सिर्फ राजतंत्र में राजा नहीं होते, लोकतंत्र में भी होते हैं। फर्क यह होता है कि इनके पद का नाम राजा नहीं होता-प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जैसा कुछ होता है। फर्क यह भी होता है कि बेचारों को पांच साल में कम से कम एक बार चुनाव लड़ना पड़ जाता है।
अगर कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति यह तय करे कि उसने झूठ के सहारे पर्याप्त से अधिक बहुमत जुटा लिया है और उसे यह साबित करना है कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं, राजा है तो फिर उसे कोई रोक नहीं सकता। न संविधान, न कानून, न अदालत, न संसद, न टीवी, न अखबार, न विपक्ष, न मेहनतकश जनता, न विदेशी मीडिया, न सोशल मीडिया। बस उसे सबसे झूठ बुलवाने की कला आना चाहिए, फिर थोड़े बहुत लोग सच भी बोलें, विरोध भी करें तो ज्यादा अंतर नहीं पड़ता। ज्यादा खतरा हो तो उनके लिए जेलें हैं, पुलिस है ,बंदूक और गोलियाँ हैं। बाकी भी सबको वह बस में कर लेता है। बोलते रहो। जंगल में मोर नाचा, किसने देखा? सौ- पचास- हजार -लाख कहें भी कि हमने देखा, हमने देखा तो क्या फर्क पड़ता है! वह कहलवा लेता है कि इस देश में न जंगल हैं, न मोर, तो इन्होंने कहाँ देखा? उसका झूठ सच हो जाता है, दूसरों का सच झूठ!
Published: undefined
लोकतांत्रिक राजा, लोकतंत्र की कसम खाकर आता है, बीच-बीच में लोकतंत्र लोकतंत्र, खतरा- खतरा करता रहता है मगर जब राजा होना तय किया है तो फिर लोकतंत्र से क्या डरना! जब तक चुनाव से काम चलता है, चलाओ, नहीं चले तो फर्जी चुनाव करवाओ और फर्जी से भी काम न चले तो राजा हो, राजा रहो। कहो, लोकतंत्र का हमारे दुश्मन फायदा उठा रहे हैं। पहले इन दुश्मनों को खत्म करना है। आइए हम भी हांगकांग बनते हैं, आइए हम भी बर्मा बनते हैं। आइए देश को बचाते हैं, धर्म को बचाते हैं, जाति को बचाते हैं, वर्णव्यवस्था को बचाते हैं।
लोकतांत्रिक के राजा का अश्वमेध का घोड़ा, झूठ होता है, उसकी फौज उसका सोशल मीडिया, उसके टीवी नेटवर्क होते हैं।
Published: undefined
उसे सबसे ज्यादा जनता से झूठ बोलने की कला में पारंगत होना होता है। उसे अमीरों की जम कर सेवा करना होता है। उसे बहरा होना होता है, कभी अंधा, कभी काना भी। बस मुंह उसका मुंह खुला रहे, जब चाहे बोलता जाए, जब चाहे चुप रहे। अक्सर, ये राजा, उन राजाओं से भी बड़े राजा होते हैं, जो पद और नाम से राजा कहे जाते थे। उन राजाओं से ज्यादा ऐश्वर्य ये भोगते हैं।उन राजाओं से ज्यादा ये निरंकुश, सनकी, अकल से पैदल, अड़ियल और अंधे होते हैं। हाँ ये चुनकर ही आते हैं। हाँ हमीं उन्हें वोट देते हैं, बहुमत से चुनते हैं। हाँ इस लोकतंत्र में संसद भी होती है, मंत्रिमंडल भी होता है, अदालतें भी होती हैं, अखबार, रेडियो, टीवी, सोशल मीडिया सब होता है। संविधान भी होता है, कानून भी होते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी होती है। लोकतंत्र के जितने तामझाम होते हैं, सब होते हैं। भाषण भी होते हैं, जुलूस भी निकलते हैं, विरोध भी होता है, समर्थन भी होता है। कहने को कोई कमी नहीं होती मगर सब होकर भी कुछ नहीं होता, अगर वह तय करे कि उसे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं राजा होना है। बेचारे की मजबूरी इतनी भर होती है कि उसके पद का नाम राजा नहीं होता। कहीं उसका नाम राष्ट्रपति होता है, कहीं प्रधानमंत्री मगर शेक्सपीयर कह गए हैं कि नाम से क्या होता है। रेसकोर्स रोड का नाम जिस प्रकार लोककल्याण मार्ग होने से फर्क नहीं पड़ता, उसी तरह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नाम होने से भी क्या अंतर पड़ता है?
जैसे राजतंत्र में होता था, कुछ राजा अशोक और अकबर भी होते थे, कुछ रासरंग में डूबे हुए भी, कुछ विशुद्ध लुटेरे भी, कुछ निरंकुश और पागल भी। लोकतांत्रिक राजा भी कुछ ऐसे ही होते हैं। हमारे यहाँ ऐसे ही एक राजा हैं मगर उनका भांजा बज चुका है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined