताते दिखाते हैं और सब देखते रह जाते हैं। उनको कोई उनकी औकात दिखा नहीं पाता।
इसलिए अपन ने अपनी असली औकात सबको बता दी है। यह भी बता दिया है कि हम किसी भ्रम में नहीं हैं। कुछ भ्रम फिर भी रह गये होंगे तो उन्हें भी दूर करनेवाले इस देश में बहुत हैं। कुछ तो फेसबुक पर आकर मुझे मेरी औकात दिखाते रहते हैं और मैं उन्हें धन्यवाद देता रहता हूं!
इसके बाद जयश्री राम करना ही बाकी रह जाता है तो वह भी अब कर ही लेते हैं।
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