विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: आज मैं-मैं वाद का है बोलबाला, जिसे आता था वह पहले ही प्रयास में बन गया प्रधानमंत्री!

आडवाणी जी सफल हिंदूवादी थे मगर मैं-मैं वाद से ज्यादा उन्हें हिंदूवाद आता था, इसलिए वे फेल हो गए। प्रधानमंत्री न बनने का दर्द लिए इसीलिए उन्हें जीना पड़ रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

आजकल देश में, मैं-मैं वाद काफी चला हुआ है। मोदी जी चलाएं तो चलेगा ही बल्कि दौड़ते-दौड़ते अब तो हांफन लगा है। इस मैं-मैं वाद के आगे सभी वाद फेल हैं। हिंदूवाद भी! जो मानते हैं कि हिंदूवाद सफल है, वे मुगालते में हैं। यह सफलता मैं-मैं वाद की है। आप हिंदूवाद में से मोदी जी का मैं-मैं वाद माइनस कर दीजिए, हिंदूवाद चित हो जाएगा! आडवाणी जी सफल हिंदूवादी थे मगर मैं-मैं वाद से ज्यादा उन्हें हिंदूवाद आता था, इसलिए वे फेल हो गए। प्रधानमंत्री न बनने का दर्द लिए इसीलिए उन्हें जीना पड़ रहा है। जिसे हिन्दूवाद से अधिक  मैं-मैं वाद आता था, वह पहले ही प्रयास में प्रधानमंत्री बन गया और आज तक बना हुआ है। उसने सब छोड़ा, मैं- मैं वाद नहीं छोड़ा। इस मामले में बंदा पक्का सिद्धांतवादी है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मैं-मैं वाद की कड़ी से कड़ी आलोचना करके देख ली मगर बंदा टस से मस नहीं हुआ। पक्का सिद्धांतवादी है। इसे कहते हैं-गहरी सिद्धांतनिष्ठा!

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मैं-मैं वाद को आज बीजेपी की राजनीति में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है मगर उस पार्टी में हरेक मैं-मैं करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वहां सिर्फ एक की मैं- मैं  चलती है। कोई और इसकी कोशिश भी करता दिखाई दे तो उसे जमीन सुंघा दी जाती है। तीसमार खां आदित्यनाथ भी इसका अपवाद नहीं हैं। उन्हें भी ठंडी चाय को  फूंक-फूंक कर पीना सीखना पड़ा है। बीजेपी में प्रधानमंत्री की मैं-मैं सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी सबकी मैं-मैं, में-में है।

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मोदी जी का हर वाक्य मैं- मैं से शुरू होकर मैं- मैं पर खत्म होता है। उनकी मैं- मैं के बीच जो कुछ होता है, वह दो मैं-मैं के बीच पुल का काम करता है। श्रोता को उनकी मैं-मैं के अलावा कुछ सुनाई नहीं देता। वह भी श्रोता को केवल मैं-मैं सुनाने के लिए सारा तामझाम रचते हैं। बाकी खानापूरी है। उनके भाषणों की केंद्रीय विषय-वस्तु मैं-मैं और मैं-मैं और मैं-मैं है।

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आदमी मोदी हो या कोई और,नउसकी मैं-मैं, बकरी की में-में से कुछ अर्थों में भिन्न होती है।बकरी जब भी में-में करती है, उसके सामने न माइक होता है, न श्रोता, न कैमरा।नवह करती है  में-में क्योंकि उसे में-में करना ही आता है।नवह कभी भी में-में करने लग जाती है।नउसकी में- में, में प्रधानमंत्री क्या पंचायत का चपरासी बनने तक की आकांक्षा तक नहीं होती।उसकी एकमात्र आकांक्षा पेट भरना है।वह खाली पेट और भरे पेट, दिन या रात नहीं देखती। उसकी में -में दूर दूर तक मैं- मैं का कोई तत्व नहीं है।

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इसके विपरीत आदमी को बहुत कुछ आता है मगर आजकल लगता है,उसे भी केवल मैं -मैं ही आता है। लगता है कि बकरी से उसने में- में करना अच्छी तरह सीख लिया है मगर अपनी विशिष्टता बचाए रखने के लिए उसने इसमें संशोधन करके में-में को मैं-मैं कर दिया है। इस तरह में-में को, मैं-मैं बनाकर उसमें अर्थ भर दिया है। इस तरह यह भी छुपा लिया है कि उसकी गुरु बकरी है। बकरी ने आदमी से कुछ सीखा होता तो वह ऐसी बेईमानी कभी नहीं करती। बकरी और आदमी में यही फर्क है। चार और दो टांग का फर्क तो ऊपरी है, सतही है।

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